mc 55

मीरा चरित 
भाग- 55

हिंडोले पर सुंदर सुकोमल बिछौना बिछाया।तब तक उनकी स्वामिनी अपने हृदयधन का हाथ थामें आ गईं। दोनों के विराजित होने पर वे झूला देने लगीं।गीतों के स्वर गगन में गूँजने लगे।भाँग और मिष्ठान्न की मनुहारें हुईं।झूल कर महल में पधारे तो जीमण ( भोजन) की तैयारी हुई। स्वर्ण के बाजोठ पर सोने के बड़े थाल में विविध भोजन सामग्रीयाँ प्रचुर मात्रा में परोसी गईं (यों भी प्रथा है कि स्वामी का थाल भरा ही रहे, इसलिए भरे हुए थाल में ही बार बार परोसा जाता  था) दासियाँ जानतीं थीं कि नित्य अपनी स्वामिनी का प्रसाद ही उन्हें मिलता है पर आज तो जगत के स्वामी का प्रसाद भी मिलेगा, अत: थाली खाली न होने पाये।
मीरा ने प्रथम कौर अपने हाथ से दिया और द्वारिकानाथ के हाथ से स्वयं लिया।दूसरा देने पर प्रभु ने कहा- 
‘खाओ न’
‘एक कौर तो शत्रु को दिया जाता है प्रिय’

आज मीरा की प्रसन्नता की सीमा नहीं है। आज जीवन का चरम फल प्राप्त हुआ है।आज उसके घर भव- भव के भरतार पधारे हैं उसकी साधना, उसका जीवन सफल करने।सबसे बड़ी बात यह हैकि रँगीले राजपूत के वेश मे हैं प्रभु, केसरिया साफा, केसरिया अंगरखा, लाल किनारी की केसरिया धोती और वैसा ही दुपट्टा। शिरोभूषण में लगा मोरपंख, कानों में हीरे के कुण्डल गले के कंठे में जड़ा पदमराग कौस्तुभ, मुक्ता और वैजयन्ती माल, रत्न जटित कमरबन्द, हाथों में गजमुख कंगन और सुन्दर भुजबन्द, चरणों में लंगर और हाथों में हीरे-पन्ने की अँगूठियाँ। और इन सबसे ऊपर वह रूप, कैसे उसका कोई वर्णन करे।उसे देख मन अपनी खुदी बचा ही कहाँ पाता है। यदि रहे भी तो उसकी नन्हीं सीप सी काया में वह रूप समंद कैसे समाये।अथाह की थाह कौन ले? असीम को अक्षरों में कैसे बाँधे ? बड़ी से बड़ी उपमा भी जहाँ छोटी पड़ जाती है। श्रुतियाँ नेति-नेति कहकर चुप्पी साध लेती हैं, कल्पना के पंख समीप पहुँचने से पूर्व ही थककर ढीले पड़ जाते हैं, वह तो अपनी उपमा अपने आप हैं।कोई दूसरा हो तो बताया जाये कि ऐसा किंतु क्या यही कह कर संतोष मिल जाता है? यदि ऐसा होता तो सरस्वती माता, शेष, सनक, नारद और हर कभी के चुप हो गये होते किंतु न उनकी जिह्वाएँ विराम लेतीं हैं और न मन भरता है।वह इतना मधुर ..... सदावलोकनीय..... प्रियातिप्रिय..... सुवासित..... नयनाभिराम और सुकोमल है कि क्या कहा जाये, कैसे कहें..... कैसे बतायें कि क्या है, कैसा है, क्या नहींहै वह? 
मीरा भी केवल इतना ही कह सकी-

थाँरी छवि प्यारी लागे, राज राधावर   महाराज।
रतन जटित सिर पेंच कलंगी, केशरिया  सब साज॥
मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल,रसिकौं रा  सरताज।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, म्हाँने मिल गया व्रजराज॥

भोजराज पर आध्यात्मिक रंग.....

रनिवास में उदयकुँवर बाईसा की बातें सुनकर असन्तोष छा गया।मीरा को अवकाश कहाँ है यह सब देखने का? वह रूप, वह स्पर्श, वह वाणी सुनने से पूर्व ही लोग पागल हो जाते हैं तो वह सब देख सुनकर अपना आपा कैसे सम्हाँले कोई।समय मिलने पर भोजराज और कभी-कभी रत्नसिंह भी आकर उनके समीप बैठते, बातें सुनते और विचारते। धीरे-धीरे भोजराज पर भी रंग चढ़ने लगा। लोगों ने देखा कि उनके माथे पर केशर-चन्दन का तिलक और गले में तुलसी माला।किसी ने दु:ख से निःश्वास छोड़ पूछ लिया- ‘अरे बावजी हुकुम यह क्या?’
वे पूछने वाले की ओर देखकर हँस देते।बात महाराणा तक पहुँचीं।यों तो वे अपने इस होनहार पुत्र के प्रत्येक कार्य की खबर रखते थे।उन्होंने रतनसिंह के द्वारा दूसरे विवाह के लिए भी पुछवाया। उत्तर मिला पूरनमल के द्वारा- ‘गंगातट पर रहने वालों को डाबर का गंदा पानी पीने का मन नहीं होता।श्री जी रत्नसिंह का विवाह करवा दें, जिससे रनिवास का क्षोभ दूर हो।’ महाराणा ने देखा और सुना कि आखेट में गर्भिणी मृगी को देखकर उन्होंने धनुष से तीर उतार लिया।फरियादियों के लिए समय की कोई रोक नहीं रही। वे किसी भी समय महाराज कुमार की सेवा में उपस्थित होकर अपनी पीड़ा निवेदन कर सकते हैं।रहन सहन सादा हो गया है।अब उन्हें सात्विक भोजन रूचिकर लगता है।व्यर्थ के हँसी तमाशे और खेलकूद छूट गये हैं।बातों का विषय आध्यात्मिक, देश की तत्कालिक स्थिति, कर्तव्य, राज्य प्रबंध, युद्धस्थल अथवा शस्त्राभ्यास ही रह गया है।कुवँरानी सा मेड़तणीजी की बुराई उन्हें सख्त नापसंद है।

सलुम्बर के रावत ने यह सब सुनकर श्री जी से निवेदन किया- ‘यदि हुकुम हो तो निवेदन करूँ कि ये मेड़तणीजी सा महाराजकुमार को बाबा बना देंगी।वंश कैसे चलेगा? और ऐसे योग्य पुरूष तलवार की ठौर मँजीरे बजाने लगें तो सत्य मानिये कि हमारा और मेवाड़ का दुर्भाग्य द्वार पर खड़ा है।यदि उचित समझे तो महाराजकुमार का एक और विवाह करवा दिया जाये।’
उनकी बात सुनकर महाराणा हँस पड़े- ‘बाबा तो हम हैं काकाजी। स्त्री संतान वाले बाबा हैं, यह अलग बात है।उधर उस विजय स्तम्भ पर फहराते हुए भगवा ध्वज को देखिए।वह हमें धर्म कर्तव्य और ईश्वर के साथ साथ यह भी स्मरण कराता है कि हम एकलिंग के सेवक बाबा ही हैं।आज भी आपको सलुम्बर बाबा ही कहा जाता है सो क्यों? अब रही बात युवराज की सो यह खातिर जमा रखें कि वे भले मेड़तणीजी के महलों में मंजीरे या तम्बूरे बजायें, रण में तो तलवारें ही चलेगीं उनके हाथों से और वह भी बेहिचक।अब रही वंश की बात? यदि मेरे पश्चात भोज सिहाँसन पर बैठे तो निश्चय मानिये रामराज्य स्थापित हो जायेगा मेवाड़ में, किंतु.....!’ किंतु महाराणा किसी सोच में डूब गये।
‘किंतु क्या सरकार?’
‘ किसी से कहने की बात नहीं है यह, इसलिए कहना नहीं चाहता।आप तो पराये नहीं हैं फिर भी यह बात तीसरे कान में न पहुँचे, यह सावधानी रखियेगा।’
‘खातिर जमा रखावें सरकार’

‘मुझे गुजरात में एक ज्योतिषी मिला था।वह ललाट की रेखा देख सत्य भविष्य कह देता था।उसी ने बताया था कि जिससे तुम्हारा वंश बढ़ेगा, उस पुत्र ने तो अभी जन्म ही नहीं लिया।अभी जो हैं इनमें कोई पुत्र चिरंजीवी नहीं है, किंतु प्रथम पुत्र की वधु तुम्हारे वंश को विश्वविख्यात कर देगी।जो उसे कष्ट पहुँचायेगा नष्ट हो जायेगा।हमें युवराज की चिन्ता क्यों हो ? भोजराज अपने कर्तव्य में प्रमाद नहीं करते, तो ठीक है ; देखा देखी ही सही, भक्ति करने दो। मानव जन्म सुधर जायेगा।
क्रमशः

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