mc 52

मीरा चरित 
भाग-52

‘आप कभी याद करने की कृपा नहीं करतीं हैं भाभीसा।बहुत इच्छा रहती है आपके दर्शनों की, किंतु जिससे पूछो वही कहता है आपको भजन पूजन से अवकाश ही नहीं है कि किसी से बात करें।आज तो हिम्मत करके चला ही आया हूँ।’
‘विराजिये’- मीरा ने भोजराज की गद्दी की ओर संकेत किया किंतु रतनसिंह उस गद्दी को दाहिने हाथ से छूकर नीचे गलीचे पर बैठ गये।
‘ अरे अरे नीचे क्यों? - मीरा ने पूछा ‘ऊपर विराजें आप।’
‘भाभीसा बावजी हुकुम मालिक हैं, इनके बराबर कैसे बैठूँगा’

तब तक भोजराज ने बाँह पकड़ कर उन्हें गद्दी पर खींच लिया और हँसते हुये बोले-‘समय से पहले बोझ मत रखो भाई, पहले उसे उठाने की शक्ति तो आये।’
‘ कैसे पधारना हुआ?’  मीरा ने पूछा, साथ ही दासी को बुलाकर भोजन सामग्री लाने के लिए कहा।
‘नहीं नहीं भाभी म्हाराँ, बाहर सभी तैयार हैं आखेट पर जाने के लिए।मैं बावजी हुकुम को बुलाने आया हूँ।आज तो अखाड़े में भी नहीं पधारे आप।’ उन्होंने भोजराज की ओर देखा।
‘थोड़ा मुँह झूठा कर लीजिए फिर दोनों भाई पधारें’- मीरा ने आग्रह किया।
तब तक दासी द्वारा लाई सामग्री मीरा ने बाजोठ (चौकी) पर सजा दी।चम्पा जलपात्र यथास्थान रख, थोड़ी दूर हाँडापाला (हाथ धोने का पात्र) रखकर उसके पास ही हाथ में रामसागर और कंधे पर हस्ताड़ा (तौलिया) लेकर दीवार से लग कर खड़ी हो गई।
‘आरोगो’ - मीरा ने आग्रह किया।
‘आप भी साथ दीजिए न’- रतनसिंह ने कहा।
‘नहीं, आप दोनों ही आरोगो’- मीरा के कहने पर दोनों भाई जीमने लगे।
‘आखेट की बात चली थी और अब आखेट पर जाने का निमंत्रण आ गया।आप फरमाईये जिससे उस बात की आज ही परीक्षा कर लूँ।’- भोजराज ने मीरा की ओर देखा।
‘पशु वही मारे जायें जो गाँवों और जनपदों के लिए विपत्ति स्वरूप हों, जो इतने वृद्ध हों कि भोजन जुटाने में असमर्थ हों, जो टोली से अलग हो जाने पर एकल हो गये हों, ऐसे पशुओं को न मारना राजा के लिए अभिशाप है।वैसे क्या उचित है और क्या अनुचित, यह बात किसी और से सुनने की आवश्यकता नहीं होती। भीतर बैठा अन्तर्यामी ही हमें उचित अनुचित का बोध करा देता है। उसकी बात अनसुनी करने से धीरे-धीरे वह भीतर की ध्वनि धीमी पड़ती जाती है, और नित्य सुनने से उसपर ध्यान देकर उसके अनुसार चलने पर अन्त:करण की बात स्पष्ट होती जाती है। फिर तो अड़चन रहती नहीं। कर्तव्य-पालन राजा के लिए सबसे बड़ी पूजा और तपस्या है।’

दोनों भाई जीम चुके तो केसर जूठे पात्र उठा ले गई और चम्पा हाँडीपाला ले समीप गई।रामसागर से जल ढाल कर पहले भोजराज के फिर रतनसिंह के हाथ धुलाये।कंधे से उतार कर हाथ पोंछने का वस्त्र उनकी ओर बढ़ाया।हाथ मुँह पोंछकर वे चलने लगे तो मीरा ने मुखवास और ताम्बूल पात्र बढ़ाया।पान ले रतनसिंह ने अभिवादन किया और भोजराज के पीछे पीछे बाहर चले गये।

आलोचना और टीका टिप्पणी.....

‘ओ हो यह पश्चिम से आज सूर्य कैसे निकल आया भला?’- मीरा ने खड़ी होकर हँसते हुए कहा।
‘क्या करें जब कुँवरानी सा को हमारी सुध लेने का अवकाश ही नहीं है तो सोचा कि क्यों न हम ही हाजिर हो जायें।’ - ननद उदयकुँवर बाईसा ने कहा।
‘बिराजो’- मीरा ने विनम्रतापूर्वक कहा।उनके साथ ही स्वयं भी बैठते हुए दासी से कहा- ‘बहुत दिनों बाद हमें बाईसा के दर्शन हुए हैं, तो हमारा और सभी लोगों का मुँह मीठा कराओ।जोशीजी से कहना कि ड्योढ़ी पर भी मिठाई पहुँचाऐं।’- ननद की ओर देखकर मीरा ने पूछा- ‘आपके लिए क्या मँगाऊ।बाईसा जो पसंद हो आज्ञा दीजिए।’
‘सच कहूँ भाभी म्हाराँ हमें तो आप ही पसंद हैं, किंतु क्या करें आप तो जैसे दूज का चन्द्रमा हो गईं हैं। वह भी बेचारा प्रत्येक महीने दर्शन दे ही देता है किंतु आप तो उससे भी अधिक दुर्लभ हैं।लगतै है जैसे बावजी हुकुम का ब्याह ही न हुआ हो।’
‘बाईसा प्रयत्न तो करती हूँ कि यमस समय पर सबके चरण स्पर्श कर आऊँ।जाती भी हूँ पर अधिक समय वहाँ ठहर नहीं पाती।इधर ठाकुर जी के भोग का समय हो जाता है। दिन को थोड़ा समय मिलता है तो आपके बावजी हुकुम, बड़े लालजी सा पधार जातें हैं।वे पिछले प्रहर में अखाड़े में अथवा शास्त्राभ्यास के लिए पधारते हैं, तब मैं शास्त्र पुराण सुनती हूँ जोशीजी से।यदि आपको समय होते कृपा करके आप ही दर्शन दे दिया करें।’- मीरा ने स्नेहयुक्त मीठे स्वर में कहा।
दासी मीठा पेय, तले हुए मेवे और मिठाई रख गई।मीरा ने अपने हाथ से का कौर ननद के मुख में देते हुये कहा-‘आरोगो बाईसा’
उदयकुँवर बाईसा ने भी अपने हाथ से भाभी के मुख में मिठाई का कौर दिया- ‘मेरी तो यही समझ नहीं आता भाभी म्हाराँ कि पीतल की मूरत से आपका मन कैसे लग जाता है और बोलते चालते  मनुष्यों से आप दूर दूर रहती हो।’
‘विधाता के पास संसार को चलाने के लिए बहुत प्रकार के साँचें हैं बाईसा।जिनमें वह तरह तरह के जीव, मनुष्यों और उनके स्वभाव गढ़ता है।इनमें कोई एक साँचा ऐसा भी होगा जिससे मेरे जैसा मनुष्य बन कर निकलता हो।’- मीरा ने हँस कर बात टाल दी।

‘आप तो हँस रहीं हैं भाभी म्हाराँ।बाई हुकुम नाराज हो रहीं थीं कि घर आँगन राग भावे नीऔर पाँचा में बैठ कर गावै नी।यहाँ हम कहतीं हैं तो मना कर देती है कि नाचना गाना नहीं आता और अपने महल में दिन उगते ही धमाधम आरम्भ हो जाती है।दासियाँ कहतीं हैं कि आप बावजी हुकुम के समाप नहीं विराजतीं, उनके साथ भोजन नहीं करतीं और अलग पौढ़तीं है, सो क्यो? भाभी म्हाराँ क्यों? क्या मेरे भाई कुरूप हैं? कोई ऐब हैं उनमें? वे आपको नहीं सुहाये? क्यों आप इतना अलह थलग रहतीं हैं? उनका जी कितना दुखता होगा? आप क्यों नहीं सोचतीं? क्यों नहीं देखतीं कि उनका मुख कितना श्रीहीन हो गया है? कितने गम्भीर रहने लगे हैं वो? पहले रनिवास पधारते ही फरमाते थे कि बड़ी भूख लगी है बाई हुकुम, कुछ खाने को दीजिए न।वे विक्रम को गोद में लेकर ऊँचा उछालते, मुझे चिढ़ाते खिजाते।मैं थककर रोने लगती तो मुझे गुदगुदी करते हुए मनाते और कहते- ‘रोवै मत ऐ म्हारी नाजनी बेन, काल सासरिए पूगा देस्यूँ।’ हँसाकर ही दम लेते औ अब?
क्रमशः

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