भज गोविन्दम

भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़ मते !!!

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥

जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरुप का श्रद्धा और भक्ति युक्त होकर अर्चन-पूजन करना चाहता है, उस-उस भक्त की देवता-विषयक उस श्रद्धा को मैं अचल - स्थिर कर देता हूँ। अभिप्राय यह है कि जो पुरुष पहले स्वभाव से ही प्रवृत हुआ जिस श्रद्धा द्वारा जिस देवता के स्वरुप का पूजन करना चाहता है उस पुरुष की उसी श्रद्धा को मैं स्थिर कर देता हूँ।

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥

मेरे द्वारा स्थिर की हुई उस श्रद्धा से युक्त हुआ वह उसी देवता के स्वरुप की सेवा-पूजा करने में तत्पर होता है। और उस आराधित देव विग्रह से कर्म फल विभाग को जानने वाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वर द्वारा निश्चित किये हुए इष्ट भोगों को प्राप्त करता है। वे भोग परमेश्वर द्वारा निश्चित किए होते हैं इसलिए वह उन्हें अवश्य पाता है, यह अभिप्राय है।

क्योंकि वे कामी और अविवेकी पुरुष विनाशशील साधन की चेष्टा करने वाले होते हैं, इसलिए

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥

उन अल्पबुद्धि वालों का वह फल नाशवान - विनाशशील  है। जो देवों का पूजन करने वाले हैं वे देवों को पाते हैं और मेरे भक्त मुझको ही पाते हैं। अहो ! बड़े दुःख की बात है कि इस प्रकार समान परिश्रम होने पर भी लोग अनन्त फल की प्राप्ति के लिए केवल मुझ परमेश्वर की ही शरण में नहीं आते। इस प्रकार भगवान्  करुणा प्रकट करते हैं।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - २१ से २३)

सूर्य के प्रकाश और एक कागज के टुकड़े के बीच मैग्नीफाइंग ग्लास एक खास दूरी पर रखी जाए तो कागज कुछ ही क्षणों में जल जाएगा। यदि चन्द्रमा के प्रकाश का उपयोग किया जाए तो करोड़ों वर्ष में भी कागज नहीं जलेगा। क्यों ? क्योंकि, चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित है और सूर्य प्रकाशस्वरुप है। यहाँ सूर्य और चन्द्रमा प्रकाश के दो श्रोत (वास्तव में चन्द्रमा प्रकाश का श्रोत नहीं है) हैं। किन्तु, क्रिया एक ही की जा रही है। यानी समान उपलब्ध भौतिक साधनों का उपयोग एवं समान परिश्रम करने के फल में स्पष्ट अंतर जमीन और आसमान का है। वैसे भी चाँद के प्रकाश का उपयोग करने वाले को 'मूढ़' ही कहेंगे।

भगवान् सूर्य के समान हैं और अन्य चन्द्रमा के समान हैं।  जिस प्रकार चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित है, ठीक उसी प्रकार अन्य में भगवान् के ही अत्यंत छोटे अंश का प्रभाव है। भगवान् और अन्य देवों के पूजन से प्राप्त होने वाले फल का अंतर भी सूर्य और चन्द्रमा के दृष्टान्त जैसा ही है। भगवान्  स्वयं ही अंतर बता रहे हैं। भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं कि समान परिश्रम में अन्य की शरण में जाने वाले का फल मेरे द्वारा ही निश्चित किया हुआ (पूजित देव के अधिकार क्षेत्र में नहीं) निश्चित प्राप्त होने वाला निश्चित ही नाशवान है और मुझ परमेश्वर की शरण में आने वाले को अविनाशी / अनंत फल (मोक्ष) की प्राप्ति निश्चित है।

आमतौर पर कहा जाता है कि केवल नाम अलग-अलग है किसी भी देव विशेष की पूजा भगवान् की ही पूजा है और भगवान् के साथ समस्त देवों को भी सम्मिलित कर दिया जाता है। ऐसा ही तथाकथित बड़े-बड़े धर्म गुरुओं को भी मैं ने कहते सुना है। लेकिन, भगवान् ने स्पष्ट कर दिया है कि ऐसा कदापि नहीं है। भगवान् ने अपनी पूजा को सर्वोत्कृष्ट श्रेणी में रख कर सभी अन्य की पूजा को पृथक साथ ही नाशवान फल की प्राप्ति वाला बताया है।

भगवान् की पूजा सबसे सरल है जिसमें एक रूपया क्या, एक पैसा का भी खर्च नहीं है। कैसे ? किसी भी स्थान पर - हम जहाँ हों वहीं हमें मात्र मन (भक्ति) और बुद्धि (अनुसन्धान / ज्ञान) को अनन्य (न अन्य) भाव से भगवान् पर केंद्रित करना है। अन्य क्रियाओं की आवश्यकता नहीं है। किसी स्थान विशेष की बाध्यता नहीं है। मन और बुद्धि भगवान् के पूजा के साधन हैं। जिससे युक्त कर के भगवान् ने हमें इस संसार में भेजा है।

हमें मन और बुद्धि को भगवान् को अर्पित करना है तथा भगवान् को प्राप्त करने का संकल्प लेना है - मोक्ष रुपी अनंत फल का द्वार हमारे सामने होगा !!

जय श्री कृष्ण !!

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