mc53

मीरा चरित
भाग- 53

अब तो कभी कभार ही वहाँ महलों में पधारते हैं।बाई हुकुम कुछ खाने को दें भी तो फरमाते हैं कि भूख नहीं है बाई हुकुम।मैं उनसे पूछती हूँ कि विवाह होते ही भूख भाग गई क्या बावजी हुकुम, तो हँसकर रह जाते हैं।दादासा फरमाती हैं कि नयी ब्याही बहू है, हँसी खुशी रास रंग करें, पर वहाँ तो बिलकुल सूनसान रहता है।बीनणी कभी दोपहर में धोक देने आती है।कभी आती है, कभी तो आती ही नहीं।’
उदयकुँवर बाईसा कहती ही चली जा रहीं थीं- ‘ऐसा क्यों करतीं हैं आप भाभी म्हाँरा।कहिये तो? पगेलागवा (पैर छूना) में कितना जोर आ जाता है कि आप नहीं पधारतीं, उसके बदले में बड़े बूढ़ों का आशिर्वाद ही तो मिलता है।कोई गाली तो नहीं देता।आप इतनी पढ़ी लिखी समझदार होकर भी क्यों गुरू जनों को नाराज़ होने का अवसर देतीं हैं।’

‘आपकी बात सर्व साँची है बाईसा’- मीरा ने गम्भीर होकर कहा- ‘किंतु मैं क्या करूँ? कभी कभी तो मुझे चेत ही नहीं रहता, इसी से वहाँ हाजिर होने में विलम्ब हो जाता है।मुझे जैसे सुहाते हैं वैसे राग रंग तो मनाती ही हूँ।मैनें आपके दादोसा को पहले ही अर्ज कर दी है कि आप दूसरा विवाह कर लीजिए।आपसे भी अर्ज कर रहीं हूँ कि अन्नदाता हुकुम से निवेदन करके उनका और विवाह करवा दीजिए।मेरा पथ न्यारा है।प्रयत्न करके भी मैं दुनिया के व्यवहार को पूरी तरह नहीं निभा सकती।वैसा करने की मुझे आवश्यकता भी नहीं लगती।अपनी समझ से मैं किसी को अप्रसन्न करना नहीं चाहती, पर जब बात अपने वश से बाहर हो जाये तब क्या हो? बुजीसा हुकुम ( सासजी) सच फरमातीं हैं किंतु मुझे गीत गाली आते ही नहीं और भजन तो भगवान को सुनाने के लिए हैं।मनुष्य के लिए तो नहीं गाती मैं।मेरा नाचना गाना, खाना पीना, सोना जागना, हँसना बोलना अधिक क्या अर्ज करूँ, तन और मन की प्रत्येक चेष्टा ठाकुर जी के लिए है।मेरे पति गिरधर गोपाल हैं।मेरा चूड़ा अमर है।यह किसी के आशिर्वाद का मोहताज नहीं है।इस पर भी मैं अपनी ओर से प्रयत्न यही करती हूँ कि मेरे कारण किसी को कष्ट न हो।मेरी देह की शक्ति की सीमा है बाईसा, इसीलिए सबकी सेवा में मेरा यही निवेदन है कि भगवान की सेवा पूजा और भोग राग से समय बचा तो उसे आपकी सेवा में लगा दूँगी।यदि न बचे तो आप सब कृपापूर्वक मुझे क्षमा कर दीजिए।’

यह सब सुनकर उदयकुँवर बाईसा आश्चर्य से कुछ देर उनका मुख देखतीं रहीं।फिर झुँझलाकर बोली- ‘दूसरा विवाह करा दो, यह कहना बहुत सरल है भाभी म्हाँरा, पर जब सौत की सैल (भाला) छाती में चुभ जायगी न, तब मालुम होगा कि सौत क्या होती है? जब आप कहती हैं कि आपके पति ठाकुर जी बैं तो फिर बावजी हुकुम आपके क्या लगते हैं? क्यों भाँवर लीं उनके साथ? क्यों आईं उनके साथ आप यहाँ? ब्याह करके ठाकुरजी के साथ ही क्यों न चली गईं आप? यहाँ चित्तौड़ क्यों चली आईं? क्या उस पीतल की मूरत से भी मेरे भाई गये बीते हैं? क्या कमी है उनमें? कितने बड़े बड़े राजवंशों से सगाई का प्रस्ताव आया था किंतु दादीराज ( पिताजी) को भी न जाने क्या सूझी कि भुवासा की बातों में आकर घोड़ो की रातिब खाने वाले के यहाँ जाकर बेटे को डुबोया।’

‘अहा, कैसे बताऊँ मैं इन्हें, जो अपने भाई के रूप की प्रशंसा में बावली हो रहीं हैं, कि श्यामसुन्दर के रूप सागर की एक बूँद से यह सारा संसार त्रिलोक सुंदरता पाता है।उस सागर को देखे बिना उसकी कल्पना कैसे हो सकती है और यदि कोई देख ले तो कहेगा कैसे? वे अक्षर, वे शब्द कहाँ से पाये कोई जिससे उस रूप का वर्णन हो।असीम को सीमा में बँधे अक्षरों से कैसे बाँधा जाये?’ 
मीरा को अचेतन होती देख उदयकुँवर बाईसा घबरा गईं।उन्होंने समीप सरक कर भाभी का सिर गोद में ले लिया- ‘क्या हुआ भाभी म्हाँरा? क्या हो गया आपको?
मंगला बाहर से दौड़ी आई- ‘ चिंता न करें हुकम, जब ठाकुरजी इनकी आँखों के सामने पधारते हैं तब बाईसा ऐसे ही अचेत हो जातीं हैं।’ यह कहकर व्यजन डुलाती हुई वह कीर्तन करने लगी-
मोहन मुकुंद मुरारे
कृष्ण वासुदेव हरे।

उदयकुँवर बाईसा कुछ क्षण देखती रहीं फिर अपनी दासियों के साथ चली गईं।मीरा जब सचेत हुई तब अपने गिरधारी के समीप जा गाने लगी-

गोविंदा गिरधरी आबो थाँने जोग।
आपरा घाल्या टोना दे छे लोग।
सावण कह गया जी, कर गया कौल अनेक।
गिणताँ गिणताँ घिस गईं म्हारी आँगुलियों की रेख।
आपरा घाल्या टोना दे छे लोग।
हाथ चँटियो पग पाँवड़ी जी साँवरा घूँघर वाला केश।
याँ गलियाँ ह्वे निसर्या जी कर नटवा का भेष।
आपरा घाल्या टोना दे छे लोग।
बिरह बिखा पी केऊँ सजनी व्याप्त रह्यो तन रोग।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ये पुरबला संजोग।
आपरा घाल्या टोना दे छे लोग।

जीवनाराध्य के मनोहारी दर्शन.....

तीज आयी।मीरा की प्रतीक्षा सफल हुई।शाम होते ही महलों में त्यौहार की हलचल आरम्भ हो गई थी।एक बड़े चौक में लोहे के खम्बों पर लोहे की बल्ली लगाकर सूत के मोटे रस्से से बाँधा हिंडोला।प्रथम राणासाँगा चढ़े झूले पर, उनके साथ उनकी प्रथम पत्नी सोलंकिणी जी।एक पाँव से उन्होंने जो झूला चढ़ाया, देखकर आश्चर्य होता था।एक ओर पुरूषों का झुण्ड खड़ा था दूसरी ओर स्त्रियाँ।उनसे कुछ हटकर दासियों का झुण्ड और दमामणियाँ ( गानेवाली)।जैसे ही झूला धीमा हुआ, सारंददेव ने सोटा उठाया साँगा को मारने के लिए तो वे चिल्ला पड़े- ‘अरे काकाजी मुझे तो अभी कई बार झूले पर  चढ़ना है।ऐसे मारेगें तो पीठ सूज जायगी।’
‘आज तो अन्नदाता जरा सी गल्ती पर पीठ पाँव सुजाये बिना मानेगें नहीं हम।’ सारंगदेव के इस उत्तर पर सभी हँस पड़े।
‘नाम लीजीये सरकार’- सारंगदेव ने सोटा पीठ पर जमाते हुये कहा।
‘थोड़ा धीरे धीरे मारिये काकोसा। लीजिए मैं नाम ले रहा हूँ, सुनिये- जग दुरलभ थाँ जिस्या काका सारंगदेव।

चारों ओर उठती हँसी के साथ दो चार सोटे और पड़े- ‘मेरा नहीं बीनणी हुकुम का नाम लीजिए अन्यथा.....’
‘ अरे नहीं काकोसा मैं मर जाऊँगा इस मार से। जरा इस झूले को ठहरने तो दीजिए।चढ़ते झूले पर तो चिल्लाकर बोले बिना आपको सुनाई नहीं देगा। आप ही कहिए चिल्ला कर तो आपका ही नाम लिया जा सकता है न।’
क्रमशः

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