श्रीबिष्णुप्रिया गौर 1

*श्रीश्री निताई गौर लीलामृत*

*जय जय श्री विष्णुप्रिया गौरांग*

             भाग 1

*सन्यास की भूमिका*
एक दिन गौरसुन्दर के दोनों नयनों से झर झर अश्रुधारा बह रही थी। उनका सुंदर श्रीमुख कमल मलिन हो गया है। गोपी गोपी नाम जप रहे हैं। तब उनका मर्म न समझकर उनके सहपाठी कृष्णानंददास बोले - गोपी गोपी क्या चिल्लाते हो ? कृष्ण कृष्ण कहो । गोपी गोपी नाम लेने से क्या लाभ। कृष्ण कृष्ण कहने से पुण्य होता है। महाप्रभु उस समय राधाभाव में उन्मत्त थे। ये मेरे सहपाठी हैं महाप्रभु जी को यह ज्ञात नहीं हुआ , उन्होंने सोचा कि कृष्ण मथुरा गए हैं और उन्होंने ही अपना दूत भेजा है। ऐसा सोच गोपिभाव में कहने लगे - निष्ठुर , शाठ चोर कृष्ण का नाम लेने से क्या लाभ। इतना कहकर महाप्रभु उसको पकड़ो पकड़ो बोलते हुए उसके पीछे भागे।आगमवश कृष्णानंद तेजी से भाग गए और जाकर अपने सहपाठियों को बताया। वे महाप्रभु की महाभाव की चेष्ठाएं ओर गोपिभाव न समझ बुरा भला कहने लगे । उनलोगों ने ईर्ष्या द्वेषवश महाप्रभु के विरोध में षड्यंत्र रचा । एक दिन अंतर्यामी प्रभु गम्भीर भाव मे गंगा किनारे भक्त गण के साथ आवेष्ठित बैठे थे। श्रीनित्यानन्द प्रभु भी उनके पास थे। महाप्रभु जी ने कहा - कफ निवारण करने के लिए पिपली ओषधि का प्रयोग किया , परन्तु उससे रोगनिवारण होना तो दूर रह, बल्कि और बढ़ गया। भक्तवृंद इस बात को लेकर विचार करने लगे। किंतु नित्यानंदजी तत्काल गौरहरि का भाव जान गए।उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखा गौरसुन्दर अब घर पर नहीं रहेंगे। यह सोचकर उनके प्राण व्याकुल हो उठे । एकांत में बैठकर श्रीनित्यानन्द जी से कहा - श्रीपाद !मैं ग्रहस्थ आश्रम छोड़कर सन्यास ग्रहण करूंगा। तुम मुझे इसके लिए अनुमति दो। तुम जो कराते हो , वही तो मैं करता हूँ। जगत उद्धार के लिए मुझे मत रोकना । यही तो तुम्हारा भी सपना है। तुम मेरे आने का कारण जानते ही हो।अभी ईर्ष्यावश कुछ नगरवासी मेरी निंदा कर रहे हैं।इससे तो उनका मंगल नहीं होगा। वे ही जब मुझे सन्यासी के रूप में देखेंगे , तभी प्रणामादि करेंगे तो उसके पाप नष्ट हो जाएंगे।सबके उद्धार के लिए ही तो तुम्हारा और मेरा अवतार हुआ है। मुझे आज्ञा दें।

  दुर्बुद्धि कलिग्रस्त जीव श्रीभगवान के सुख ऐश्वर्य को देखकर ईर्ष्यालु हो गया। परन्तु इस कारण दयामय जगतपिता अपने द्वारा सृष्ट जीव के प्रति असंतुष्ट होकर उनकी मंगल कामना से निवृत नहीं हो सकते। श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा था -सर्प दूध पीकर हलाहल विष तयार करता है। हे प्रिय पाठकवृन्द हमारे उद्धार के लिए अवतरित श्रीनिताईगौर से अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करें । तभी हमारा जीवन सार्थक होगा।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु कुछ देर निस्तब्ध होकर बैठे रहे। फिर हाथ जोड़कर श्रीहरि को निवेदन करते हुए बोले -
प्रभो! तुम इच्छामय हो । जो तुम्हारी इच्छा है वही सत्य है।तुमको आज्ञा या निषेध कौन कर सकता है । जिस प्रकार जगत का उद्धार होगा , वह आप जानते हो तथापि अपनी मन्त्रणा सबको बता दो। इसके बाद जो तुम्हारी इच्छा होगी सब लोग वही करेंगें। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कौन जा सकता है। श्रीनित्यानन्द प्रभु गौरसुन्दर के तत्व और लीला को विशेष रूप से जानते हैं। गौरसुन्दर ने उनके परामर्श से विशेष रूप से प्रसन्न होकर बार बार उनको प्रेमालिंगन प्रदान कर कृतार्थ किया। महाप्रभु उसके बाद फिर श्रीगदाधर प्रभु के घर आ गए।चूंकि वे उनके प्राण स्वरूप थे।उन्होंने अतिशीघ्र ही प्रभु की अभयर्थना की। गौरसुन्दर बोल उठे -
हे गदाधर !तुम मन मे दुख न करना । मैं श्रीकृष्ण प्राप्ति की इच्छा से वृन्दावन जाऊंगा। यह सुनते ही गदाधर प्रभु पर मानो वज्रपात हो गया। वे आजन्म संसार से विरक्क्त होकर भी महाप्रभु जी का मधुर सँग प्राप्त कर परमानंद में थे। श्रीगौरसुन्दर ही उनके भाई बन्धु, माता पिता सब कुछ थे। जब वे ही ग्रह त्याग कर देश विदेश में भृमण करेंगे यह गदाधर प्रभु कैसे सहन कर सकते थे। वे उच्च स्वर से रो पड़े और बोले - क्या सन्यास लेने से ही कृष्ण मिलते हैं।तुम्हारे मत से क्या ग्रहस्थ वैष्णव नहीं हैं। और अनाथिनी मां को छोड़कर कैसे जाओगे। तुम्हारे जाने से वह कैसे जीवित रहेंगीं।तुमको उनके वध के पाप का भागी बनना होगा।घर में रहकर क्या भगवान से प्रीति नहीं हो सकती। ग्रहस्थ तो सभी आश्रमो का आधार है। इस पर भी यदि आपको सन्यास से ही सुख है , तो जैसी आपकी इच्छा हो सो करो। फिर श्रीगौरहरि श्रीवास पंडित के घर चले गए। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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