सूरदास जी
*श्रीसूरदासजी*🍂
🍃श्रीसूरदासजी जन्मसिद्ध भक्त और कवि दोनों थे। इनकी कविता में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों ही अत्यन्त आकर्षक हैं। एक बार विट्ठलनाथ जी के पुत्रों ने इनकी परीक्षा लेनी चाही क्योंकि सूरदासजी नित्य नवीन भगवान के श्रंगार की पद रचना करते थे। एक दिन श्रीगिरधर जी ने आषाढ़ के महीने में गरमी बहुत पड़ रही थी, अतः श्रीनवनीतप्रिया जी को कोई वस्त्र धारण नहीं कराया। मोतियों का श्रंगार किया।
🍃उस समय श्रीसूरदासजी ने यह पद गाया-
🍂''देखें री हरि नंगम नंगा।
✨जलसुत भूषण अंग विराजत, वसन हीन छवि उठत तरंगा।।
🍂अंग अंग प्रति अमित माधुरी, निरखत लज्जित कोटि अनंगा।
✨किलकत दधि सुत मुख लै मन भरि, सूर हँसत ब्रज जूवतिन संगा।।''
🍃लोगों की समझ में आ गया कि इनको तो अष्ट प्रहर भगवान की लीलाओं का दिव्य दृष्टि से अनुभव होता रहता है।
🍂एक बार रास्ते में एक जल-हीन कुएँ में गिर गये तो स्वयं श्रीठाकुरजी ने इन्हें कुएँ से निकाला और कृपा करके साक्षात् श्रीश्रीप्रियाप्रियतम ने दर्शन भी दिया।
🍃इनके नेत्र खुल गये लेकिन भगवान से यही वर माँगा कि जिन नेत्रों से मैंने आपका दर्शन किया उनसे मैं संसार को नहीं देखना चाहता हूँ। अतः कृपा करके पूर्ववत् मुझे अँधा ही बना दें। अतः श्रीसूरदासजी की दृष्टि पुनः पूर्ववत् हो गयी।
🍂श्रीसूरदासजी पारासौली चन्द्र सरोवर पर रहते थे। इनकी सेवा में एक गोपाल नाम का बालक रहता था। एक दिन भोजन के समय पानी देना भूल गया और कहीं चला गया। तब स्वयं श्रीनाथजी ने अपनी सोने की झारी में जल लाकर दिया। बाद में पता चलने पर श्रीसूरदासजी ने कहा सच्चे गोपाल तो एक श्रीनाथ जी हैं। बाद में श्रीविट्ठलनाथ गोसाईं जी को उत्थापन के समय वह झारी वापिस कर दी गई। वह भी श्रीनाथजी की कृपा से बहुत प्रसन्न हुए।
🍃श्रीगिरिराज गोवर्धन के ऊपर श्रीश्रीनाथ जी का मन्दिर है। नीचे गोपालपुर नाम का गाँव बसा हुआ है जिसे अब जतीपुरा कहते हैं। इसमें एक परम लोभी वणिक रहता था। साठ वर्ष का हो चुका था लेकिन एक दिन भी श्रीश्रीनाथजी का दर्शन करने नहीं गया और चालाकी यह करता था कि दर्शन करके आने वाले वैष्णवजनों से श्रंगार के बारे पूछ में लेता था।
🍂दुकान में आने वाले ग्राहकों से श्रीश्रीनाथजी के बारे में खूब प्रशंसा करके दुकानदारी चलाता था। बिना किसी गोसाईं से दीक्षा लिये गले में कण्ठी माला और तिलक भी धारण करता था जिससे वैष्णव समझ कर लोग हमसे सामान ख़रीदें।
🍃एक दिन सेठ ने श्रीसूरदासजी को सामान आदि ख़रीदने के लिये रोका-टोका। लेकिन सूरदासजी ने कहा कि- 'मैं तुम्हारी सारी पोल पट्टी जानता हूँ, तुम कैसे वैष्णव हो। मेरे साथ दर्शन करने चलो नहीं तो मैं तुम्हारा सारा भण्डा फोड़ दूँगा।'
🍂बहाने तो बहुत बनाया लेकिन श्रीसूरदासजी एक दिन श्रीश्रीनाथजी का दर्शन कराके कृतकृत्य कर ही दिये और श्रीगोसाईं जी से दीक्षा-शिक्षा भी दिला ही दिये। सारा धन सन्त-भगवन्त सेवा में लगाकर भक्ति करने लगा।
🍃श्रीसूरदासजी के मन में सवा लाख पद रचना का विचार हुआ। एक लाख पद लिखे जा चुके थे कि इतने में श्रीठाकुरजी का आदेश हुआ कि आप मेरे धाम में आ जाओ। इन्होंने कहा कि अभी मेरा संकल्प पूरा नहीं हुआ। तब भगवान ने कहा कि- 'सवा लाख पद रचना को मैंने पूरा कर दिया है। २५००० पद मैंने बनाकर 'सूरश्याम' की छाप लगा दी है।'
🍂श्रीसूरदासजी के अंग शिथिल हो चुके थे। अतः श्रीश्रीनाथजी के ध्वजा का दर्शन चन्द्र सरोवर से ही कर लेते थे। अंत में बहुत से वैष्णव परिकर आकर श्रीसूरदासजी से मिले। श्रीचतुर्भुजदासजी ने कहा कि- 'महाराज ! आपने ठाकुरजी का यश बहुत गाया लेकिन श्रीआचार्यचरण का यश तो गाया ही नहीं।'
🍃श्रीसूरदासजी बोले कि- 'मैं गुरु और भगवान में अन्तर ही नहीं मानता हूँ। तब आपने एक पद रचना की-
🍂भरोसो दृढ़ इन चरणन केरो।
✨श्रीबल्लभ नख चन्द्र छटा बिनु सब जग मांहि अंधेरो।।
🍂साधन और नहिं या कलि में जासों होत निबेरो।
✨सूर कहा कहै दुबिध आंधरौ, बिना मोल के चेरौ।।
🍃अन्त में श्रीठाकुरजी का चिन्तन करते हुए पद बनाया-
🍂खंजन नैन रूप रस माते।
✨अतिसय चारू चपल अनियारे, पल पिंजरा न समाते।।
🍂चलि चलि जात निकट श्रवननि के, उलटि पलटि ताटंक फंदाते।
✨सूरदास अंजन गुन अटके, न तरु अबहि उड़ि जाते।।
🍃अन्तिम क्षणों में ब्रजभूमि को हृदय से लगाकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए इहलीला को संवरण कर नित्य लीला में प्रवेश कर गए।
🍂भक्तवत्सल भगवान की जय हो!
🍃भक्त श्रीसूरदासजी की जय हो!
✴।।श्रीराधारमणाय समर्पणम।।✴
*🙏🌱जय श्री कृष्ण🌱🙏*
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