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*जै जै श्री हित हरिवंश।।*

*श्रीदास पत्रिका*~~~~
क्रमशः भाग चार के आगे।

आज के इस भाग में चाचा श्रीहित वृन्दावन दास जी ने अपनी अधमता के कारणों पर भी प्रकाश डालते हुए विनय की है।
यहां उनका वर्णन ऐसा लगता है जैसे-- आपको एक कमरे में कैद कर दिया जाये और उल्टा लटका दिया जाये ,इससे भी अधिक आपका मल-मूत्र भी वही हो अर्थात गर्भ में जीव की अवस्था ।इतने के बाद भी प्रभु को भूल संसार मे खो जाना और यह चक्र 84 लाख बार दोहराते है ,हम यहां है क्योंकि प्रभु को पीठ कर संसार का नृत्य हमे अच्छा लगता है और उसकी धुन पर नाचते जाते है।

*तुम समरथ, हौ दीन बीनती यह मन धरिये। भृमयो जगत वन वहुत दया रंचक इत करिये।।23।।*

*मन अनीति अति करी बांधि पुनि लीयो।बिसरयो तुम्हरो कृत्य विषय मुहि अन्धो कियो।।24।।*

*स्वामी बिनु सुधि लेहि कौन या महा पंग की। डारि आंधरे कूप करी गति अति कुसंग की।।25।।*

*जनम जनम बहु नच्यो तच्यो खोटी करि करनी। तुम दिशि दीनी पीठ, दीठ दीनी घर घरनी।।26।।*

*ताही के रंग रच्यौ सच्यो शुभ अशुभ जु कर्मनि। ऊंच नीच फल लग्यो भोगवत लोकन भर्मनि।।27।।*

*कर्मनि मानत ईश बहुत रुचि तिन में बाढ़ी। कादौ चहलै फँसयो मोह फांसी गल गाढ़ी।।28।।*

*व्याख्या ::*आप सामर्थ्यवान हो , कृपया कर इस दीन की विनय पर भी मन मे विचार करिये।संसार के जंजाल ने बहुत अधिक भृमित किया है ,कृपया कर थोड़ी अल्प दया इधर तो करिये।।23।।

इस मन ने अत्यधिक अनीति करी और सदा इंद्रियों की इच्छा में बंधकर बार-बार उसके अनुसार कर्म किया।आपके सभी कार्य भूल गया क्योंकि मुझे विषय भोग ने अंधा कर दिया।।24।।

हे स्वामी ! आपके अलावा कौन मेरे जैसे अपंग बेकाम के व्यर्थ का ध्यान करे।मुझे तो लगता है जैसे अंधे कुँए में पड़ा हुआ हूँ और मेरी गति का निर्धारण तो मेरा कुनसँग ही कर रहा है।।25।।

जन्म जन्मो तक मे बहुत नाच ता रहा और अपने गलत कर्मो की वजह से भट्टी पर चढ़ता रहा।आपको और आपकी दिशा को भी पीठ कर के ढीट हो वही किया जो घर और स्त्री करवाती गयी।।26।।

उसी के रंग में रँगकर सच्चे शुभ या अशुभ जो भी कर्म है उनकी रचना करता गया।उन्ही कर्मो के ऊंचे व नीचे फल को भोगते हुए  लोक में भृमण करता रहा।।27।।

कर्मो को ही ईश्वर मानते हुए ,इनमे बहुत रुचि बढ़ गयी।कीचड़ के दरिया में फंसा हुआ हूं और मुझे मोह की फांसी गले मे मजबूती से पड़ी हुई है।।28।।
(क्रमशः)

*जै जै श्री हित हरिवंश।।*

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