जयदेव 1

श्री जयदेवजी ----------- (Part -01)
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.................एक ऐसे अद्भुत काव्य "गीतगोविन्द" के रचयता जिसकी किसी भी पंक्ति को किसी भी अवस्था में प्रेमपूर्वक गायन या गुनगुनाने मात्र से स्वयं प्रभु श्यामसुन्दर खिंचे चले आते हे व् सुनने को लालायित रहते है,
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उन्ही प्रभु जगन्नाथ के परमप्रिय श्री जयदेवजी के श्री चरणों में स:ह्रदय नमन करता हु।
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श्री जयदेव जी द्धारा रचित काव्य 'गीतगोविन्द' तीनो लोको में प्रसिद्ध हुआ ,
इनकी अष्टपदियों का जो कोई अध्ययन करता है उनका बुद्धि विलास बढ़ता है व् जो उनका प्रेम सहित गायन करता है उसे सुनने के लिए तो स्वयं भगवन राधिकारमण प्रसन्न होकर अवश्य आते है।
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........कवि सम्राट जयदेवजी 'किंदुबिल्व' नामक बंगाल के एक ग्राम में पैदा हुए थे ,
आपका ह्रदय रासो के राजा अर्थात श्रृंगाररस से परिपूर्ण था।
परंतु विरक्त इस प्रकार थे की प्रतिदिन एक नविन वृक्ष के निचे रहते थे ,
दैनिक आवश्यकताओं को करने के लिए सिवा एक गुदड़ी और कमण्डलु के अलावा आप कुछ भी नही रखते थे।
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.....................एक बार एक ब्राह्म्ण ने अपनी पुत्री को श्री जगन्नथजी के भेट चढ़ाने की प्रतिज्ञा की थी, सो जब लड़की सयानी हुई और उसके भेट करने का समय आया तो वह प्रतिज्ञा अनुसार श्री जगन्नाथ जी के दरबार में पंहुचा और अपने इच्छा प्रकट की उसी समय प्रभु उसे आज्ञा दी की 'जयदेव ' नाम के एक रसिक कवि मेरे ही स्वरुप है ,
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उन्हें इस अपनी कन्या को दे दो और उनसे कहना की मेरी ऐसी आज्ञा हुई है।
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जगन्नथजी की आज्ञा पाकर ब्राह्मण उस जगह पंहुचा जहाँ कवियों के मुकुट जयदेवजी विराजमान थे ,
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और बोला - हे महाराज ! मेरी इस पुत्री को पत्नी के रूप स्वीकार कीजिये।
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जयदेवजी ने कहा - "तनिक विचार करके देखिये " जिस व्यक्ति को कन्या लेने का अधिकार है या जिसके वहाँ सुख संपत्ति का विस्तार है उसे यह सुन्दर कन्या दीजिये।
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ब्राह्मण ने कहा - मैं तो यहाँ प्रभु जगन्नाथ जी की आज्ञा से आया हु। आपका कर्तव्य है की उनकी आज्ञा का पालन करे, नही तो प्रभु की आज्ञा भंग करने का अपराध आपको लगेगा।
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जयदेवजी बोले - जगन्नाथ जी की आज्ञा की बात छोड़िये उनको तो हजारो स्त्रिया भी शोभा देती है, हमारे लिए तो एक भी पहाड़ के समान भार हो जायेगी।
अतः आप पुनः लोट जाईये ,ज्यादा कहने से आप नाराज हो जायेंगे।
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ब्राह्मण तब अपनी पुत्री से बोला - चाहे कुछ भी हो तुम इसी जगह बैठी रहो , क्योकि में तीनो लोको के शिरोमणि अपने प्रभु जगन्नाथ जी की आज्ञा का उलंघन नही कर सकता, यह कहकर ग़ुस्सा होकर ब्राह्मण चल दिया।
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जयदेव जी ने अनेक प्रकार की बाते कहकर उसे रोकना चाहा लेकिन वह नही माना।
यह तो बड़ा संकट आन पड़ा , कुछ देर ठहर कर वे उस ब्राह्मण बालिका से बोले -" तुम स्वयं ही विचार कर देखो की में पति बनने के किस प्रकार योग्य हु ,और तब जैसा करना है वैसा निर्णय करो ,
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ब्राह्मण बालिका ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया - मेरा वश तो कुछ चलता नही है , चाहे जो हो आप त्यागे या स्वीकार करे में तो अपने को आप पर न्योछावर कर चुकी हु।
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पद्मावतीजी के पतिव्रत भाव से भरे हुए उत्तर को सुनकर जयदेव जी ने जान लिया की ये तो मेरी पत्नी हो गयी और प्रभु ने भी अपने अधिकार के बल का प्रयोग अंत में आज्ञा करके कर ही डाला तो यह उचित समझा की गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए एक झोपडी छबा ली जाये ,
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झोपडी बन जाने के उपरांत जब एक जगह ही रहने का स्थान निश्चित हो गया तो उसमे सेवा के लिए श्यामसुंदर की एक प्रतिमा स्थापित कर दी.
समय बीतता गया , अब आपने ये निश्चय किया की एक ग्रन्थ की रचना करनी चाहिये ,
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उसी के फलस्वरूप एक अत्यंत सरस "गीतगोविन्द" काव्य का प्रादुर्भाव हुआ।
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एक बार "गीतगोविन्द " में श्री राधिका जी के मान का प्रसंग वर्णन करते हुए आपने निम्नलिखित पद बनाया :-
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- स्मरगरसखंडनम मम् शिरसि मण्डन 'देहि में पदपल्लवमुदारम '
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पद के अंत में श्री गोविंदजी विनय पूर्वक श्री राधिका जी से कहते हे- , हेप्रिये मेरे ह्रदय आनंदित करने वाले आपके इन चरणों को क्या में सहलाऊ ,
(जो कुछ भी हो ) काम रूपी विष को उतार देने वाले मेरे मस्तक के भूषण अपने पदपल्लव को मेरे सिर पर रख दीजिये।
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अपने मुख से पद का अंतिम चरण ( देहि में पदपल्लवमुदारम) निकलते ही जयदेवजी चिंता में पड़ गए ,
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की ऐसी बात को कैसे लिखा जाये , यह सोचते सोचते आप स्नान को चले गए ,
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भगवान् के मस्तक पर प्रियाजी का चरणकमल रखने की बात लिखने का साहस नही हुआ।
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लेकिन स्नान से लौटने पर क्या देखते है जिन पद को लिखने में उन्हें संकोच हो रहा था , वही पुस्तक में लिखा रखा है।
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जयदेव जी ने जब अपनी स्त्री पद्मावती जी से यह पूछा की यह पद कौन लिख गया
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तब उन्होंने उत्तर दिया - अभी अभी आप स्वयं ही तो लिखकर व् भोजन करके गए है ,
.आप ये जानकर अत्यंत ही प्रसन्न हुए की मेने ऐसा सोचकर कुछ अनुचित नही किया क्योकि श्यामसुंदर की स्वयं की भावना भी तो ऐसी ही थी।
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अपने प्रभु की ऐसी भक्तवत्सलता देख जयदेवजी के नैनों से अश्रु छलक पड़े।
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शेष सुन्दर वर्णन अगली Post में -
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हे गोविंद

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