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*जय जय श्री हित हरिवंश।।*

*श्रीदास पत्रिका*~~~~
क्रमशः भाग तीन के आगे।

आज के इस भाग में चाचा श्रीहित वृन्दावन दास जी ने अपनी अधमता को व्याखित करते हुए प्रार्थना की है।

*तुमहौ कुशल स्वरूप सदा मंगल जिहि ठाहे।यहां कुशल तब होय कृपा रावरी जु चाहे।।17।।*

*समाचार अब लिखों आप नीके सु जानियो।करुणामय जो नाम सत्य पुनि सत्य मानियो।।18।।*

*दूरि परयो आपुते बहुरि उल्टो पथ लीयो।वरजत वेद पुराण सन्त गुरु कह्यो न कीयो।।19।।*

*बहकयो वन संसार पार अजहू नहि पाऊ। जानत भयो अजान विपति अब काहि सुनाऊ।।20।।*

*स्वामी समरथ सो विनती बुद्धि मेरी अब फैरो।देखत अन्धो भयो कृत्य मेरे तन हैरो।।21।।*

*तुमते बिछुरयो जबहि महा दुख पायो हो हरि। माया ठगिनी ठग्यो बहुत परपचनि करि करि।।22।।*

*व्याख्या ::*आप तो आप है कुशलता से तो होंगे ही और जहां आप हो वहां तो सदा मंगल ही है।परन्तु यहां पर कुशलता तो तभी हो सकती है जब आप यह चाहना करे।।17।।

अब में अपना समाचार लिख रहा हूँ यह आप भली भांति से जानते हो।आप का सत्य में करुणामय है और पुनः यह सब आप सत्य ही मानना।।18।।

आप से बहुत दूर में पड़ा हुआ हूँ क्योंकि मैंने आप से उल्टा रस्ता अपनाया।वेद, पुराण , सन्तो व गुरु जी का वर्णित कहा हुआ नही किया।।19।।

मैं  भटक कर इस संसार के जंगल  में अन्तःकरण से वाद - विवाद को पार नही पाता हूं।जानकर भी अनजान बना हुआ हूं और अब विपत्ति को क्या सुनाऊ।।20।।

मेरे स्वामी आप सर्व रूप से समर्थ हो, मेरी विनती मानते हुए , मेरी बुध्दि को बदल दो।में अपने कर्मो को देख कर अंधा हो रहा हूँ, कृपया कर मेरी ओर देखो।।21।।

जबसे आप से बिछुड़ा हूँ , तभी से मेरे प्रभु महान दुःख पाया हूँ।ठगनी माया ने मुझे बहुत ठगा है संसार के प्रपंच छल-कपट कर कर के।।22।।
(क्रमशः)

*जय जय श्री हित हरिवंश।।*

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