mc 68

मीरा चरित 
भाग- 68

विक्रमादित्य का आक्रोश......

राणा विक्रमादित्य ने एक दिन बड़ी बहन उदयकुँवर बाईसा को बुला कहा- ‘जीजा ! भाभी म्हाँरा को अर्ज कर दें कि नाचना-गाना हो तो महलों में ही करने की कृपा करें। वहाँ मन्दिर में चौड़े चौगान, मौड़ौं की भीड़ में अपनी कला न दिखायें। यह रीत इनके पीहर में होगी, कि बहू बेटियाँ बाबाओं के बीच घाघरे फहराती हुई नाचतीं हों, हम सिसौदियों के यहाँ नहीं है।मैं कल उधर से निकला तो देखा आराम से नाच और गा रहीं हैं मानों बरजने वाले सभी मर गये।अब किसका भय है? मेरे तो एड़ी की झाल चोटी तक फूट गई।आज सह गया हूँ किंतु फिर कभी देखा तो मुझ सा बुरा न होगा।यह बात अच्छी तरह समझा कर कह दीजिएगा।’
उदयकुँवर बाईसा ने मीरा के पास आकर अपनी ओर से नमक मिर्च मिला कर सब बात कह दीं- ‘पहले तो अन्नदाता दाजीराज और बावजी हुकुम भारी पेट के थे, सो कुछ नहीं फरमाते थे भाभी म्हाँरा।, आज श्री जी बहुत रूष्ट थे।आप मन्दिर न पधारा करें।आपका फर्ज है कि इन्हे प्रसन्न रखें’
इसका उत्तर मीरा ने तानपुरा उठाकर गाकर दिया ....

सीसोद्यो रूठ्यो तो म्हांरो कांई कर लेसी।
म्हे तो गुण गोविन्द का गास्यां हो माई॥
राणोजी रूठ्यो वांरो देस रखासी,हरि रूठ्या किठे जास्यां हो माई॥
लोक लाजकी काण न मानां,निरभै निसाण घुरास्यां हो माई॥
राम नामकी झाझ चलास्यां,भौ-सागर तर जास्यां हो माई॥
मीरा सरण सांवल गिरधर की, चरण कंवल लपटास्यां हो माई॥

‘काँई करती सो निंगे पड़ जाती हो मेतड़णी जीसा।ये बावजी हुकम नहीं हैं जो विष को भीतर ही भीतर पीकर सूख गये। एक दिन भी तो उन्हें सुख से नहीं रहने दिया।मर कर ही छूट पाया वे।जिस दिन से आपने इस घर में पाँव रखा है सदा विष के बीज ही बोती रहीं हैं।किसी को सुख की साँस नहीं लेने दी।दस बारह वर्ष में सबको ऊपर पहुँचा दिया।दिन रात हमारे घराने की लाज के झंडे फहराती रहतीं हैं। अरे, कहा होता न अपने माँ-बाप को कि किसी बाबा को ब्याह देते। मेरे भीम और अर्जुन जैसे वीर भाई तो निःश्वास छोड़-छोड़ कर न मरते।’-  उदयकुँवर बाईसा कोहनी तक हाथ जोड़ कर बोली - ‘अब तो देखने को बस, ये दो भाई रह गये हैं। आपके हाथ जोडूँ लक्ष्मी।इन्हें दु:खी न करो, अपने ताँगड़े तम्बूरे लेकर घर में बैठो, हमें मत राँधो।’
मीरा ने फिर तानपुरे पर उँगली फेरी...

बरजी मैं काहू की नाहिं रहूँ।
सुण री सखी तुम चेतन होय के मन की बात कहूँ॥
साधु  संगति कर  हरि सुख  दलेऊँ जग सूँ दूर रहूँ।
तन मन  मेरो सब  ही जावौ  भल मेरो  सीस लहू॥
मन मेरो  लागो सुमिरन  सेती सब  का बोल  सहूँ।
मीरा के  प्रभु हरि  अविनासी सतगुरू  चरण गहूँ॥

तुनक करके उदयकुँवर बाईसा चली गईं।राणाजी ने बहिन को समझाया - ‘गिरधर गोपाल की मूर्ति ही क्यों न चुरा ली जाये। सब अनर्थों की जड़ यही बला तो है।’
दूसरे दिन सचमुच ही मीरा ने देखा कि ठाकुर जी का सिहांसन खाली पड़ा है तो उसका कलेजा बैठ गया।’टारी री दौड़ पीपल ताईं’ (गिलहरी की दौड़ पीपल तक)।उसने तानपुरा उठाया और गदगद कण्ठ से वाणी फूट पड़ी .....

म्हाँरी सुध ज्यूँ जाणो त्यूँ लीजो।
पल  पल  ऊभी  पंथ   निहारूँ  दरसन   म्हाँने  दीजो।
मैं तो  हूँ  बहु  औगुणवाली  औगुण  सब  हर  लीजो॥
मैं तो दासी चरणकँवल की मिल बिछड़न मत कीजो।
मीरा के  प्रभु गिरधर नागर  हरि  चरणाँ  चित  दीजो॥

झर-झर आँसूओं से काँचली भीग गई।दासियाँ इधर-उधर खड़ी आँसू ढारती हुई हाथ मल रही थीं। मीरा की उँगली इकतारे पर फिर रही है-

विरहणी बावरी भई।
सूने भवन ठाड़ी होय के टेरत आह दयी।
दिन नहीं भूख रैन नहीं निंदरा भोजन भावन गई।
लेकर अँचरा असुँवा पूछे उघरी जात गई।
मीरा कहे मनमोहन प्यारे जाँता कुछ न कही।

आँसुओं की बाढ़ से आँचल भीग गया, तभी मिथुला ने उतावले स्वर में कहा - ‘बाईसा हुकम, बाईसा हुकम’

मीरा की आकुल दृष्टि मिथुला की ओर उठी।उसने सिंहासन की ओर संकेत किया। उस ओर देखते ही हर्ष के मारे मीरा ने सिंहासन से उठाकर मूर्ति को छाती से लगा लिया। अब की बार अपनी आँखों की वर्षा से उन्हें स्नान कराती हुई कह रहीं थीं- ‘मेरे नाथ ! मेरे स्वामी ! मुझ दुखिया के एकमात्र आधार ! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये थे आप?’  रूँधे कण्ठ से उलाहने छूट रहे थे-

मैं तो थाँरे भजन भरोसे अविनासी।
तीरथ बरत तो कुछ नहीं कीणो, बन फिरे है उदासी॥
जंतर मंतर कुछ नहीं जाणूँ, वेद पढ़ी  नहीं कासी॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,भई चरण  की दासी॥

मिथुला की आध्यात्मिक जिज्ञासाएँ....

‘ये भागवत पुराण सब सच्चे हैं बाईसा हुकम?’- एक बार मिथुला ने पूछा। ‘क्यों, तुझे झूठे लगते हैं?’- मीरा ने हँसकर कहा। 
‘इनमें लिखी बातें अनहोनी सी लगती हैं’- उसने कहा- ‘राजा रूक्मांग के दस हजार रानियाँ थीं।रावण के दस माथे थे।उँगली की कोर पर प्रभु ने पहाड़ उठा लिया।साँप के सौ सिर थे और उन सिरों पर प्रभु नाचे।भगवान के सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं और उनसे दस दस बेटे और एक एक बेटी उत्पन्न हुई।ये इतने मनुष्य रहते कहाँ भला? धरती ओछी नही पड़ गई?’
‘कालचक्र के साथ संसार, इसके प्राणी इतनी शक्तियाँ-रूप आदि सब कुछ बदलते रहते हैं। आज हम जो कुछ देख रहे हैं, सम्भवतः पाँच सौ वर्षों के पश्चात लोग इसे झूठ या अनहोनी कहने लग जायें।द्वापर को गये हुये तो पाँच हजार वर्ष बीत गये हैं।निरंतर परिवर्तित होते हुये संसार में एक सार कुछ भी नहीं है।जो कुछ शास्त्रों में लिखा है वह दो प्रकार के मनुष्यों के लिए है।एक हैं वे जो ज्ञानी हैं, वे इन कथानकों में छिपे अर्थों को अपनी बुद्धि क्षमता से ढूँढ निकालते हैं।दूसरे वो हैं जो निपट भोले और अज्ञानी हैं।वे इसमें लिखे हुये को सत्य मानकर श्रद्धा और विश्वास के बल पर उनका चिंतन करके पार हो जाते हैं।तीसरे प्रकार के लोग या तो संशयी हैं अथवा तर्क वितर्क करने वाले हैं।ये सदा रोते ही रहते हैं।रही धरती के ओछे पड़ने की बात? तो बेड़ीं (पागल) काल की ही भाँति देश भी सापेक्ष है।एक बात गाँठ बाँध ले मिथुला , सर्वोच्च शक्ति जिसे हम जो चाहे नाम दें, उसकी इच्छा ही सर्वोपरि है।
क्रमशः

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