भक्त कैसा होता है

भक्त कैसा होता है?
रसिकाचार्य कृपा-पूर्वक बता रहे थे कि यदि कोई संत प्रसन्न होकर कहे कि बोलो - "क्या चाहते हो? श्रीहरि का दर्शन अथवा श्रीहरि का विरह?
सोचोगे, क्या पूछ बैठे? बड़ी सरल सी बात है कि श्रीहरि का दर्शन ! जब अभी दुर्लभ-दर्शन सुलभ है तो अब चिंतन को बचा क्या?
किन्तु जो सच्चा भक्त होगा, जो वास्तव में ही बाबरा होगा, वही कह सकेगा कि विरह !
क्यों?
अभी क्षुधा/भूख लगी ही नहीं तो देव-दुर्लभ भोग-पदार्थों में रस कैसे मिलेगा? तृप्ति कैसे होगी? पहले भूख तो लगे तब पदार्थ में रस आवेगा, तृप्ति होवेगी सो कृपया आप मुझे श्रीहरि का विरह दे दीजिये जो प्रतिक्षण बढ़ता ही रहे। एक दिन ऐसा आ जाये कि मैं उनकी प्रतिक्षण स्मृति के बिना जीवित ही न रह सकूँ।
विरह और मिलन !
नदी हजारों किलोमीटर का रास्ता दौड़ते-भागते, बाधाओं से टकराते हुए करती है; यही विरह है !
एक ही धुन ! एक ही लक्ष्य !
हम बड़े चतुर हैं; श्रीहरि से मिलन तो चाहते हैं किन्तु बड़ी ही सावधानी बरतते हैं कि कही ऐसा न हो जावे कि हम खो जावें। दो नावों पर सवार को श्रीहरि-कृपा का दर्शन तो हो सकता है किन्तु प्राप्ति न हो सकेगी। हमें भौतिक संपदा और कुटुंबीजनों में आसक्ति अधिक है, श्रीहरि में कम। सब कुछ बना रहे और श्रीहरि भी मिल जावें तो सोने में सुहागा। सब चला जावे और वे मिल जावें तो क्या लाभ?
यही कारण है कि प्रवचन करना, सुनना सरल है किन्तु उसे आचरण में लाना कठिन और जब तक आचरण में ही न उतरी तो कथा-सत्संग का कैसा लाभ? यही कहते हैं कि उन्होंने प्रवचन में बड़ी सुंदर बात कही। अरे बात सुंदर होती तो कहना न पड़ता; वह तो आचरण में उतरनी चाहिये।
भक्ति सरल है, सरल के लिये किन्तु सरल होना बड़ा कठिन है !
प्राण-प्रियतम के अतिरिक्त अब किसी की सुधि नहीं; जगत में जो भी है, वह उन्हीं का। जब वे ही कर रहे हैं, वे ही कह रहे हैं तो मान-अपमान कैसा और किसका? खेल तो खेल है !
इसीलिये कहते हैं कि भक्ति करे कोई सूरमा, जाति-बरन-कुल खोय। अपने पास श्रीहरी की कृपा से जो कुछ है वह और स्वयं को जो श्रीहरि के श्रीचरणारविन्द में सहर्ष न्यौछावर करने को प्रस्तुत है, यह मार्ग उनके लिये है। इस मार्ग पर कोई भौतिक-संपदा प्राप्त होगी, इस भ्रम में मत रहना। यह तो जान-बूझकर लुटने वालों की गली है; यहाँ वे ही आवें जिन्हें सर्वस्व लुटाने/लुटने में परमानन्द आता हो !
सांकरी-खोर से कोई बिना लुटे चला जावे; असंभव!

मैं तो छाया हूँ घनश्याम की
न मैं राधा,न मैं मीरा,न गोपी ब्रजधाम की।
न मैं भक्तिनि,न मैं दासी,न शोभा हूँ बाम की।
रहूँ संग मैं,सँग-सँग राँचू ,संगिनि प्रात: शाम की।
श्याम करे जो वही करूँ मैं,प्रति हूँ उसके काम की।
मैं हूँ उसके आगे-पीछे चाह नहीं विश्राम की।
रहूँ सदा उसके चरणों में, स्थिति यही प्रणाम की।
जीव यही है मुक्ति जगत से,लीला यह हरि नाम की।

जय जय श्यमाश्याम!
कृष्णमयी
😭😭

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