mc 62

मीरा चरित 
भाग-62

‘दृढ़ संकल्प हो तो मनुष्य के लिए दुर्लभ क्या है?’- मीरा ने कहा।
‘मेरी इच्छा से तो कुछ होता जाता नहीं लगता।सुना है भक्तों की बात भगवान नहीं टालते, तब आपकी कृपा ही कुछ कर दिखाये तो बात न्यारी है अन्यथा मेरे नित्य कर्म तो केवल बेकार होकर रह गये हैं।मैं निराश होता जा रहा हूँ।जीवन की व्यर्थता भाले का अणी सी चुभती रहती है।’- भोजराज की आँखे भर आईं।वे दूसरी ओर देखते हुये आंसुओं को आँखों से पीने का प्रयत्न करने लगे।
‘संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं जो हल न हो सके’- मीरा ने गम्भीरता से कहा - ‘बात तो यह है कि कोई सचमुच समाधान चाहता भी है? आप यह क्यों सोतचे हैं कि मेरे मन में आपका कोई मान सम्मान नहीं? रणांगण में ढाल क्या आपको व्यर्थ बोझ लगती है? वह प्राण रक्षिका प्राणों की भाँति ही प्रिय नहीं लगती? खड्ग जितना आवश्यक है, ढाल क्या उससे कम आवश्यक नहीं है? नहीं, इतने पर भी वह साधन ही है, लक्ष्य नहीं।लक्ष्य है रण विजय।ठीक वैसे ही हम भी एक दूसरे की ढाल हैं, आप मेरी और मैं आपकी’- मीरा ने मुस्कुरा कर कहा।
‘आप मेरी ढाल कैसे हैं’
‘आप विवाह क्यों नही कर लेते’
‘यह संभव नहीं है’
‘क्यों?’
‘वह सब मैं अर्ज कर चुका हूँ पहले भी, बार बार कहने से उसमें कुछ घटता बढ़ता नहीं है’
‘यह तो मैं अर्ज करना चाती हूँ कि आपके और सांसारिक विषयों के बीच मैं ढाल की तरह आ गईं हूँ।चलना तो अब भगवदाराधन वाले इसी आध्यात्मिक पथ पर होगा।’
‘मैं कब इन्कार करता हूँ किन्तु अँधेरे में पथ टटोलते-टटोलते थक गया हूँ अब।आप कृपा करें या कोई सीधा सादा मार्ग बतलाईये।’
‘हमें कहीं जाना हो, पर हम पथ नहीं जानते। किसी से पूछने पर जो पथ उसने बताया, तो उस पथ पर चलने के बदले हम पथ बताने वाले को ही पकड़ लें और समझ लें कि हमें तो गन्तव्य (मंजिल) मिल गया, क्या कहेंगे उसे आप, मूर्ख या बुद्धिमान? मैं होऊँ या कोई और, आपको पथ ही सुझा सकते हैं। चलना तो, करना तो, आपको ही पड़ेगा। गुरु बालक को अक्षर बता सकते हैं, उसको घोटकर नहीं पिला सकते। अभ्यास तो बालक को ही करना पड़ेगा।संसार में या उसकी किसी भी वस्तु में महत्व बुद्धि है, तब तक ईश्वर का महत्व या उसका अभाव बुद्धि-मन में नहीं बैठेगा। जब तक अभाव न जगे, प्राणप्रण से उसके लिए चेष्टा भी न होगी। आसक्ति अथवा मोह ही समस्त बुराइयों की जड़ है।’

‘आसक्ति किसे कहते हैं?’- भोजराज ने पूछा।
‘हमें जिससे मोह हो जाता है, उसके दोष भी गुण दिखाई देते हैं। उसे प्रसन्न करने के लिए कैसा भी अच्छा-बुरा काम करने को हम तैयार हो जाते हैं। हमें सदा उसका ध्यान बना रहता है। उसके समीप रहने की इच्छा होती है। उसकी सेवा में ही सुख जान पड़ता है। यदि यही मोह अथवा आसक्ति भक्त अथवा भगवान में हो तो कल्याण कारी हो जाती है क्योंकि हम जिसका चिन्तन करते हैं उसके गुण-दोष हममें अनजाने में ही आ बसते हैं।भक्ति करने से भक्त प्रसन्न होता है अतः जिसकी आसक्ति भक्त में होगी, वह भी भक्त हो जायेगा।उसकी आसक्ति का केन्द्र भक्त सचमुच भक्त है तो वह अपने अनुगत को सच्ची भक्ति प्रदान कर ही देगा। गुरु-भक्ति का रहस्य भी यही है। गुरु की देह भले ही पाञ्चभौतिक हो, उसमें जो गुरु तत्व है, वह शिव है। गुरु के प्रति आसक्ति अथवा भक्ति उस शिव तत्व को जगा देती है, उसी से परम तत्त्व प्राप्त हो जाता है। गुरु और शिष्य में से एक भी यदि सच्चा है तो दोनों का कल्याण निश्चित है।’
‘यदि भक्त में आसक्ति होने से कल्याण संभव है तो फिर मुझे चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती। आप परम भक्तिमती है और मुझमें आसक्त के सभी लक्षण जान पड़ते हैं।’- भोजराज ने संकोच से सिर झुका दिया।
‘मनुष्य का जीवन बाजी जीतने के लिए मिलता है। कोई हारने की बात सोच ही ले तो फिर उपाय क्या है?’
‘विश्वास की बात न फरमाइयेगा। वह मुझमें नहीं है। उसके लिए तो आपको ही सदय होना पड़ेगा। मेरे योग्य तो कोई सरल उपाय हो तो बताने की कृपा हो’
‘भगवान का जो नाम मन को भाये, उठते-बैठते, चलते-फिरते और काम करते लेते रहें। मन में प्रभु का नाम लेना अधिक अच्छा है, किन्तु मन धोखा देने के अनेक उपाय जानता है। बहुत बार साँस की गति ही ऐसी हो जाती है कि हमें जान पड़ता है कि मानों मन नाम ले रहा है। अच्छा है, आरम्भ मुख से ही किया जाये। इसके साथ ही यदि सम्भव हो तो जिसका नाम लेते हैं, उसके रूप-चिन्तन की चेष्टा भी की जाये।इस प्रकार मन खाली नहीं रहेगा न उल्टे सीधे विचार ही वह कर पायेगा।’
‘प्रयत्न तो करूँगा किंतु अपने पर भरोसा नहीं है।’
‘यह तो अच्छा है कि अंहकार सता नहीं पायेगा’- मीरा और भोजराज एक साथ ही हँस दिये।

‘छोटा कुँवराणी सा पधारया है हुकुम’- दासी ने उपस्थित होकर सूचना दी।भोजराज उठकर बाहर चले गये।रतनसिंह की बहू ने आकर अपनी दासियों सहित चरणों में सिर रख कर प्रणाम किया।मीरा ने खड़ी होकर उसे छाती से लगाया और हाथ पकड़ कर समीप बैठा लिया- 
‘बहुत दिन बाद जेठानी की याद आई’- कहते हुये उन्होंने हँस कर उनका घूँघट उठा कर मुख देखा- ‘वाह, जैसे चन्द्रमा धरती पर उतर आया हो।समय नहीं मिलता होगा, है न? ठीक भी है।बड़े बूढ़ो का कहना मानना और उनकी सेवा करना परम कर्तव्य है।फर्ज पालने में कभी कसर न लगने देना।बुजासा को पूछ कर आयी हो? उनके आदेश के बिना कहीं आना जाना नहीं।उन्हें अप्रसन्न न होने देना।’- एकाएक वे हँस पड़ीं- ‘बीनणी तुम समझ रही हो होगी मन में कि स्वयं जिन बातों का पालन नहीं करती, उन्हीं का उपदेश मुझे कर रही हैं।है न यही बात? सभी एक सा भाग्य लिखा कर नहीं लाते।क्या कहूँ? तुम मुझे अभागिनि समझ लो।’ 
देवराणी ने अनबोले ही माथा अनके चरणों में रख लिया।उसका अर्थ समझ कर मीरा ने कहा- ‘सच कहती हूँ बीनणी अपनी ओर से तो मैं किसी को दु:ख देना नहीं चाहती।
क्रमशः

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