mc51

मीरा चरित 
भाग- 51

मीरा के हाथ से वस्त्र, सुई गिर पड़ी, हाथ गोद में गिर पड़े और सिर से साड़ी सरक गई।पाटल पाँखुरी से होठ खुल गये और उनमें से श्वेत दंत पंक्ति झाँक उठी।भोजराज ने गौर से देखा कहीं भी दिखावा नहीं था।भोजराज को मन हुआ उठकर थोड़ा जल पिला दें पर अपनी विवशता स्मरण कर वैसे ही बैठे रहे। कुछ क्षणों के बाद देह में चेतना के लक्षण दिखाई दिए।अर्धनिमिलित दृगों के पलक पटल उघड़े।उनमें पहचान की क्षमता आई।उन्होंने आँचल से मुँह पोछा।भोजराज को देखकर दृष्टि झुका ली।
‘आप कुछ फरमा रहीं थीं’- भोजराज ने याद दिलाया।
‘हुकुम क्या अर्ज कर रही थी?’ वे मुस्कराई- ‘मैं तो पागल हूँ, आपको कोई अशोभनीय बात तो अर्ज नहीं कर दी।"
‘नहीं हुकुम आप ठाकुर जी से विवाह की बात बता रही थी कि कक्ष में पधारने पर आपने प्रणाम किया और.......।"
 ‘हूँ’-मीरा खोये स्वर में बोलीं, उनकी दृष्टि जैसे दूर जा लगी- ‘रात को नींद खुल गई’- उनका कंठ फिर गद्गद् हुआ पर उन्होंने संवरण कर लिया- ‘लगा कोई मेरे साथ सोया है।चौंककर आँखे खोली तो देखा कि मेरे सिरहाने एक भुजा लगी है, कमल दृगों की बड़ी बड़ी पलकें मुँदी हुई, घुँघराले केश मुख के आसपास छितराये हुये,कुछ अलकें ललाट पर झुक आईं थीं।होठों पर मुस्कान, एक बाँह मेरी पीठ पर, वह सुगन्धित श्वास, वह देह गन्ध, इतना आनन्द कैसे संभाल पाती मैं।चेतना छोड़ गई। प्रातःकाल सबने देखा गँठजोड़ा, हथलेवे का चिन्ह, गहने, वस्त्र, चूड़ा। चित्तौड़ से आया चूड़ा तो मैंने पहना ही नहीं - गहने, वस्त्र सब ज्यों के त्यों रखे हैं।’
‘मैं यहाँ से आये पड़ले को देख सकता हूँ ?" भोजराज बोले।
‘अभी मंगवाती हूँ।’- मीरा ने मंगला और मिथुला को पुकारा।दोनों दासियाँ उपस्थित हुईं तो फरमाया- ‘अठे शूँ आयो पड़ला कणी पेटी में है? वा उँचा तो ला मंगला। 
‘मिथुला, थूँ जो द्वारिका शूँ आयो वणी पड़ला री पेटी उँचा ला।’

दोंनों पेटियाँ आयीं तो उन्होंने दासियों को ही हुकुम दिया- ‘सामग्री खोलकर अलग-अलग रख दो।’
आश्चर्य से भोजराज ने देखा। सब कुछ एक सा- फिर भी चित्तौड़ के महाराणा का सारा वैभव द्वारिका से आये पड़ले के समक्ष तुच्छ था। श्रद्धा पूर्वक भोजराज ने सबको छुआ। सब यथा स्थान पर रख दासियाँ चली गई तो भोजराज ने उठकर मीरा के चरणों में माथा धर दिया। 
‘अरे यह, यह क्या कर रहे हैं आप ?" मीरा ने चौंककर कहा और पाँव छुड़ाने का प्रयत्न किया। 
‘अब आप ही मेरी गुरु हैं, मुझ मतिहीन को पथ सुझाकर ठौर-ठिकाने पहुँचा देने की कृपा हो।" गदगद कण्ठ उच्चारण को ठीक से ध्वनि नहीं पा रहा था। उनके नेत्रों से कई अश्रुओं की बूँदे मीरा के अमल धवल चरणों का अभिषेक कर उठीं।

मीरा का हाथ सहज ही भोजराज के माथे पर चला गया- ‘उठकर विराजिये। प्रभु की अपार सामर्थ्य है। शरणागत की लाज उन्हें ही है। कातरता भला आपको शोभा देती है ? कृपा करके उठिये।’
भोजराज ने अपने को सँभाला। वे वापस गद्दी पर जा विराजे और साफे से अपने आँसू पौंछने लगे। मीरा ने उठकर उन्हें जल पिलाया।
‘आप मुझे कोई सरल उपाय बतायें। पूजा-पाठ, नाचना-गाना, मँजीरे या तानपुरा बजाना मेरे बस का नहीं है।’- भोजराज ने कहा।
‘यह सब आपके लिए आवश्यक भी नहीं है।’  मीरा हँस पड़ी- ‘बस आप जो भी करें, प्रभु के लिए करें और उनके हुकम से करें, जैसे सेवक स्वामी की आज्ञा से अथवा उनका रूख देखकर कार्य करता है। जो भी देखें, उसमें प्रभु के हाथ की कारीगरी देखें। कुछ समय के अभ्यास से सारा ही कार्य उनकी पूजा हो जायेगी।’
 ‘युद्ध भूमि में शत्रु संहार, आखेट में जानवरों का वध, न्यायासन पर बैठकर अपराधियों को दण्ड देना भी क्या उन्हीं के लिए है ?’
‘हाँ हुकम’- मीरा ने गम्भीरता से कहा- ‘नाटक में पात्र मरने और मारने का अभिनय नहीं करते क्या? नाटक में तो मरने और मारने वाले दोनों ही जानते हैं कि तलवारें लकड़ी की हैं।न मैं मरूँगा और न वह मुझे मारेगा’
‘किंतु मैं तो आध मन की भारी सांग लेकर लोगों के मस्तक प्रात: से साँयकाल तक ऐसे काटता रहता हूँ मानों किसान खेती की फसल काटता है।उनके मुंड कटे धड़ से रक्त उबल उबल कर धरती को सींचता रहता है।सोचता हूँ कि एक दिन ऐसे ही इस देह का रक्त भी मेरी मातृभूमि को सिक्त कर देगा।’
‘उन्हीं पात्रों की भातिं आप भी समझ लीजिए कि न मैं मारता हूँ न वे मरते हैं, केवल मैं उन्हें उनके गंदे वस्त्र से प्रभु की आज्ञा से उन्हें मुक्ति दिला रहा हूँ। यह देह वस्त्र ही तो है।जब इस देह से बहुत सी देहों को भय उपस्थित हो जाता है तो उसे बदलना प्रभु आवश्यक मानते हैं और किसी को या आपको निमित्त बनाकर उस देह रूपी वस्त्र को फाड़कर नष्ट कर देते हैं।तब वह आत्मा नवीन देह धारण करके शुभ कर्म के लिए प्रस्तुत हो जाती है।इस प्रकार देह ही देह को नष्ट व उत्पन्न करती है।आत्मा तो विशुद्ध परमात्मा का अंश है।इसमें राग द्वेष क्रोध मोह कैसे आ सकते हैं।यह सब त्रिगुण के खेल हैं।जगत तो प्रभु का रंगमंच है। जो सर्वत्र हैउसमें अवकाश कैसे और कहाँ से आयेगा।दृश्य भी वही है और द्रष्टा भी वही है। अपने को कर्ता मानकर व्यर्थ बोझ नहीं उठायें। कर्त्ता बनने पर तो कर्मफल भी भुगतना पड़ता है, तब क्यों न दानकिया( मजदूर) की तरह जो वह चाहे वही किया जाये। मजदूरी तो कर्ता बनने पर भी उतनी ही मिलती है, जितनी मजदूर बनने पर, साथ ही स्वामी की प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। अवश्य ही यह ध्यान रखने की बात है कि जो पात्रता आपको प्रदान की गयी है, उसके अनुसार आपके अभिनय में कमी न आने पाये।’

दासी ने कुँवर रतनसिंह के पधारने की सूचना दी।
‘उनसे भीतर पधारने की अर्ज कर’- मीरा ने दासी से कहा।
रतनसिंह ने भीतर प्रवेश कर भाई भाभी को करबद्ध सिर झुकाकर अभिवादन किया।उन्हें देख मीरा खड़ी हो गई।उनके अभिवादन के उत्तर में हाथ जोड़कर मुस्करा कर कहा- ‘पधारो लालजी सा। वारणा लूँ ( मैं बलिहारी) कैसे पथ भूल पड़े आज?’
क्रमशः

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