बिल्व मंगल

ओ प्रियतम नेक मेरी ओर भी निहार ............
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मधुरतम ''श्रीकृष्णकर्णामृत'' के रचयिता श्रीलीलाशुक विल्वमंगलजी- वृन्दावन
असाधारण जीवन चरित :-

...............इनका जन्म दक्षिण भारत में कृष्णबेना नदी के तटस्थित एक गाँव में कुलीन ब्राह्मण के घर हुआ. यह परम पण्डित, सदाचार परायण थे.
लीलाधारी की लीला!
एक दिन पिता के साथ नदी के पार एक ग्राम में गये.
वहाँ एक सुंदरी वैश्या-चिन्तामणि को देखा. पूर्वजन्म की दुर्वासना के वशीभूत होकर वैश्या पर मुग्ध हो गये.

घर आना-जाना, पतिव्रता अपनी ग्रहिणी से सम्बंध तोड़ दिया.
अब उस वैश्या के ही घर पर रहते.
पिता इनके शोक से मर गये. इनकी स्त्री एक दिन के लिये इन्हें माँग लायी पिता के श्राद्ध के लिये.
ये घर आये, श्राद्ध किया, किन्तु कामातुर होकर अन्धेरी रात में घर से निकल पड़े.

पत्नी इनकी खोज में निकली.
न पाकर नदी में डूबकर प्राण त्याग दिये.
श्रीविल्व उफनती नदी पर खड़े कोई नौका ढूँढ रहे थे. पत्नी के बहते मृतक शरीर को नौका समझ उस पर चढ़ गये. नदी के पार चिन्तामणि के घर पहुँचे.

सब किवाड़ बन्द थे. एक बहुत बड़ा सर्प लटकता देखा दीवार पर. साँप को पकड़ दीवार फाँद कर आँगन में आ कूदे. जा पड़े गन्दे नाले में.
वैश्या- चिन्तामणि इनकी दुर्दशा देखकर अति दुखी हुई. श्रीलीलाशुक ने अपने आने का सब वृत्तांत कह सुनाया.

व्याकुल होकर रो पड़ी चिन्तामणि यह कहते हुये-
जैसौ मन मेरे हाड़-चाम सौं लगायो,
तैसो श्याम सौं लगावो तो पै जानिये सयानिकै.
मैं तो भये भोर, भजौं युगलकिशोर,
अब तेरी तुही जानै, चाहै करौ मन-मानिकै..
.......'मेरे हाड़-चाम, विष्ठा मूत्र भरे शरीर से ऐसा मोह! यदि तू ऐसा अनुराग श्रीश्यामसुन्दर में करता तो तुम्हें सयाना जानती. मूर्ख ! मैं सवेरा होते ही श्रीयुगलकिशोर के भजन हित वन को चली जाऊँगी ,
आगे अब तेरी तू जान.'
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जब उस वैश्या चिंतामणि को गुरु बनाया
.
चिन्तामणि की फटकार ने पूर्वजन्म के संस्कार द्वारा लगाये ह्रदय के किवाड़ खोल दिये. बहुत पछताये. रात भर रोते-रोते, श्रीयुगलकिशोर के नाम-गुण गाते गाते दोनों ने रात बितायी. सवेरे होते ही श्रीविल्व ने चिन्तामणि को गुरु रूप में प्रणाम किया.
श्रीसोमगिरी महाराज के आश्रम पर जाकर उनसे कृष्ण-मन्त्र दीक्षा ग्रहण की और 'लीलाशुक' नाम लिया.
एक वर्ष वहाँ रहकर वृन्दावन की ओर चल दिये.
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तपती सलाईयो से अपनी आँखे फोड़ डाली
.
.........श्रीलीलाशुक वृन्दावन की ओर चले जा रहे थे. हाय! कैसी प्रबल जन्म-जन्म की विषय वासना?
रास्ते में एक सरोवर पर एक सुंदरी नवयुवती को वहाँ पानी भरते देखा.
ऐसे ठगे गये कि उसके पीछे पीछे उसके घर तक जा पहुँचे.
सुन्दरी के पति के पूछने पर इन्होंने अपनी वासना को कह सुनाया.
पति ने साध्वी को इनकी अभीष्ट सेवा की आज्ञा दी.
साध्वी नवनित श्रृंगार कर इनके पास आयी.
इन्होंने आज्ञा की, दो सलाइयाँ लोहे की तपाकर ले आओ. ले आयी वह तपी हुई दो सलाइयाँं.
इन्होंने हाथ में लेकर अपनी दोनों आँखें फोड़ डालीं-

''भूतनियों,तुमने मेरे जीवन को विषय वासना की गर्त्त में ढकेल कर नाश किया है. तुम ही सब अनर्थों का कारण हो.''
कामान्ध श्रीविल्व उस घर से निकले नेत्रान्ध होकर.
किन्तु चल दिये वृन्दावन की राह पर.
भूखे-प्यासे व्याकुल गिरते-पड़ते भक्त को देखकर भक्तवत्सल आतुर हो उठे.

श्रीश्यामसुन्दर ने इन्हें आकर अपने हाथों से भोजन कराया. श्रीठाकुर की कृपा प्राप्त कर आ पहुँचे वृन्दावन में.
दिव्य चक्षुओं से श्रीश्रीराधामाधव की नित्यनव रासलीला माधुरी का आस्वादन इनकी मधुरस्वर लहरियों में तरंगित हो उठा- ''श्रीकृष्णकर्णामृत'' रूप में.
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गुरु शिष्य दोनों को युगल रूप के दर्शन :-
श्रीचिन्तामणि भी इन्हें खोजती हुई वृन्दावन आ पहुँची. उस समय इनके पास पहुँची जब यह श्रीश्यामसुन्दर के द्वारा दिये गये क्षीर प्रसाद का दोना हाथ में लिये हुये थे.

'मैं चिन्तामणि हूँ'- ऐसा सुनते ही आतुर होकर इन्होंने जो देखना चाहा श्रीगुरुदेव को , तो नेत्रों में दृष्टि लौट आयी. प्रणाम किया, आसन दिया. आगे किया प्रसादी क्षीर का दोना.
चिन्तामणि ने कहा- 'तुमसे नहीं लेने की, जिसने तुम्हें यह दोना दिया है, उसके हाथ से लूँगी. श्रीविल्व ने रख दिया दोना.

गुरु-शिष्य दोनों भूखे बैठे रहे. श्रीश्यामसुंदर ने सोचा अब मेरा भी वहाँ अकेले जाकर चिन्तामणि युवती को दोना देना ठीक नहीं. श्रीकिशोरीजी मन में कुछ और न सोच बैठें. साथ लेकर श्रीकिशोरीजू को वहाँ पधारे और उनके हाथ से चिन्तामणि को खीर का दोना दिलवाया.

इस प्रकार चिन्तामणि और श्रीविल्वमंगलजी वृन्दावन के सुखपुंज कुंजों में श्रीश्रीराधामाधव की नित्य नव निकुंजलीलाओं का मधुर गान करते हुये नित्यलीला में प्रविष्ट हो गये.
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श्रीलीलाशुक श्रीविल्वमंगल-समाधि मन्दिर
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स्थान - श्रीगोपीनाथ बाज़ार में यह मन्दिर अवस्थित है. इसमें लीलाशुक श्रीविल्वमंगल जी के इष्टदेव श्रीश्रीराधामाधव के श्रीविग्रह प्रतिष्ठित हैं चिरकाल से. इसी मन्दिर में श्रीलीलाशुक जी की समाधि भी है.

स्थापना - समाधि मंदिर ,चिरकाल से जीर्ण-शीर्ण हो चुकी थी, सन् १९९१ दिनाक अक्तूबर को समाधि मंदिर का पुनरुद्धार महोत्सव संपन्न हुआ.
श्री विग्रह - श्री राधामाधव के श्री विग्रह प्रतिष्ठित है और श्री लीलाशुक की समाधि मंदिर दर्शनीय है.
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हे नाथ .....

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