भगवतीय कृपा

जो भगवदीय होते है, केवल उनके कंठ मे ही अमृत होता है। जब वे भगवदीय भगवद् लीला का वर्णन करते है तब वह कथामृत उनके मुख से निकलता है। और जो इस कथामृत को आदर पूर्वक पान करते है केवल वे ही भगवान को प्राप्त करते है।"

इस तरह श्री हरिरायजी आज्ञा करते है की भगवदीय वही है जो (१) श्री आचार्यजी के श्री चरणों का दृड़ आश्रय रखता हो, (२) श्री ठाकोरजी की सेवा द्वारा संतुष्ट रहता हो और अन्य किसी देव का भजन स्वप्न मे भी न जानता हो, (३) अन्य किसी की अपेक्षा न करता हो, (४) काम लोभ मोह मत्सर आदि से रहित हो और द्रव्य का भी लोभ न हो, (५) निरपेक्ष भाव से प्रभु के सेवा करता हो, (६) मन से विरकत रहे - वैराग्य पूर्वक रहे, (७) प्राणी मात्र पे दया भाव रखता हो, (८) किसी की इर्षा न करता हो, और (९) भगवद् कथा आदर पूर्वक श्रवण करता हो।

जिसमे यह सारे गुण - यह नव प्रकार के लक्षण देखने मिले उनका संग करना, शुद्ध मन से सन्मान करना और उनके वचनो पर दृड़ विश्वास रखना। इस प्रकार श्री महाप्रभुजी प्रसन्न हो कर वैष्णवो को आनंद का दान करते है।
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श्री ठाकुरजी की अतिशय कृपा से हमें यह मनुष्य शरीर मिला है। उसमे सभी अंग का अपना महत्व है। लेकिन आँखो का अपना अलग महत्व है। इसके बिना जग अँधेरा है। हम ठाकुरजी के दर्शन भी नहीं कर सकते है।आँखों के चार अंग है ।पलके, पुतली, आँसू और बरौनी।जब हम प्रभु के दर्शन करते है उस समय यह चारौ अपने भाव व्यक्त करते है।"पलकें कहे मूँद ले मोहन को अँखियाँमें, कहे मोहे निहारन दे।''पुतली कहे हट जा सामने से,निज जीवन मोहे सँवारन दे।,आँसू कहे, नंदलाल निहार लिए तुमने, अब पायँ पखारन दे।धर धीरज बोल उठी बरनी, पग नीरजकी रज झारन दे मोहे।

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