mc 57

मीरा चरित 
भाग- 57

मेड़तणीजी के महल से रोने कूटने की ध्वनि नहीं सुनाई दी तो महारानी ने दासी के द्वारा समाचार यह सोचकर भेजा कि कदाचित् बीनणी को किसी ने कहा ही न हो।समाचार सुनकर मीरा ने दासी से कहा- ‘याजी (आदरणीय दासी) बुजासा हुकुम (सासजी) को अर्ज करना कि मैं यह समाचार पहले ही सुन चुकी हूँ- ‘प्रभु की इच्छा पूरी हुई।उनकी खुशी में मैं खुश हूँ। माँ का धरती पर इतने ही दिनों का अन्न जल बदा था। जाना तो सभी को है आगे कि पीछे। उनकी क्या चिंता करे जो चले गये, अपनी ही कर ले तो बहुत है।’
यह उत्तर सुनकर सबके मुख खुले के खुले रह गये- ‘यह कैसी बेटी है?’

गणगौर आई, चैत्र कृष्णा प्रतिपदा से चैत्र शुक्ला तृतीया तक का त्यौहार।नगर में, किले में जिधर देखो, सुंदर वस्त्राभूषण पहनें हुए स्त्रियाँ सिर पर चमचमाते हुये कलश लिए फूल पातीलेने आ जा रहीं हैं- 

माथा ने मैंमद लाय भँवर म्हाँरी रखड़ी रतन जड़ाय।
हो सा म्हाँरी साथणियाँ जोने बाट, भँवर म्हाँने पूजण दो गणगौर।
पूजण दो गणगौर चित्तौड़ा, म्हाँने खेलन दो गणगौर।
के दिन री गणगौर सुंदर गौरी थारे के दिन को उछाह।
सोला दिन री गणगौर भँवर म्हाँरे सतरा दिन को चाव।
म्हाँने खेलन दो गणगौर भँवर म्हाँने सतरा दिन को चाव।
म्हाँने खेलन दो गणगौर भँवर म्हाँने पूजण दो गणगौर।

बड़ी महारानी की दासी आई।उसने अर्ज किया- ‘सूर्योदय होते ही पूजा का मुहूर्त है सो सरकार का पधारना हो जाये। यदि आज्ञा हो तो मैं उपस्थित हो जाऊँ लिवाने के लिए।’
‘इतनी शीघ्र मुहूर्त है याजी, कुछ देर से नहीं था।’ मीरा ने चिंतित स्वर में पूछा।
‘पता नहीं बावजी पंडित जी ने देख कर बताया होगा।मुझे तो दाता हुकुम ( महारानी) की आज्ञा हुई, सो हाजिर हो गई।’ दासी ने कहा।
‘ठीक है तुम्हारे आने की आवश्यकता नहीं है। समय मिला तो मैं स्वयं ही हाज़िर हो जाऊँगी। यदि मुझे विलम्ब हो जाये तो मेरे लिए प्रतीक्षा न करके सभी पूजन कर लें।’
‘अरे बावजी यह न फरमाईये।मुहूर्त टलना कुसगुन होता है।आप पर तो यों ही लोग नाराज़ हैं, उन्हे और क्यों मौका दिया जाये।’
‘ मैं प्रयत्न करूँगी कि समय पर उपस्थित हो सकूँ।’

ब्रह्ममुहूर्त लगते ही मीरा ने स्नान कर लिया पर प्रभु को जगाते हुये हाथ रुक गये- ‘आधी रात के पश्चात तो प्रभु ने शयन किया है, अब.... इतनी शीघ्र कैसे जगा दूँ? अच्छा पहले गणगौर पूज आँऊ किंतु वह मुहूर्त तो सूर्योदय के समय है, यदि अभी जगाकर पूजा आरम्भ न की तो सूर्योदय तक पूरी न हो सकेगी, फिर.... पर नहीं..... कैसे जगा दूँ?
असमंजस में पड़ मीरा वहीं बैठ जप करने लगी- ‘यदि केवल जगाकर गणगौर पूजने चली जाँऊ .....? नहीं वहाँ तो बहुत जमघट लगा होगा।पूजा के पश्चात गाना नाचना और कदाचित् भाँग की मनुहारें.....।तब तक क्या ये यहाँ बिना हाथ मुँह धोये भूखे बैठे रहेगें? नहीं यह कैसे हो सकता है? यदि मैं महाराजकुमाक को निवेदन करूँ इनकी पूजा का.....। अरे नहीं वे क्या जानें कि इनको कैसे क्या रूचता है? यह कार्य दूसरे को सौंपने लायक नहीं है।’
ठीक समय पर वे तानपूरा लेकर बैठ गईं-

जागो बंसीवारे ललना, जागो मोरे प्यारे।
रजनी बीती भोर भायो है, घर घर खुले किंवारे।
गोपी दही मथत सुनियत है, कँगना के झनकारे।
उठो लाल जी भोर भयो है, सुर नर ठाढ़े द्वारे।
ग्वाल बाल सब करत कुलाहल, जय जय सबद उचारे।
माखन रोटी हाथ में लीनी, गउवन के रखवारे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सरण आयाँ कूँ तारे।

ठाकुर जी को जगाकर मीरा ने मुख धुलनाया, स्नान कराकर श्रंगार किया, शीशा दिखाया।दासियाँ सामग्रियाँ ला ला करके रखतीं और ले जाकर रख रहीं थीं।उसी समय नगाड़े पर चोट पड़ी और घड़ी भर में तो नगारों और शहनाईयों के स्वर से गढ़ गूँजने लगा।महारानी की दासी पुन: आई- ‘कुवँराणीसा का पधारना हो, सभी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’
‘याजी तुम जाकर मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।मैं पूजा में बैठ गई हूँ, हाजिर नहीं हो सकती।अभी तो भोग और आरती करना शेष है।’
‘अरे अन्नदाता गजब हो जायेगा।’- दासी ने विनय करते हुये कहा- ‘आज कलह हो यह अच्छा नहीं होता।एक बार पधार जायें लौटकर पूजा कर लें।’
‘यह पूजा नहीं टल सकती याजी, वह टले तो फिर भी खटेगी।तुम जाओ, जाकर अर्ज कर देना।’ मीरा ने दासी के हाथ से भोग लेकर ठाकुर जी के सामने प्रस्तुत किया।

तभी मीरा ने क्रोध में भरी हुई ननद को आते देखा- ‘भाभी म्हाँरा आपको बड़ी बाई हुकुम याद फरमा रहीं हैं’- क्रोध को दबाकर उन्होंने कहा।
‘मैं भोग लगाकर और आरती करके अभी हाजिर होती हूँ’
‘तब तक तो मुहुर्त निकल जायेगा’
‘तो वहाँ सबसे अर्ज कर दीजिए कि पूजन कर लें, मैं बाद में कर लूँगी।’
‘मुहूर्त निकलने के पश्चात पूजन करने से कुसगुन होता है। पधारें जल्दी।’
‘तब मैं नहीं पूजूँगी। किसी देवता में इतनी शक्ति नहीं कि मेरा अनिष्ट कर सके।’
‘आपका क्या अनिष्ट होना है भाभी म्हाँरा, आपके पीहर में गणगौर नहीं पूजते क्या? देश से बाहर है आपका पीहर कि कुछ जानतीं समझतीं नहीं।कुसगुन सुहाग का होता है। अनिष्ट तो बावजी हुकुम का होगा।’
‘ बाईसा पूजा न करके अपराध मैं कर रही हूँ तो दंड भी मुझे ही मिलेगा न। आपके बावजी हुकुम को क्यों भला? और आप सब तो पूजन करेगीं सो वह नहीं देखेगीं? आप सबकी पूजा से बावजी हुकुम का भला नहीं हो सकता क्या?’
‘कैसी हैं आप? इतनी देर में तो हम वहाँ पहुँच भी जाते।उठिये चलिये।’
‘बाईसा’- मीरा ने दृष्टि उठाकर ननद की ओर देखा- ‘मैनें पहले ही आपको अर्ज कर दिया था कि मेरा चूड़ा अमर है और मेरे पति गिरधर गोपाल हैं।उनकी सेवा के बाद यदि समय बचे तो मैं देवताओं और मनुष्यों की सेवा करने को तैयार हूँ उससे पहले नहीं’- मीरा ने ठंडे पर दृढ़ स्वर में कहा।
‘बींद ठाकुरजी हैं तो बावजी हुकुम क्या हैं?’
‘यह बात आप उन्हीं से पूछ लें।’- कहती हुई मीरा ने भोग थाल का ढक्कन उघाड़ कर पर्दा खींच दिया।

उदयकुँवर बाईसा रे जोर जोर से बोलने के कारण भोजराज जग गये।उन्होंने पूछा- ‘कौन है।’
‘बाईसा हैं।’ दासी ने कहा।
‘क्या है उदा’- भोजराज ने पूछा और देखा बहिन का क्रोध से लाल मुख।
क्रमशः

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