mc 71

मीरा चरित 
भाग- 71

ईडरगढ़ से आपके जवाँई पधारे हैं, यह तो आपने सुन ही लिया होगा।अब आपके कारण मुझे कितने उलाहने, कितनी वक्रोक्तियाँ सुननी पड़ी, सो तो मैं ही जानती हूँ।’
मीरा ने नेत्र उठा कर शांत दृष्टि ननद की ओर देखा, ‘बाईसा, जिनसे मेरा कोई परिचय या स्नेह का सम्बन्ध नहीं है, उनके द्वारा दिए गये उलाहनों का कोई प्रभाव मुझ पर नहीं होता।’
मीरा का यह ठंडा और उपेक्षित उत्तर सुनकर उदयकुवँर बाईसा मन ही मन जल उठी’
उदयकुँवर बाईसा ने व्यंग पूर्वक जहरीले स्वर में कहा- ‘किन्तु भाभी म्हाँरा, आप इन बाबाओं का संग छोड़ती क्यों नहीं हैं? सारे सगे-सम्बन्धियों और प्रजा में थू-थू हो रही है।क्या इन श्वेत वस्त्रों को छोड़कर और कोई रंग नहीं बचा पहनने को? और कुछ न सही पर एक एक स्वर्ण कंगन हाथों में और एक स्वर्ण कंठी गले में तो पहन सकतीं हैं न? क्या आप इतना भी नहीं जानती कि लकड़ी के डंडे जैसे सूने हाथ अपशकुनी माने जाते हैं।जब बावजी हुकम का कैलाश वास हुआ और गहने कपड़े उतारने का समय आया, तब तो आप सोलह श्रृंगार करके उनका शोक मनाती रही और अब? अब ये तुलसी की मालाएँ हाथों और गले में बाँधे फिरती हैं जैसे कोई बाबुड़ी या निर्धन औरत हो। पूरा राजपरिवार लाज से मरा जा रहा है आपके व्यवहार पर।’
मीरा ने उसी तरह ठंडे स्वर में कहा- ‘जिसने शील और संतोष के गहने पहन लिए हो, उसे सोने और हीरे-मोतियों की आवश्यकता नहीं रहती बाईसा’
‘कैसे समझाऊँ आकपो कि आपके इस साधु संग से आपका पीहर और ससुराल दोनों लज्जित हैं।इस विश्वविख्यात चित्तौड़ गढ़ के गर्व से तने खड़े क्गूरे भी मानों लाज से झुक पड़ते हैं।परिवार की अन्य बहू बेटियों के पीहर ससुराल से हाथी घोड़ों पर बैठकर राजसी वस्त्रों में स्वर्णाभरणों से सुसज्जित, सेवक से सेवित पाहुने पधारते हैं और आपके? आपके आते हैं तम्बूरे चिमटे खरताल खड़काते,गेरूआ वस्त्र पहने, कोई लँगोटिये, कोई भभूतिये, कोई मुण्डित, कोई तुलसी और रूद्राक्ष की माला लटकाये, कोई सिर पर जटाओं का गठ्ठर बाँधे तो कोई बड़की जड़ों सी जटायें लिए मोड़े और बाबाओं का झुंड मानों शिव जी की बारात आ रही हो।’- उदयकुँवर ने घृणा से मुँह बिचका कर कहा।
‘हाँ बाईसा, यहाँ शिव एकलिंग नाथ ही हैं न? उनकी बारात से लज्जित होना अच्छी बात नहीं। मैं तो अपने झरोंखों से झाँककर इन साधु बाबाओं को देखती हूँ तो खुशी से फूली नहीं समाती।मैं अपना भाग्य सराहती हूँ। साधु-संग तो जगत से तार देता है बाईसा, आप उल्टी बात कैसे फरमातीं हैं?’ मीरा ने मुस्कराई कर उत्तर दिया तो उदयकुँवर तुनक कर चली गईं।

पीहर (मेड़ता) में आगमन......

इन्हीं दिनों मेड़ते से कुँवर जयमल और उनके पाँचवे पुत्र भँवर मुकुन्द दास मीरा को लेने चित्तौड़ पधारे। दस वर्ष के मुकुन्द दास जब अखाड़े में उतरते, अपने से डेढ़े व्यक्ति को पछाड़ देते।अभी से दो हाथ लम्बी तलवार बाँधते।राजपूती गौरव जैसे स्वयं ही देह धारण कर आया हो। इस बालक को देखकर अपने पराये सभी प्रसन्न हुये।जयमल से पूछ कर महाराणा रत्नसिंह की छः वर्ष की पुत्री श्यामकुँवर को मेड़ते के भँवर मुकुन्द दास जी को ब्याह दी। नयी बहू और मीरा समेत नई सारा लवाजमा मेड़ते की ओर रवाना हुआ।
मेड़ते पहुँचते ही पहली सूचना मिली कि जोधपुर से मालदेवजी ने मेड़ते पर आक्रमण किया, जिसे वीरमदेव जी और रीयाँ के ठीकुरसा ने युद्ध करके वापस फेरा।बालक मुकुंददास पछताते हुये बोले- ‘बावोसा मुझे यूँ ही कुँवरसा ले पधारे। यहाँ होता तो आपके साथ मैं भी रण में जाता।मैं भी मातृभूमि की रक्षा में भाग लेता और मेरा खंग भी रक्त का स्वाद चख मदमाता होता।’
‘तुम ही कौन घाटे में रहे बेटा, बीनणी लेकर आये’- दादा के सम्मान में मुकुंददास ने सिर झुका लिया, फिर सम्हँल कर बोले- ‘बाबोसा ये सिसोदिये महादुर्मति हैं।वहाँ भुवाजी को सुखी नहीं रहने देते।’
‘ऐसा नहीं कहते पुत्र, वे अपने सम्बन्धी हैं।चार पीढ़ी से हमारा उनका सम्बन्ध चला आ रहा है’- जैसे कहीं दूर देख रहे हो, इस तरह वीरमदेव बोले- ‘सिसोदियों की सुमति और योग्यता तुमने देखी नहीं बेटा।अपने फूफा और मेरे साले को तुमने देखा होता.... वे सचमुच हिन्दुआ के सूर्य थे।सूर्य का तेज और उनका प्रताप मानों होड़ लगा रहे हों..... क्या कहूँ पुत्र, वे कैसे दिन थे?’
‘फरमाईये न बाबोसा, कैसे थे आपके साले और मेरे फूफोसा कैसे थे?’- मुकुंददास ने मानों मनुहार करते हुये कहा।
‘बेटा’- वीरमदेव जी ने पोते की पीठ पर हाथ फेरा- ‘मेरे साले महाराणा संग्राम सिंह,जिन्हें सब साँगा कहते थे, ऐसे योद्धा थे कि कहते नहीं बनता।’
‘आपसे भी बड़े योद्धा थे बाबोसा?’
‘कभी लड़कर तो नहीं देखा कि साले बहनोई में कौन अधिक बलवान है, किंतु आत्मबल निश्चय हा उनमें मुझसे अधिक था।देह पर अस्सी घाव थे, एक आँख, एक हाथ और एक पाँव से हीन, किंतु उनके सामने दृष्टि उठाकर देखने की हिम्मत नहीं थी किसी की।सज्जनों का साथी, दुर्जनों का काल, बोलते तो लगता कि वन में नाहर गरज रहा हो।जन्मभूमि और प्रजा के लिए सिर हथेली पर लिए फिरने वाले उस एकलिंग के दीवान की याद आते ही कलेजे पर जैसे घन की चोट लगती है।घायल होने पर भी बोले कि मेरी चिंता न करें आप, और किसी को नेता बनाकर युद्ध जारी रखिए।एक बार इस मुगल के पैर जम गये तो राजपूतों पर कलंक लग जायेगा।आने वाली हमारी पीढ़ियाँ इनकी गुलाम हो जायेगीं।धन और धर्म खोकर कलंकी बन जीवित रहने से मरण भला और सचमुच ही दुष्कर्मियों ने उस नाहर को जहर देकर मार डाला’- वीरमदेवजी ने निःश्वास छोड़ा- ‘टूट गया पर झुका नहीं वह।मैनें भी उन्हें वचन दिया था।सोचा था इस युद्ध मे ऋण उतर जायेगा पर.... कौन..... जाने...... ‘
‘कैसा वचन? कौन सा ऋण बावोसा?’
‘एक बार मैनें दीवानजी को वचन दिया था कि उनके लिए मैं अपना माथाकटा दूँगा। कौन जाने चारभुजा नाथ के मन में क्या है? उस युद्ध में रायमल और रतनसिंह काम आ गये, पर मैं अभी बैठा हूँ।’
‘मेरे फूफोसा कैसे थे बाबोसा?’
‘क्या कहूँ बेटा ! जैसे शांत रस रूप में घुलकर एक हो जाये, जैसे सोने में सुगन्ध मिल जाये। जैसे कर्तव्य और भक्ति मिल जायें, वैसे ही रूप, रंग, गुण और बल का भंडार था मेरा जवाँई।
क्रमशः

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