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मीरा चरित 
भाग- 50

बिना श्रद्धा और विश्वास के कुछ हाथ नहीं लगता, क्योंकि कार्य अपने कारण को नहीं जान सकता।बेटा कैसे जान सकता है कि उसका पिता कौन है? पुत्र को तो माँ के कथन पर ही विश्वास करना पड़ता है।’ मीरा ने भोजराज की ओर देखा।
‘ आप फरमाईये मैं समझ रहा हूँ’ उन्होंने कहा।
‘पर निर्गुण निराकार आकाश की भाँति है, प्रकाश की भाँति है।वह न प्रसन्न होता है न अप्रसन्न।वह सदा एकरस है।उससे जगत में प्रकाश है चेतना है।उसे अनुभव किया जा सकता हैं पर देखा जाना अशक्य है जैसे पवन को नहीं देखा जा सकता किंतु अनुभव किया जा सकता है।वही ईश्वर सगुण साकार भी है। यह मात्र प्रेम से बस में होता है, रूष्ट और तुष्ट भी होता है। ह्रदय की पुकार भी सुनता है और दर्शन भी देता है।" - मीरा को एकाएक कहते-कहते रोमांच हुआ।उसकी देह काँप उठी।

यह देख भोजराज थोड़े चकित हुए। उन्होंने कहा, ‘भगवान के बहुत नाम - रूप सुने जाते हैं। नाम - रूपों के इस जंगल में मनुष्य भटक नहीं जाता ?’
‘भटकने वालों को बहानों की कमी नहीं रहती। भटकाव से बचना हो तो सीधा उपाय है कि जो नाम - रूप स्वयं को अच्छा लगे, उसे पकड़ ले और छोड़े नहीं। दूसरे नाम-रूप में भी मेरे प्रभु हैं यह समझ कर उसका सम्मान करें और उनको मानने वालों की अवहेलना न करें।जैसे सभी नदियाँ समुद्र की ओर बहती हैं और उसी में समातीं हैं वैसे ही सभी धर्मग्रंथ, सभी सम्प्रदाय और सभी मत उस एक ईश्वर तक ही पहुँचने का पथ सुझाते हैं।उनकी विश्रांति उसी में होती है। मन में अगर दृढ़ निश्चय हो तो उपासना फल देती है।’
‘भगवान उपासना से प्रसन्न होते हैं’- भोजराज ने पूछा।
‘नहीं, उपासना मन की शुद्धि का साधन है। संसार में जितने भी नियम हैं ; संयम, धर्म, व्रत, दान-सब के सब जन्म जन्मान्तरों से मन पर जमें हुये मैले संस्कारों को धोने के उपाय मात्र हैं। वे धुले और फिर भगवान तो सामने वैसे ही है जैसे आरसी के स्वच्छ होते ही अपना मुख उसमें दिखने लगता है।उन्हें कहीं से आना तो है नहीं जो विलम्ब हो। भगवान न उपासना के वश में हैं और न दान धर्म के। वे तो कृपा-साध्य हैं, प्रेम-साध्य हैं। बस उन्हें अपना समझ कर उनके सम्मुख ह्रदय खोल दें। उनसे कोई अंतर, कोई लुकाव-छिपाव न करें तो उनसे अधिक निकट कोई है ही नहीं और यदि यह नहीं है तो दूरी की कोई सीमा भी नहीं।’
 ‘पर मनुष्य के पास अपनी इन्द्रियों को छोड़ अनुभव का कोई अन्य उपाय नहीं है, फिर जिसे देखा नहीं, जाना नहीं, व्यवहार में बरता नहीं, उससे प्रेम कैसे सम्भव है?’
‘हमारे पास एक इन्द्रिय ऐसी है, जिसके द्वारा भगवान अंतर में साकार होते है। वह इन्द्रिय है कान। बारम्बार उनके रूप-गुणों का वर्णन श्रवण करने से विश्वास होता है और वे हिय में प्रकाशित हो उठते है। प्रतीक की पूजा-भोग-राग करके हम अपने उत्साह को रूप दे सकते है।’
‘बिना देखे प्रतीक (विग्रह) कैसे बनेगा?’
‘जो निराकार है उसका मनचाहा आकार बनाया जा सकता है।जो सर्वत्र है, वह तो उसमें भी है ही।’
‘क्या आपने कभी साक्षात दर्शन किए ?’
           
प्रश्न सुनकर मीरा की आँखें भर आई और गला रूँध गया। घड़ी भर में अपने को संभाल कर बोली - ‘आपसे क्या छिपाऊँ ? यद्यपि यह बातें कहने-सुनने की नहीं होती। मन से तो वह रूप पलक झपकने जितने समय भी ओझल नहीं होता, किन्तु अक्षय तृतीया के प्रभात से पूर्व मुझे स्वप्न आया कि प्रभु मेरे बींद (दूल्हा) बनकर पधारे, देवता, द्वारिका वासी बारात में आये। दोनों ओर चँवर डुलाये जा रहे थे।सिर पर छत्र तना था।उस रूप का कैसे वर्णनकरूँ? जिस अश्व पर वे विराजे थे, वह श्यामकर्ण अश्व पूर्ण श्वेत, पर कान काले, अरूणचूड़ सी उसकी गर्दन थी।ऐसे पाँव धरता था वह मानों भूमि पर अंगार बिछे हों। यद्यपि मैंने इस जीवन में, संसार में आपके राजकरण अश्व के समान शुभलक्षण और सुन्दर अश्व नहीं देखा तथा आपके समान कोई सुन्दर नर नहीं दिखाई दिया पर.......पर....... उस रूप के सम्मुख ......कुछ भी नहीं, कुछ भी तो नहीं।’- मीरा बोलते बोलते रूक गई। उनकी आँखें कृष्ण रूप माधुरी के स्मरण में स्थिर हो गई और देह कँपकँपा उठी मानों अत्यधित शीत से उनके दाँत बजने लगे हों।भोजराज चित्रलिखित से देखते रहे, फिर सम्हँल कर उन्होनें मिथुला को पुकारा।दासी हाजिर हुई तो उन्होंने उसकी स्वामिनी की ओर संकेत किया।उसने मुँह धुलनाया, व्यजन से पवन डुलाया और जल पात्र मुख से लगाया।मीरा को चेतना प्राप्त हुई तो मिथुला बाहर चली गई।
‘फिर ?’ भोजराज ने प्रश्न किया।
‘मैं क्या कह रही थी?’ मीरा ने किंचित लजा कर पूछा- ‘स्मरण नहीं रहा’
‘आपने फरमाया कि प्रभु अक्षय तृतीया को बींद बनकर पधारे थे.......।" 
‘हुकम ! मेरा और प्रभु का हस्त-मिलाप हुआ। उनके पीताम्बर से मेरी साड़ी की गाँठ बाँधी गयी। फिर भाँवर हुई।उनके वे अरूण मृदुल चारू चरण, उन्हीं की ओर दृष्टि लगाये मैं उनका अनुसरण कर रही थी। हमें महलों में पहुँचाया गया। यह....... यह ....हीरेकहार ...।’उनका एक हाथ उठकर गले में पड़ेहीरे के हार को टटोलने लगा- ‘ उन्होनें गले में पहनाया और मेरा घूँघट ऊपर उठा दिया।’
‘यह....... यह ... वह नहीं है, जो मैंने नजर किया था ?" भोजराज ने सावधान होकर पुछा।
 ‘वह तो गिरधर गोपाल के गले में है।’ मीरा ने कहा और हार में लटकता चित्र दिखाया - ‘यह, इसमें प्रभु का चित्र है।’
‘मैं देख सकता हूँ इसे ?’  भोजराज चकित हो उठे।
‘अवश्य’- मीरा ने हार खोल कर भोजराज की  फैली हथेली पर रख दिया। भोजराज ने देखकर सिर से लगाया और वापिस लौटा दिया।
‘आगे’- उन्होने पूछा।

‘मैं चरणों में झुकी और प्रभु ने बाँहों में भर लिया मुझे......।’- मीरा की आँखें अधमुँदी हो गईं, होठ फड़फड़ाते रहे पर  वाणी खो गई।
‘गोपाल..... म्हाँरा ..... सर्वस्व ..... प्रभु म्हूँ.... थारी... भवो .... भव .... थाँ ... री .... म्हाँ... रा..... नाथ’ - मीरा की अधमुँदी आँखों की दृष्टि अपार्थिव लगती थी।भय सा लगता था उन आँखों को देखकर।भोजराज ने घर बाहर और रणांगन में भी ऐसी दृष्टि पहले कभी नहीं देखी थी।उनके ढलते आँसू..... लगा जैसे मोती की लड़िया बनकर टूट कर झड़ रही हो।
क्रमशः

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