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*जय जय श्री हित हरिवंश।।*

*श्रीदास पत्रिका*~~~~
क्रमशः भाग पांच के आगे।

आज के इस भाग में चाचा श्रीहित वृन्दावन दास जी ने पहले कही अपनी अधमता को छमा करते हुए ,प्रेम पथिक की चर्चा करते हुए उनके द्वारा हाथों से भेजी पत्रिका द्वारा वृन्दावन हित रूप की दुहाई दी है।

*यह गति मेरी जानि मानियो हरि निश्चय करि।ओसे विपत्ति अनेक भरी बहु देही धरि धरि।।29।।*

*तुम्हे कहा प्रभु दोस समुझ मेरी ही भोंड़ी। अब सुनि गई न करहु दास लज्जा गहि औड़ी।।30।।*

*तुम स्वामी हौ दास आदि ही तै चलि आयौ।भूले कौ छिमि देहु समुझ अब बहुरि कहायौ।।31।।*

*प्रेम पथिक के हाथ पत्रिका है दई। पहुँचेगी तुम पास अहो करुणा मई।। बाँचि सांचि अब वेगि आइ सुध लीजिये। हरि हां वृन्दावन हित रूप विलम्ब नहि कीजिये।।32।।*

*व्याख्या ::* जो हमने अपनी गति बताई है उसे जान कर , आप प्रभु निश्चय कर मानना।और ऐसे अनेक विपत्तियां भरी हुई है क्योंकि बहुत से शरीर मैने बार- बार धारण किये है।।29।।

आपको कहाँ इस बात का प्रभु कोई दोष ,यह तो मेरी समझदारी की मूर्खता का पहाड़ है।अब आप मेरी सुन लो , जो बीत गई वह यह दास नही करेगा क्योंकि लज्जा का कोई अकाल तो नही है।।30।।

सनातन प्रक्रिया में आदि से आप स्वामी और हम सेवक यही चला आया है।मुझे भूला हुआ समझते हुए ,अब क्षमा कर दो क्योकि में आपको बहुत कुछ कह चुका हूं।।31।।

प्रेम पथिक (श्रीहिताचार्य महाप्रभु जी )  के हाथों , यह पत्रिका दे रहा हूँ।यह आपके पास पहुंचेगी मेरी स्वामिनी! करुणामयी।। जो वचन कहे है , वह विशुद्ध सत्य है , अब तो आप वेग से आकर मेरी सुध ले लो।प्रभु आपका स्वरूप श्रीहितमय वृन्दावन है , यहां आप विलम्ब नही करिये।।32।।
(क्रमशः)

*जय जय श्री हित हरिवंश।।*

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