mc 67

मीरा चरित 
भाग-67

उसी दिन से मेड़तणी जी उपेक्षित ही नहीं घृणित भी हो गई। दूसरी ओर संत समाज में उनका मान सम्मान बढ़ता जा रहा था। पुष्कर आने वाले संत मीरा के दर्शन-सत्संग के बिना अपनी यात्रा अधूरी मानते थे। उनके सरल सीधे-सादे किन्तु मार्मिक भजन जनसाधारण के मानस को खींच लेते थे।

चित्तौड़ की राजगद्दी पर विक्रमादित्य....

दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोदी बाबर से पानीपत के युद्ध में हार गया।बाबर का हौसला बढ़ता देख राजपूताने के सभी शासक इकठ्ठे होकर बाबर ले लड़ने का विचार करने लगे।यही निश्चय हुआ कि मेवाड़ के महाराणा साँगा की अध्यक्षता में सभी छोटे-मोटे शासक बाबर से युद्ध करें। एक दिन युद्ध का धौंसा धमधमा उठा।शस्त्रों की झंकार से राजपूती उत्साह उफन पड़ा।आगरा के पास खानवा के मैदान में रणभेरी बज उठी।आज सिसौदियों के कलेजे में वीर भोजराज का अभाव कसक रहा था। रत्नसिंह वीर हैं, किन्तु उनकी रूचि कला की ओर अधिक झुकी है। महाराणा सांगा युद्ध के लिए गये और रत्नसिंह को राज्य प्रबन्ध के लिए चित्तौड़ ही रह जाना पड़ा।

एक दिन रत्नसिंह ने अपनी मेतड़णी भाभी सा से पूछा, ‘जब संसार में सभी मनुष्य भगवान ने ही बनाए हैं, उनके स्वभाव और रूप गुण भी उन्हीं की कला है, फिर किसी को भला और किसी को बुरा कहकर लड़ाई झगड़ा करने क्या उचित है? सारी पृथ्वी प्रभु की है, फिर मनुष्य क्यों मेरी-मेरी करके किसी को मारता और मरता है?’
‘लालजीसा ! जिसने मनुष्य और उनके गुण स्वभाव बनाये हैं उसीने कर्तव्य, धर्म और न्याय भी बनाये हैं। इनका सामना करने के लिए उसी ने पाप अधर्म और अन्याय की रचना भी की है, जिससे संसार एकरस न रह कर पल पल बदलता रहे, कोई ऊब न उठे।राजा का धर्म है कि कोई अन्यायी ऊपर आ पड़े तो उससे प्रजा की और धरा की रक्षा करने के लिए युद्ध करके उसे राज्य से बाहर ढकेल दे।यदि बाबर न आता तो अन्नदाता हुकुम लड़ने क्यों पधारते?’
‘मनुष्य को मारना क्या धर्म है?’- रतनसिंह ने पूछा।
‘धर्म की गति बहुत सूक्ष्म है लालजीसा ! बड़े-बड़े मनीषी संशय में पड़ जाते हैं, क्योंकि जो कर्म एक के लिए धर्म की परिधि में आता है, वही कर्म दूसरे के लिए अधर्म के घर जा बैठता है।यही नहीं एक ही मनुष्य के लिए जो कर्म एक समय धर्म है, दूसरे समय वही कर्म उसी मनुष्य के लिए अधर्म हो जाता है।जैसे सन्यासी के लिए भिक्षाटन धर्म है, किन्तु गृहस्थ के लिए अधर्म। ब्राह्मण के लिए याचना धर्म हो सकता है, किन्तु क्षत्रिय के लिए अधर्म।जैसे ब्रह्मचारी के लिए स्त्री संग अधर्म है, परंतु वही व्यक्ति गृस्थाश्रमी हो जाये तो उसके लिए धर्म है।ऐसे ही अपने स्वार्थवश किसी को मारना हत्या है और युद्ध में मारना धर्म सम्मत वीरता है। समय के साथ नीति-धर्म बदलते रहते है।यह सब व्यवहार की बातें हैं, अन्यथा तो सम्पूर्ण दृश्य अदृश्य सबकुछ ईश्वर के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं’- 
फिर सावधान होकर वे बोलीं- ‘व्यवहार तो व्यक्ति और वस्तु के अनुरूप ही होगा।जब देह व्यवहार विस्मृत हो जाता है, तो वह पागल अथवा परमहंस होता है।’

खानवा में हो रहे भीषण युद्ध के समाचार चित्तौड़ आते रहते थे।महारणा साँगा जी जान से युद्ध कर रहे थे कि बाबर को देश से बाहर निकाल देना है।युद्ध में महाराणा सांगा के चेहरे पर एक विषबुझे बाण लगा और वे मूर्छित हो गये। कई मेवाड़ी सरदार उन्हें जयपुर के पास बसवा गाँव में ले जाकर चिकित्सा कराने लगे।राजपूतों को देखकर बाबर तो जीत की तनिक भी आशा नहीं थी, परंतु भाग्य ने उसका साथ दिया।महाराणा राणा ने मूर्छा हटने पर युद्ध के समाचार पूछे।सारी बातें जानकर उन्होंने कहा कि बाबर को जीते बिना मैं चित्तौड़ वापिस नहीं जाऊँगा।महाराणा बसवा में ही सेना इकठ्ठी करने का प्रयत्न करने लगे।यह देखकर किसी विश्वासघाती ने उन्हें विष दे दिया। महाराणा के निधन से सचमुच हिन्दुआ सूर्य अस्त हो गया।महाराणा का दाह संस्कार मांडलगढ़ में किया गया।महाराणा साँगा के बाद मेवाड़ की राजगद्दी पर भगवान एकलिंगनाथ के दीवान के रूप में कुँवर रत्नसिंह आसीन हुये।
महाराणा सांगा की धर्मपत्नी धनाबाई से रत्नसिंह का जन्म हुआ था और कर्मावती (करमैती) बाई से कुँवर विक्रमादित्य और उदयसिंह का जन्म हुआ था।हाड़ी रानी करमैती बाई पर महाराणा की विशेष प्रीति थी, इसलिए कुँवर भोजराज की मृयु के बाद हाड़ी रानी ने महाराणा से निवेदन करके अपने दोनों पुत्रों के लिए रणथम्भोर की जागीर लिखवा ली।अजेयगढ़ रणथम्भोर चित्तौड़ से अलग रहे।यह कुँवर रतनसिंह को प्रिय नहीं था, परंतु वे पूज्य पिता के समक्ष नतमस्तक थे।मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठने के बाद एक ओर महाराणा रतनसिंह चाह रहे थे कि रणथम्भोर चित्तौड़ का ही अंग बना रहे और उधर सौतेली माँ हाड़ी रानी चाह रही थी कि मेवाड़ की राजगद्दी पर उसका पुत्र कुँवर विक्रमादित्य आसीन हो।यह परिवारिक वैमनस्य रत्नसिंह के लिए अकाल काल बन गया और उसके जीवन के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ।राणा रतनसिंह का दाह संस्कार पाटण ग्राम में हुआ और महाराणी पँवार जी सती हो गईं। इनके एक पुत्री थी श्याम कुँवर बाईसा।
चित्तौड़ की गद्दी पर वि. सं. 1588 में पधारे कलियुग के अवतार राणा विक्रमादित्य। वह अविश्वासी और ओछे स्वभाव के थे।किसी की भी बात मानना इनके स्वभाव में न था।इतने बड़े राज्य का प्रबंध कठिन हो गया।खिदमतगारों के नाम पर पाँच हजार पहलवान पाल रखे थे।कुटिल मूर्ख और चाटुकार लोग ही उनके आसपास नजर आते थे। बड़े से बड़े सामंत का अपमान अथवा हँसी उड़ाने में महाराणा को संकोच न होता था।अपना सम्मान बचाने के लिये वफ़ादार नेकनीयत सामंत और कर्मचारी अपने अपने घर जा बैठे।महाराणा ने अपने जैसे कुबुद्धियों को ही उत्तरदायित्वपूर्ण पद सौपें और बुद्धिमान ईमानदार स्वामीभक्त लोगों को निकाल दिया।राज्य के वे सुदृढ़ स्तम्भ सामंत जो पीढ़ियों से अपने रक्त और सिरों से इस राज्य की चाहरदीवारी चुनते रहे थे, अपमानित होकर मुँह फेर बैठे।जो त्याग और बलिदान की सीढ़ीयाँ बने थे वे आज दूध में मक्खी हो गये।कोई ऐसा उमराव न बचा, जिसे एक से अधिक बार अपमान के कड़वे घूँट न पीने पड़े हों, किंतु मातृभूमि से द्रोह और स्वामी भक्ति पर दाग न लग जाये, इस भय से चुप बैठे रहे।
क्रमशः

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