mc66

मीरा चरित 
भाग- 66

भोजराज की आँखों के चारो ओर गड्ढे पड़ गये थे।नाक ऊँची निकल आई थी।नाहर से खाली हाथ लड़ने वाला उनका बलिष्ठ शरीर सूखकर काँटा हो गया था।इतने पर भी वे मुस्कराते रहते।माँ बाप, भाई बहिन और साथियों के नयन भर आते किंतु वे हँस देते।
‘आपसे कुछ अर्ज करना चाहता हूँ मैं।’ -एक दिन एकान्त में भोजराज ने मीरा से कहा। 
‘जी फरमाईये’ - समीप की चौकी पर बैठते हुये मीरा ने कहा। 
‘मेरा वचन टूट गया, मैं अपराधी हूँ’ - भोजराज ने अटकती वाणी में नेत्र नीचे किए हुये कहा - ‘दण्ड जो बख्शें, झेलने को प्रस्तुत हूँ। केवल इतना निवेदन है कि यह अपराधी अब परलोक-पथ का पथिक है। अब समय नहीं रहा पास में। दण्ड ऐसा हो कि यहीं भुगता जा सके। अगले जन्म तक ऋण बाकी न रहे।’ उन्होंने हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा।
‘अरे, यह क्या? आप यूँ हाथ न जोड़िये’ - मीरा ने उनके जुड़े हाथ खोल कर आँसू पोंछ दिए।फिर गम्भीर स्वर में बोली -‘मैं जानती हूँ। उस समय तो मैं अचेत थी, किन्तु प्रातः साड़ी रक्त से भरी देखी तो समझ गई कि अवश्य ही कोई अटक आ पड़ी होगी। इसमें अपराध जैसा क्या हुआ भला?’
‘अटक ही आ पड़ी थी।’ - भोजराज बोले - या तो आपको झरोखे से गिरते देखता या वचन तोड़ता। इतना समय नहीं था कि दासियों को पुकारता। क्यों वचन तोड़ा, इसका तनिक भी पश्चाताप नहीं है, किन्तु भोज अंत में झूठा ही रहा........।’ - भोजराज का कण्ठ भर आया। तनिक रूक कर वे बोले, ‘दण्ड भुगते बिना यह दु:ख मरने पर भी नहीं मिटेगा।आप कृपा करें’
‘जो दण्ड आप भुगत रहें हैं अभी, वह क्या कुछ कम हैं? मेरे मन में तनिक भी रोष नहीं है।मरते हुये को बचाना पुण्य है कि पाप? मेरी असावधानी से ही तो यह हुआ। यदि दण्ड किसी को मिलना ही है तो मुझे मिलना चाहिए, आपको क्यों?’
‘नहीं, नहीं।आपको क्यों? आपका क्या अपराध है इसमें?’ भोजराज व्याकुल स्वर में बोले - ‘हे द्वारिकाधीश ! ये निर्दोष हैं।इनका कोई अपराध नहीं है।खोटाई करनहार तो मैं हूँ।तेरे दरबार में जो भी दण्ड तय हुआ हो, वह मुझे दे दो। इस निर्मल आत्मा को कभी मत दुख देना प्रभु’ - भोजराज की आँखों से आँसू बह चले।
‘अब यह क्या कर रहे हैं आप? आप गई गुजरी बात पर अश्रुपात करेगें तो माँदनी बढ़ेगी नहीं? कोई देखेगा तो कहेगा मैं आपको दुखी कर रही हूँ।जब आप स्वस्थ हो जाये तब भले इस बात पर विचार कर लेगें।सच तो यह है कि मुझे अपराध जैसा कुछ लगा ही नहीं।आप शीघ्र स्वास्थ्य लाभ कर लें।’-  मीरा ने स्नेह से कहा।
मीरा की बात सुनकर भोजराज हँस पड़े- ‘अब तो स्वास्थ्य लाभ करेगें गम्भीरा की श्मशान भूमि पर, आपने मुझे क्षमा कर दिया, बहुत बड़ी बात की।मैं योग्य तो नहीं, किन्तु एक निवेदन और करना चाहता हूँ’
‘ऐसा क्यों फरमाते हैं? आदेश दीजिए, पालन करके मुझे प्रसन्नता होगी।’ मीरा ने उनके केशों में उगँलियाँ फेरते हुये कहा।
‘अब अन्त समय निकट है। एक बार प्रभु का दर्शन पा लेता....’

मीरा की बड़ी-बड़ी पलकें मुँद गई।केशों में घूमती उँगलियाँ रूक गईं।भोजराज को लगा कि उनकी आँखों के सामने सैकड़ों चन्द्रमा का प्रकाश फैला है। उसके बीच खड़ी वह साँवरी मूरत, मानों रूप का समुद्र हो, वह सलोनी मूरत नेत्रों में अथाह नेह भरकर बोली - ‘भोज तुमने मीरा की नहीं, मेरी सेवा की है। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ।’
‘मेरा अपराध प्रभु’ - भोजराज अटकती वाणी में बोले। 
वह मूरत हँसी, जैसे रूप के समुद्र में लहरें उठी हों- ‘स्वार्थ से किए गये कार्य अपराध बनते हैं भोज ! निःस्वार्थ के तो सारे कर्मफल मुझे ही अर्पित होते हैं। तुम मेरे हो भोज ! अब कहो, क्या चाहिए तुम्हें?’
उस मोहिनी मूर्ति ने दोनों हाथ फैला कर भोजराज को अपने ह्रदय से लगा लिया।आनन्द के आवेग से भोजराज अचेत हो गये। जब चेत आया तो उन्होंने हाथ बढ़ा कर मीरा की चरण रज माथे चढ़ायी। पारस तो लोहे को सोना ही बना पाता है, पर यह पारस लोहे को भी पारस बना देता है। दोनों ही भक्त आलौकिक आनन्द में मग्न थे।

चंदन की चिता पर भक्त भोजराज.....

‘रत्नसिंह ! तुम्हारी भाभी का भार मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ। मुझे वचन दो कि कभी कोई कष्ट नहीं होने दोगे’ - एकान्त में भोजराज ने रत्नसिंह से कहा। 
‘यह क्या फरमा रहे हैं बावजी हुकम’ - वह भाई की छाती पर सिर रख रो पड़े। ‘वचन दो भाई ! अन्यथा मेरे प्राण सहज नहीं निकल पायेंगे। अब अधिक समय नहीं रहा’
रत्नसिंह ने भाई के पाँवो पर दाहिना हाथ रखा और आँखों से आँसू बहाते बोले - ‘भाभीसा को मैं कुलदेवी बाणमाता से भी अधिक पूज्य मानूँगा। इनका हर आदेश श्री जी (पिता - महाराणा सांघा) के आदेश से भी अधिक अनिवार्य समझूँगा। इनके ऊपर आनेवाली प्रत्येक विपत्ति को रत्नसिंह की छाती झेल लेगी।’
भोजराज ने हाथ बढ़ा कर भाई को छाती से लगा लिया। दूसरे दिन गम्भीरी के तट पर एक चंदन की चिता जल रही थी।राजमहल और नगर में हाहाकार व्यापत था।
          
मीरा के नेत्रों में एकबार आँसू की झड़ी लगी और दूसरे दिन वह उठकर अपने सदैव के नित्यकर्मों में लग गई।बारहवें दिन बूढ़ी विधवा स्त्रियाँ आईं उसके हाथ की चूड़ियाँ उतारने।
‘आप सबको किसने कहा कि मेरे पति मर गये? ठाकुर जी कभी मरते हैं क्या?’- मीरा ने आश्चर्य से पूछा।
‘पति नहीं तो फिर वे क्या थे आपके? ऐसा बचपना अच्छा नहीं लगता हुकुम।उनके साथ ही तो आप यहाँ पधारीं’
‘वे तो मेरे मित्र थे। वे लाये तो यहाँ आ गई थी। अब आप वापिस भेजें तो चली जाऊँगी, पर पति के रहते चूड़ियाँ क्यों उतारूँ?’

बात महाराणा तक पहुँची।सुनकर एकबार तो वे भी भन्ना गये किन्तु रत्नसिंह ने आकर निवेदन किया - ‘भाभीसा तो आरम्भ से ही यह फरमाती रही हैं कि मेरे पति ठाकुर जी हैं। अब आज उन्होंने नया क्या कह दिया कि सब बौखलाये-से फिर रहे हैं ? यदि वे चूड़ियाँ नहीं उतारना चाहतीं तो जोरावरी करने की आवश्यकता नहीं है।’
उनकी बात पर महाराणा साँगा ने मौन साध लिया और रत्नसिंह ने रनिवास में जाकर स्त्रियों को डाँट दिया।जिसने भी सुना, वह आश्चर्य में डूब गया। स्त्रियों में थू-थू होने लगी।
क्रमशः

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