mc 76

मीरा चरित 
भाग- 76

मंडप में बैठे हुए बहुत से लोगों ने भजन लिखने की सामग्री ले रखी थी।निज मंदिर में जोशी जी भगवान को श्रृंगार करवा रहे थे।पर्दा खुलते ही सब लोग उठ खड़े हुये।
‘बोल गिरधरलाल की जय’’साँवरिया सेठ की जय’’व्रजराज कुँवर की जय’ ‘छौगाला छैल की जय’ - की ध्वनि मंदिर से उठ कर महलों से टकराती और गगन में गूँजती हुई राणाजी के कान में पड़ी।उन्होंने दाँत पीस कर तलवार की मूठ पर हाथ रखा।उधर राणा तिलमिलाते रहे, इधर मीरा ने तानपुरा उठाया-

म्हाराँ ओलगिया घर आज्या जी
तन की ताप मिटी सुख पाया हिलमिल मंगल गाया जी।
घन की धुनि सुनि मोर मगन भया यूँ मेरे आणँद छाया जी।
मगन भई मिल प्रभु अपणा सूँ भौं का दरद मिटाया जी।
चंदको निरसि कमोदिणि फूलै हरखि भई मेरी काया जी।
रग रग सीतल भई मेरी सजनी हरि मेरे महल सिधाया जी।
सब भगतन का कारज कीन्हा सोई प्रभु मैं पाया जी।
मीरा विरहणी सीतल होई दु:ख दंद दूर नसाया जी।

चम्पा के साथ-ही-साथ कइयों की कलमें कागज पर चलने लगीं। मधुर राग-स्वर की मोहिनी ने घूम घूम कर सबके मनों को बाँध लिया। मीरा के ह्रदय का हर्ष फूट पड़ा था। भावावेग से मीरा की बड़ी-बड़ी आँखें मुँद गईं और उसके तारों पर आँसू की बूँदें मोतियों की भाँति दमक उठीं।रागिनी धीमी होती ठहर गईं। सभी के मन धुले हुये दर्पण की तरह स्वच्छ उजले हो चमक उठे।शांति कैसी होती है, यह बहुत लोगों ने आज ही जाना। शाह अपनी देह की सुध भूल गया।भजन पूरा होने पर भी उसकी आँखे न उघड़ीं।सुख और शांति का समुद्र जैसे हृदय में हिलोरें लेने लगा।नैन मुँदें हुये, रोम रोम उत्थित और रूद्ध कंठ, ऐसा अनुभव आज तक न हुआ था।

एक साधु ने गदगद कण्ठ से कहा- ‘थोड़ी कृपा और हो जाये।’
‘अब आप ही कृपा करें, प्रभु के रूप गुणों का बखान कर प्यासे प्राणों की तृषा को शांत करने की कृपा हो’- मीरा ने विनम्रता से कहा। 
‘यह तृषा कहाँ शांत होती है?’- दूसरे संत बोले - ‘यह तो जितनी बढ़े और दावानल का रूप ले ले, इसी में लाभ है।’

व्रज को बिहारी म्हाँरे हिवड़े बस्यो छे।
कटि पर लाल काछनी काछे,
हीरा मोती वालो मुकुट धरयो छे॥
गहि रह्यो डाल कदम की ठाड़ो,
मोहन मो तन हेरि हँस्यो छे॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
निरखि दृगन में नीर भरयो छे॥

भजन पूरा होने के पश्चात भी कुछ समय तक सन्नाटा रहा। फिर मीरा ही ने एक संत की ओर देखकर कहा, ‘कुछ फरमाईये कि सब लोग लाभान्वित हो।’
‘हुकुम हो, क्या निवेदन करूँ?’
‘किसी को कुछ पूछना है?’- जोशीजी ने कहा।
‘गुरू कौन हैं? कहाँ मिलेगें? कैसे मिलें?’- एक व्यक्ति ने पूछा।
‘गुरू कहाँ और कैसे मिलें, इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं है’- संत कहने लगे- ‘गुरु कौन हैं? गुरू परम शिव ही हैं। हम गुरु को देह रूप में भले देखते हों, पर उसमें जो गुरूतत्व है वह शिव ही है। यह ठीक वैसे ही है जैसे पाहन के शिवलिंग में शिव हैं। हम पूजा अर्चना शिवलिंग की करते हैं, जो पत्थर का बना है, किन्तु उस पूजा को स्वीकार करनेवाले शिव हैं, वही हमारा कल्याण करते हैं। गुरु की पाञ्चभौतिक देह, पूजा-भक्ति-श्रद्धा का माध्यम है किन्तु उपदेश देने वाले या प्रसन्न-रूष्ट होने वाले शिव ही हैं।अब प्रश्न यह है कि गुरु कैसे मिलें ? शिव सर्वत्र हैं। यदि सचमुच में आपको आवश्यकता है, आतुरता है, तो वह किसी भी स्वरूप में मिलेंगे ही, इसमें सन्देह नहीं। अब घर बैठे मिले या, खोज से? गुरु की आवश्यकता महसूस होने पर वे चाहे भी तो चैन से बैठ नहीं पायेंगे। जो खोज कर सकते हैं, वे अपनी समझ से अपने क्षेत्र में खोज करेंगे और इस खोज में वे भटक भी सकते हैं, किन्तु खोज अगर सच्ची है तो गुरु अवश्य मिलेंगे। जो खोज नहीं कर सकते उनके लिए प्रार्थना और प्रतीक्षा ही अवलम्ब है। उन्हें वहीं उपलब्ध होंगे, किस रूप में उपलब्ध होगें, यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु उनका मनोरथ पूर्ण होगा।अब रही बात यह कि कैसे ज्ञात हो कि ये संत हैं, गुरु हैं? जिनके सानिध्य-सामीप्य से अपने इष्ट की ह्रदय में स्वयं स्फूर्ति हो, वह संत है और भगवन्नाम सुनकर जिसका ह्रदय द्रवित हो जाये, वह है साधक। यह आवश्यक है कि अपनी रूचि का इष्ट और अधिकार के अनुरूप गुरु हो, अन्यथा लाभ होना कठिन होगा।’

अब तक शाह ने अपना आपा सम्हाँल लिया था। वह अपने साथी के साथ खड़ा हो गया और धीरे-धीरे मीरा के सम्मुख जाकर हाथ जोड़कर गदगद कण्ठ से बोला, ‘हुनर (कला), नूर (तेज) उसके ऊपर खुदाई मुहब्बत यह सब एक साथ नहीं मिलते।आज आपका दीदार करके और खुदा का ऐसा करिश्मा देखकर यह नाचीज सुर्खरू हुआ। अपने खुदा के लिये इस नाचीज की छोटी सी भेंट कबूल करके मुझ पर एहसान फरमाईये।’
उसने जेब से हीरों का हार निकाला और अंजलि में लेकर नीचे झुका।
‘ये जैसे मेरे हैं, वैसे ही आपके भी हैं, किन्तु ये शुद्ध मन के निश्छल भावों के भूखे हैं। यह प्रजा का धन आप गरीबों की सेवा में लगाये। इन्हें धन नहीं भक्ति चाहिए।’- मीरा ने कहा। 
‘दिल की बात किसी न किसी चीज या काम से ही रोशन होती है। मेहरबानी होगी आपकी.....।’- कहते हुए उसने माला धरती पर रख दी और एक हाथ से आँसू पौंछता और दूसरे हाथ से तलवार सम्हाँलता वह मन्दिर से बाहर आ गया।
‘जहाँपनाह ठीक नहीं किया आपने।हम दुश्मन के इलाके में हैं।बोलकर तो आपने अपने को एक तरह से रोशन ही कर दिया।’- घोड़े पर बैठते हुए वजीर ने कहा।
‘ठीक कहते हो खान।मैं अपने आप को जब्त न कर सका। ओह, दुनिया का कोई कलावंत ऐसा कैसे गा सकता है?लेकिन गायेगा भी कैसे? वह सब लोगों को खुश करने के लिए गाते हैं और यह मल्का खुदा के लिए गाती है। सच सब कुछ बेनजीर है खान, मेरा यह सफर कामयाब रहा।अब तक दिल बाग बाग है, हाथ पैर ठीक से काम नहीं कर रहे।बड़े खुशनसीब हैं यह चित्तौड़ के बाशिन्दे जिन्हें ऐसी मल्का नसीब हुई।’
क्रमशः

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