mc 65

मीरा चरित 
भाग- 65

दाझया  ऊपर लूण  लगायो  हिवड़े करवत सारयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणा चित धारयो।

‘म्हें थारो कई बिगाड़यो रे पंछीड़ा ! क्यों तूने मेरे सिये घाव उधेड़े ? क्यों मेरी सोती पीर जगाई ? अरे हत्यारे, मेरे पिय दूर हैं। वे द्वरिका पधार गये, इसी से तुम्हें ऐसा कठोर विनोद सूझा? श्यामसुन्दर ! मेरे प्राण ! देखते हैं न आप इस पंछी की हिम्मत ? आपसे रहित जानकर ये सभी जैसे मुझसे पूर्व जन्म का बैर चुकाने को उतावले हो उठे हैं। पधारो-पधारो मेरे नाथ ! यह शीतल पवन मुझे सुखा देगी, यह चन्द्रमा मुझे जला देगा। अब और......... नहीं ...... सहा..... जाता ... नहीं.... स......हा... जा.... ता।’
भोजराज ने जलपात्र मुख से लगाया।जल पिलाकर वे पंखा झलते हुये मन में कहने लगे - ‘मुझ अधम पर कब कृपा होगी प्रभु ! कहते हैं भक्त के स्पर्श से ही भक्ति प्रकट हो जाती है, पर भाग्यहीन भोज इससे भी वंचित है।’
तब तक मीरा अचेत होकर गिर पड़ी।
भोजराज ने मंगला और चम्पा को पुकार।उन्हें आज्ञा दी कि अब से वे अपनी स्वामिनी के पास ही सोयें। 

सम्हँल के लिए सचिंत सचेष्ट भोजराज....

मीरा की अवस्था कभी दो-दो दिन,कभी तीन- तीन दिन और कभी आठ दिन तक भी सामान्य नहीं रहती थी। वे कभी मिलन के हर्ष और कभी विरह के आवेश में जगत और देह की सुध को भूली रहतीं। कभी खिलखिला कर हँसती, कभी मान करके बैठी रहतीं और कभी रोते-रोते आँखें सुजा लेतीं। यदि ऐसे दिनों में भोजराज को चित्तौड़ से बाहर जाने का आदेश मिलता तो उनके प्राणों पर बन आती।वे न टालमटोल करते और न कुछ कहते, किंतु मन में सोचते कि कौन जाने वापस आकर किस अवस्था में देखूँगा।यदि कहीं रण में जाने की आज्ञा होती तो वे फूले न समाते।किसी और का नाम लेने पर भी वे स्वयं जाने का आग्रह करते।महाराणा उनके उत्साह को देख चिंतित हो उठते- ‘क्या बात है कि ये युद्ध के लिए यों उतावले हो उठते हैं, मानों नया नया जवाँई ससुराल जाने को उमँग रहा हो।मौत के मँह में छलाँग लगाने का यह उत्साह..... कहीं.... निराशा ही तो प्रेरित नहीं कर रही है? रतनसिंह तो कहता है कि दोनों में बहुत बनती है।कहीं..... कामना..... तो...... ? कुछ भी हो कैसे भी हो, अग्नि का स्पर्श उसे दागे बिना न रहने देगा।’

आगरा के समीप सीमा पर भोजराज घायल हो गये। सम्भवतः शत्रु ने विष बुझे शस्त्र का प्रहार किया था। राजवैद्य ने दवा भरकर पट्टियाँ बाँधी। औषधि पिलाई और लेप किये जाने से धीरे-धीरे घाव भरने लगा।
एक शीत रात्रि। कुवँर और कुँवराणी महल में पौढ़े हुये थे। घाव में चीस के कारण भोजराज की नींद रह-रह करके खुल जाती। वे मन ही मन श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण जप रहे थे। 

‘ऊँ ऽऽऽऽऽ न न हटिये, दूर। मैं नहीं बोलूँगी आपसे’- मीरा नींद में बड़बड़ाई- ‘ऊँ हूँ देख्या साँचा सरदारॉ ने, आपकी श्रुतियाँ गई कवे?निगे है के नी?’ वह खिलखिला पड़ी- ‘चोरजारपतये नम:’ हूँ यह तो है, तुम क्या नहीं हो, कहो तो?’
मीरा उठकर बैठ गई पर जाग्रत अवस्था में हो ऐसा नहीं लगा।भोजराज भी अपने पलंग पर बैठे-बैठे उन्हें देखते रहे।
‘सभी कुछ आप ही तो हैं फिर भी सबसे न्यारे।रसो वै स: ।आपका यह न्यारा रस-रूप ही भाता है मुझे तो।आप तनिक भी मेरी आँखों से ओट हों जायें, सहा नहीं जाता.... नहीं नहीं पहले मैं.... अब तो बँध गये है न। न न यह न फरमाईये। मैं आपके सम्मुख हूँ ही क्या?’
भोजराज सो गये उन्हें झपकी आ गई।

‘श्यामसुन्दर ! मेरे नाथ ! मेरे प्राण ! आप कहाँ हैं ? इस दासी को छोड़ कर कहाँ चले गये ?’
भोजराज की नींद खुल गई। उन्होंने देखा कि पुकारती हुई मीरा झरोखे की ओर दौड़ी। भोजराज ने सोचा कि झरोखे से टकराकर ये गिर जायेंगी - तो उन्होंने इस आशंका से चौकी पर पड़ी गद्दी उठाकर आड़ी कर दी। पर मीरा उछलकर उस झरोखे पर चढ़ गई। झरोखे पर भारी पर्दा बँधा था अत: भोजराज को कोई आशंका न हुई।मीरा ने हाथ के एक ही झटके से झरोखे से पर्दा हटाया और बाँहें फैलाये हुये - "मेरे प्रभु ! मेरे सर्वस्व ! कहती हुई एक पाँव झरोखे के बाहर बढ़ा दिया। पलक झपकते ही उछलकर भोजराज झरोखे में चढ़े और सबल भुजाओं में भर कर मीरा को भीतर कक्ष में खींच लिया। एक क्षण केवल एक क्षण का भी विलम्ब हो जाता तो मीरा की देह नीचे चट्टानों पर गिरकर बिखर जाती। उसकी अदेह को उठाये हुये ही वे नीचे उतरे।फूलों के भार तरह ममता भरे मन से उन्हें उनके पलंग पर रख कर, दोनों हाथ पाटी पर टिकाये टिकाये नीचे झुककर वे उस अश्रुसिक्त चन्द्रमुख को अथाह नेह से एकटक देखते रहे।
तभी - ‘ओह म्हाँरा नाथ ! था बिना कियाँ जीवणी आवे?’ (ओह मेरे नाथ, तुम्हारे बिना मैं कैसे जीवित रहूँ )?’ मीरा के मुख से ये अस्फुट शब्द सुनकर भोजराज मानों चौंक उठे, जैसे नींद से वे जागे हों ..... यह ..... यह क्या किया मैंने ? क्या किया ? मैं अपने वचन का निर्वाह नहीं कर पाया। मेरा वचन टूट गया।

पश्चाताप से दग्ध भोजराज.......

वचन टूटने के पछतावे से भोजराज का मन तड़प उठा। प्रातःकाल सबने सुना कि महाराजकुमार को पुनः ज्वर चढ़ आया है। बाँह का सिया हुआ घाव भी उधड़ गया। फिर से दवा-लेप होने लगा, किन्तु रोग दिन-दिन बढ़ता ही गया। यों तो सभी उनकी सेवा में एक पैर पर खड़े रहते थे, किन्तु मीरा ने रात-दिन एक कर दिया। उनकी भक्ति ने मानों पंख समेट लिए हो। पूजा सिमट गई और आवेश दब गया। भोजराज बार-बार कहते, ‘आप आरोग लें। अभी तक पौढ़ना नहीं हुआ? मैं अब ठीक हूँ, आप पौढ़िये।मेरी सौगंध आपको, पौढ़ जाइये’।’अभी पीड़ा नहीं है। आप चिन्ता न करें।’
मीरा को नींद आ जाती तो भोजराज दाँतों से होंठ दबाकर अपनी कराहों को भीतर ढ़केल देते।
‘आज तो वसंत पंचमी है। ठाकुर जी को फाग नहीं खेलायीं? क्यों भला? पधारो, उन्हें चढ़ाकर गुलाल का प्रसाद मुझे भी दीजिये।’
एक दो दिनों के बाद उन्होंने मीरा से कहा- ‘आज सत्संग क्यों रोक दिया? यह तो बहुत बुरा हुआ। आप पधारिये, मैं तो ठीक हो गया हूँ अब।’ - वे कहते।
क्रमशः

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