जयदेव 3
श्री जयदेवजी ------( Part- 03 )
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(पूर्व की Post से आगे का वर्णन ) - गीतगोविन्द महात्म्य '
..................एक दिन किसी माली की लड़की बैंगन की बारी में बैंगन तोड़ती हुई 'गीतगोविन्द ' के पंचम सर्ग का "धीरसमीरे यमुनातीरे बसतिवसे वनमाली " यह पद गा रही थी।
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इस पद को सुनकर महाप्रभु जगन्नाथ इतने मुग्ध हुए की वे अपने श्रीअंग पर एक महीन जामा पहने हुए ही उस माली की लड़की के पीछे पीछे फिरने लगे ,
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और 'बहुत अच्छा -बहुत अच्छा ' कह कह कर उस पद की प्रसंशा करने लगे ,
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ऐसा करते हुए प्रभु को पूर्व का स्मरण हो आया की वे लीला के समय किस प्रकार मानिनी राधिका के वियोग की आग में जला करते थे।
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माली की कन्या के पीछे पीछे बेसुध होकर घूमने के कारण जगन्नाथ जी का पहना हुआ वस्त्र झाड़ियों में उलझने के कारण जगह जगह से फट गया था,
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और आप उसे ही पहिने हुए श्री मंदिर में लोट आये।
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अब जैसे ही जगन्नाथ जी के पुजारियों में पट खोला -श्री ठाकुर जी के वस्त्रो को फटा हुआ देखकर सभी अचंभित से रह गए।
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पुरषोत्तमपुरी के राजा को जब यह समाचार मिला तो राजा ने पुजारियो से इसका कारण पूछा -
'ठाकुर के ये वस्त्र कैसे फट गए ?'
ठीक ठीक बताओ तो उन्होंने उत्तर दिया - हमे कुछ नही मालूम ।
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तब प्रभु ने राजा की शंका को दूर करने हेतु स्वयं ही बता दिया की किस प्रकार वे बैंगन की बाड़ी में घूमते फिरे थे
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अंत में प्रभु ने राजा को ये भी बताया की -मुझे वह प्रसंग बहुत ही सुन्दर लगा।
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प्रभु जी की इच्छा को समझ कर राजा ने माली की उस लड़की को पालकी में बैठा कर सम्मान पूर्वक श्री मंदिर बुलवाया।
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लड़की ने मंदिर में पहुँच कर नाचते हुए वही पद प्रभु को सुनाया और उन्हें प्रसन्न किया।
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इसके बाद पुरषोत्तमपुरी के राजा ने 'गीतगोविन्द' के गान का अद्भुत रहस्य जानकर नगर में इस आशय का ढिंढोरा पिटवा दिया की
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इस अद्भुत ग्रन्थ की अष्टपदियों को जो कोई पढे चाहे वह धनी हो या निर्धन , उपयुक्त स्थान 'देवालय अथवा मंदिर ' में ही पढे और जब उसके पदों को गावे तो प्रत्येक अक्षर को स्पष्ट उच्चारण करते हुए मधुर स्वर से गावे ,
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और ऐसी भावना अपने मन में कर ले की प्यारी राधिका और श्यामसुन्दर पास ही में विराजित होकर सुन रहे है
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अहा !
'गीतगोविन्द ' ग्रन्थ का ऐसा अपूर्व महत्त्व हे की स्वर्ग की देवांगनाएँ भी इसका प्रेम से गायन करती है
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इससे अधिक गीतगोविन्द की महिमा और क्या हो सकती है की श्री जयदेव जी की काव्य शक्ति पर मुग्ध होकर स्वयं प्रभुजी ने इसके एक पद का चरण 'देहि में पदपल्लवमुदारम ' अपने हाथो से लिखा था
जैसा की पूर्व की post में वर्णन किया गया।
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शेष भाग अगली Post में , भाव से ग्रहण करे।
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आज की Post में " धीरसमीरे यमुनातीरे। की .. कुछ पंक्ति दी गयी video में श्रवण करे बहुत सुन्दर है
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हे गोविन्द !
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