mc 69

मीरा चरित 
भाग- 69

‘उसकी इच्छा के सामने सारे सिद्धांत और नियम धरे के धरे रह जाते हैं, थोथे हो जातें हैं।अत: केवल उसकी इच्छा के अधीन होकर रहो।’

‘सुना है कि प्रभु के मंगल विधान में जीव का मंगल ही निहित है।उसके अनुसार सबको न्याय ही मिलता है।फिर आप जैसी ज्ञानी और भक्त के साथ इतना अन्याय क्यों? खोटे लोग आराम पाते हैं और भले लोग दु:ख की ज्वाला में झुलसते रहते हैं। लोग कहते हैं धर्म को दीमक लगती है, धर्मात्मा को भगवान तपाते हैं, ऐसा क्यों हुकम? इससे तो भक्ति का उत्साह ठंडा पड़ता है।’- मिथुला हिम्मत जुटाकर थोड़ा स्वामिनी की गद्दी के समीप अपनी गद्दी सरकाती हुई हाथ जोड़ कर बोली, ‘बहुत बरसों से मन की यह उथल पुथल मुझे खा रही है। यदि कृपा हो तो ....’
‘कृपा की इसमें क्या बात है?’- मीरा ने कहा - ‘जो सचमुच जानना चाहता है उसे न बताना जाननेवाले के लिए भी दोष है और जो केवल अपनी बात श्रेष्ठ रखने के लिए तर्क अथवा कुतर्क करे, उसे बताना भी दोष है।’
‘हाँ, उनके विधान में जीव का उसी प्रकार मंगल है, जिस प्रकार माँ के हर व्यवहार में बालक का मंगल निहित है। वह बालक को खिलाती, पिलाती, सुलाती अथवा मारती है तो उसके भले के लिए ही, उसी प्रकार ईश्वर भी जीव का मंगल ही करता है।’
‘पर हुकम ! आपने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, फिर क्यों दु:ख उठाने पड़े?’
‘बता तो, चौमासे में बोयी फसल कब काटी जाती है?’- मीरा ने हँसकर पूछा। ‘आश्विन-कार्तिक में’
‘और कार्तिक मंगसिर में बोयी हुई को?’
‘चैत्र-विशाख में’
‘तो फिर कर्मों की खेती तुरन्त कैसे पक जायेगी? वह भी इस जन्म का कर्मफल अगले जन्म में मिलेगा। कोई कोई प्रबल कर्म अवश्य तुरन्त फलदायी होते है।’
‘किन्तु हुकम ! अगले जन्म तक तो किसी को याद ही नहीं रहता। इसी कारण अपने दु:ख के लिए मनुष्य दूसरे लोगों को अथवा ईश्वर को दोषी ठहराने लगता है। हाथों-हाथ कर्मफल मिल जाये तो शिक्षा भी मिले और मन-मुटाव भी कम हो जाये।’
‘यह भूल न होती मिथुला ! तो अपने कर्मों का बोझ उठाये मनुष्य कैसे जी पाता? यदि हाथों-हाथ कर्मफल मिल जाये तो उसे प्रायश्चित करने का अवसर कब मिलेगा? भगवान के विधान में सजा नहीं सुधार है, मिथुला ! जैसे बालक गन्दे कीचड़ में गिरकर पूरा लथपथ होकर घर आये, माँ के मन में अथाह वात्सल्य होते हुये भी जब तक माँ उसे नहलाकर स्वच्छ नहीं कर लेती, तब तक गोद में नहीं लेती। अब नासमझ बालक यह न समझ पाये और रोये - चिल्लाये, माँ को भला बुरा कहे तो क्या माँ बुरा मानती है? वह तो बालक को स्वच्छ करके ही मानती है।हम सब उस बालक जैसे ही हैं।तू सुख की बात करती है मिथुला, मुझे तो अपनी इस तेईस वर्ष की आयु में कहीं भी, संसार के किसी स्थान में सुख दिखाई नहीं दिया।सुख और आनंद जुड़वाँ भाई हैं, इनकी मुखाकृति तो एक सी है, पर स्वभाव एक दूसरे के विपरीत हैं।मानव ढूँढ़ता तो आनंद को, किंतु मुख साम्य के कारण सुख को ही आनंद जानकर अपना लेता है।इस प्रकार आनंद की खोज उसे जन्म जन्मांतर तक भटकाये फिरती है।’

‘इनके स्वभाव में क्या विपरीतता है?’
‘आनंद सदा एक सा रहता है।इसमें घटना बढ़ना नहीं है, किंतु सुख मिलने के साथ ही घटना आरम्भ हो जाता है।इस प्रकार मनुष्य की खोज पूरी नहीं होती।सारी आयु वह सुखी होने के लिए हड़काये कुत्ते की भाँति दौड़ता रहता है।जैसे कुँवारा व्यक्ति सोचता है कि विवाहित व्यक्ति बड़े सुखी हैं।विवाह के पश्चात वह सोचता है बच्चे होने पर सुख मिलेगा।बच्चे होने पर उनको बड़ा देखने का, फिर उनका विवाह, फिर पोते पोती।आह, अंत में वही शून्य हो जाता है पर सुखी होने का सपना पूरा नहीं हो पाता।एक बात और सुन, इस सुख का एक मित्र भी है और ये दोनों मित्र एक ही स्वभाव के हैं।उसका नाम है दु:ख।दु:ख भी सुख के समान मिलते ही घटने लग जाता है।अत: यदि सुख आयेगा तो उसका हाथ थामें दु:ख भी चला आयेगा।’
‘आनंद की कोई पहचान है? उसका ठौर ठिकाना कैसे ज्ञात हो कि पाने का प्रयत्न किया जाये।’
‘पहचान तो यही है कि वह इकसार है, ईश्वर का रूप है।ईश्वर स्वयं आनंदस्वरूप है।जैसे सुख के साथ दु:ख आता है, उसी प्रकार आनंद से ईश्वर की प्रतीति होती है।इसे पाने के बाद यह खोज समाप्त हो जाती है।अब रही ठौर ठिकाने की बात, वह गुरू और संतो की कृपा से प्राप्त होता है।उसके लिए सत्संग आवश्यक है।संत जो कहे उसे सुनना, गुनना और करना आवश्यक हैं’
‘दु:ख का मूल सुख ही है?’

‘नहीं और हाँ भी, दु:ख और सुख दोनों का मूल इच्छा है और इच्छा का मूल मोह है।जैसे ही एक इच्छा पूरी हुई कि उसी की कोख से दस इच्छाएँ मुख निकाल कर झाँकने लगतीं हैं।सबसे बड़ी बात यह है कि मनुष्य दूसरे को सुखी समझता है और स्वयं को दु:खी।वह सोचता है कि उसके पास जो कुछ है, वह मेरे पास नहीं है।वह उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए दौड़ पड़ता है।नि:संशय सुख यहाँ किसी को प्राप्त है ही नहीं।हमें जो दिखाई देता है वह सच नहीं है।हर मनुष्य अपने से आगे वाले को  देखता है और वहाँ पहँचने के लिए दौड़ता है और वह उससे आगे वाले को।इक प्रकार यह अंधी दौड़ कभी समाप्त नहीं होती।इसका नाम तृष्णा है।यह कभी मरती नहीं।अब हम आनंद की बात करें।जैसे हमें दूसरे सुखी दिखाई देते हैं, पर वे सुखी है नहीं, उसी प्रकार आनंद प्राप्त करने वाले दु:खी दिखाई पड़ते हैं पर वे दु:खी नहीं है।हम सब जानते हैं कि प्रह्लाद को उसके पिता ने पहाड़ से गिराया, समुद्र में डुबाया।तनिक सोच तो पहाड़ के नीचे से उठकर या समुद्र से निकल कर वे सीधे साधे घर क्यों चले आते थे? कोई दूसरी दिशा उन्हें दिखाई नहीं देती थी? क्यों वे दु:ख पाने के लिए रह रह करके पिता की दृष्टि के सामने चले आते थे।इसलिए कि उनके लिए घर और वन समान था।उनके हृदय में आनंद जैसी निधि समाई हुई थी।उन्हें दु:ख क्या होता है, यह लगता ही न था।
क्रमशः

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