mc 60

मीरा चरित 
भाग-60 

विधाता ने सोच समझ करके जोड़ी मिलाई है, पर आकाश कुसुम कैसे?’q
‘इसलिए कि वह धरा के सब फूलों से सुंदर है’
‘बावजी हुकुम अखाड़े और शस्त्राभ्यास से मैं भले ही जी चुरातारहा होऊँ, किंतु कला और साहित्य की थोड़ी समझ आपके इस सेवक में हैं।इसी कारण वहाँ खड़े इतने लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया किंतु मैं उसी क्षण से बैचेन हो उठा हूँ।क्या इतना अपदार्थ हूँ कि ......।’ रतनसिंह ने भोजराज की ओर सजल नेत्रों से देखा।
भोजराज ने भाई को बाँहों में भर लिया- ‘ऐसा न कहो, ऐसा न कहो भाई’- कुछ क्षण के लिए भोजराज चुप होकर सामने कहीं दूर जैसे क्षितिज में कुछ ढूँढ़ने लगे।तब तक रतनसिंह उनके मुख पर आने वाले उतार चढ़ाव का निरीक्षण करते रहे।
‘क्या करोगे सुनकर’
‘यह नहीं जानता, इस पर भी सुनना चाहता हूँ’
‘आकाश कुसुम किसे कहते हैं’
‘सुंदर किंतु जो अप्राप्य हो’
बस यही है, जो तुम जानना चाहते हो’
‘बावजी हुकुम’- रतनसिंह केवल सम्बोधन करके रह गये।क्षणभर में अपने को सम्हाँल कर उन्होंने पूछा- ‘किंतु क्यों कैसे?
‘यदि तुम्हें ज्ञात हो जाये कि जिसे तुम विवाह करके लाये हो वह पर- स्त्री है, तो क्या करोगे?’
‘पर-स्त्री? पर कैसे? मेड़तियों ने दगा किया हमारे साथ? किंतु गौरलदे भुवासा तो वहीं थीं, यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो वे हमें कभी प्रोत्साहित न करतीं इस विवाह के लिए।भाभीसा या कोई भी विवाहित नारी पुन: विवाह के लिए कैसे तैयार हो सकती है? मेरी बुद्धि को काम नहीं करती, कैसे हुआ यह सब?’

‘मेड़ते में कुँवर कलेऊ के समय हमारे बीच कौन था’
‘ठाकुर जी विराजे थे।अच्छा बावजी हुकुम,वहाँ ठाकुर जी का क्या काम था? कैसी परम्परा है इन मेड़तियों के यहाँ?’
‘स्मरण है तुमको? तुमने पूछा था कि यह क्या टोटका है? कब मैनें कहाथा कि बींद यही हैं, मैं तो टोटका हूँ।’- भोजराज ने रतनसिंह की बात अनसुनी करके कहा।
‘हुकुम याद आ गया, तो क्या भाभीसा....?’
‘हाँ, बचपन में किसी की बारात को देखकर उन्होंने अपनी माँ से पूछा कि यह कौन है? उन्होंने बताया कि नगरसेठ की बेटी का बींद है।तुम्हारी भाभीसा ने जिद की कि मेरा बींद कौन है, बताओ? बहुत बहलाने पर भी वो न मानीं तो उन्होंने कह दिया कि ये गिरधर गोपाल तुम्हारे बींद हैं।बस उसी दिन वह बात इतनी गहरी पैठ गई कि ठाकुर जी को आना ही पड़ा।’
‘ठाकुर जी को आना पड़ा’- रतनसिंह ने आश्चर्य में भर कर पूछा।
‘हाँ, अक्षय तृतीया की अगली रात उनका विवाह ठाकुर जी के साथ हो गया’
‘आपको कैसे विश्वास आया ऐसी बिना सिर पैर की बात पर?’
‘यहाँ से गया पड़ला ज्यों का त्यों रखा है और द्वारिका के वस्त्राभूषण इतने मूल्यवान हैं कि अनुमान लगाना कठिन है।मैनें दोनों ही देखें हैं।अभी तीज की रात भी ठाकुर जी पधारे थे।’
‘आपने देखा उनको?’
‘नहीं, किंतु जो कुछ देखा उससे ज्ञात हो रहाथा कि वहाँ तीसरा कोई और भी है।’
‘तब भी कौन सी कठिनाई आ पड़ी है।मेदपाट के युवराज को भाभीसा जैसी अनिद्य सुंदरी न सही, इनसे कुछ न्यून तो मिल ही सकती है।’- देर तक सोचने के बाद रतनसिंह ने कहा।भोजराज चुप ही रहे।
‘बावजी हुकुम’- कुछ देर बाद रतनसिंह ने उन्हें सचेत किया।
‘हाँ’
‘मैनें कुछ निवेदन किया था’ 

रतनसिंह और भोजराज की आयु में दो वर्ष का अंतर था, किंतु छोटे होने के कारण वे स्वेच्छा से बड़े भाई के प्रति परम्परागत सम्मान को बनाए रखने के लिये बातीत में, उठ बैठ में, पर्याप्त अंतर रखते थे।इस समय भी वे भाई के पैरों के पास बैठकर इस प्रकार बात कर रहे थे कि अपना समाधान भी हो जाये और बड़े भाई का सम्मान भी कम न हो।
‘एक बात पूछूँ’- भोजराज बोल पड़े।
‘आदेश दीजिए’
‘तुम्हारे साहित्य में मन के विषय में कुछ कहा गया है? वह क्या है? कैसा है? उसकी शक्ति सीमा आदि.....?’- भोजराज ने वाक्य अधूरा छोड़कर भाई की ओर देखा।
‘मैं समझ रहा हूँ सरकार की बात’- रतनसिंह मुस्कराये- ‘मन कैसा भी हो और कितना भी शक्तिशाली हो, पर है वह अपना ही।किसी ये उधार लिया हुआ नहीं है कि यदि बिगड़ गया तो उसके स्वामी को क्या उत्तर देगें?’
‘सच कहते हो, किंतु यदि वह हो ही नहीं अपने पास को किसे बिगाड़ा या सुधारा जाये’
‘ऐसा कैसे हो सकता है?’ रतनसिंह ने प्रश्न किया।
‘अभी तुम बालक हो’
‘राज ज्योतिषी के पास चलेंआयु का निर्णय करने?’ रतनसिंह मुस्कराये।
‘आयु से समझ का क्या सम्बन्ध है?’
‘तब फिर कैसे ज्ञान हो?’
‘यह तो मैं भी नहीं जानता?’
‘मन का ठौर ठिकाना तो जानते हैं?’
‘हाँ किंतु उससे लाभ क्या है?’
‘खींच लायेगें वहाँ से’- रतनसिंह ने कहा।
‘तुम अपने भाई को निर्बल समझते हो?’
‘ यह तो कोई भी नहीं कह सकता, किंतु कुछ तो समाधान निकालना पड़ेगा न’
‘क्यों? ऐसे ही चलें तो हानि क्या है? व्यर्थ चिंता छोड़ो।मनुष्य जो कुछ भाग्यमें लिखा कर लाता है, वही देता और पाता है’
‘कौन हैं वे महाभाग जो सरकार के मन के आश्रय बने हैं?’
‘क्या करोगे जानकर?’
‘श्री चरणों में उपस्थित करके अनुकूल करने का प्रयत्न करूँगा’
‘असंभव’
‘यह मैं नहीं मानता’
‘तुम क्या, इसे तो एकलिंग नाथजी को भी मानना पड़ेगा’- भोजराज का स्वर भारी हो गया।
‘बावजी हुकुम’- रतनसिंह रूँधे गले से केवल सम्बोधन करके रह गये।उनकी आँखे भर आईं।उन्होंने पूछा- ‘कोई आशा नहीं?’

उत्तर में भोजराज ने सिर हिला दिया।रतनसिंह घुटनों में सिर दे सिसक पड़े।कुछ मोती भोजराज की नयन शुक्तियों से भी झरे और रतनसिंह के केशों में उलझ कर रह गये।शीघ्र ही भोजराज ने अपने को सम्हाँल लिया।
‘भाई मेदपाट के राजकुँवर तन मन की पीड़ा से नहीं रोते’- रतनसिंह की आँखों में देख वे मुस्कराये- ‘इनके लिए तो मन का होना ही अशुभ है।हमें केवल बुद्धि की आवश्यकता होती है।हम प्रजा धर्म देश और कर्तव्य की सम्पत्ति हैं।हम अपने लिए नहीं जीते मरते।इन्हीं के लिए हमारा जीवन धरोहर और मृत्यु मंगल महोत्सव होती है।यह दुर्बलता हमें शोभा नहीं देती।उठो चलें, एक बात का ध्यान रखो कि आज की बातचीत यहीं गाढ़ देना, इतनी गहरी कि कभी ऊपर न आये।

प्रबोधन- उद्बोधन के पावन प्रसंग.....

मीरा का अधिकांश समय भावावेश में ही बीतता। 
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला