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*श्रीश्री निताई गौर लीलामृत*

*जय जय श्री विष्णुप्रिया गौरांग*

             भाग 2

*सन्यास की भूमिका*

गौरहरि श्रीवास पंडित के ग्रह में पधारे और उनसे कहे -
हे प्रिय श्रीवास !मुझे सन्यास की अनुमति दो । तुम्हारे लिए मैं प्रेमधन कमाकर लाऊंगा। श्रीवास बोले - प्रभो ! आपके बिना हमारा जीवित रहना असम्भव है। धनोपार्जन के लिए बाहर गया व्यापारी धन कमाकर सम्बन्धियों को तभी देगा जब वो उसे जीवित मिलें। किंतु हे प्रभु !आपके वियोग में हमारे प्राण नहीं बचेंगे । इतना कहकर श्रीवास रो पड़े । महाप्रभु चुपचाप मुरारी गुप्त के घर में पधारे। मुरारी गुप्त उनका संकल्प सुनकर दुखी होकर बोले प्रभु !आपने हृदय में अनुराग रूपी बीज को रोपण करके प्रेमजल से सींचकर इसे पाला , इसकी रक्षा की । सबको इसका आस्वादन करवाया , अब जब पूरा नवद्वीप इस प्रेमफल का आस्वादन कर रहा है तब आप इसे उखाड़कर चले जा रहे हैं। याद रखें प्रेमफल के बिना नदियावासी भूखे प्यासे मर जायेंगे। प्रभु मैं जीवित नहीं रहूंगा , कहकर मुरारी गुप्त फूट फूट कर रोने लगे। गौरसुंदर की वाणी सुनकर मुकुन्द भी क्रोध भरी वाणी में बोले , प्रभु !मेरा शरीर जल रहा है , किंतु प्राण नहीं निकल रहै हैं।हम घर बार , धर्म कर्म को तिलाजंलि देकर आपकी शरण मे आये हैं।अब आप हमें इस तरह ठुकराकर जा रहे हो, शरणागतों को इस प्रकार ठुकराना आपके योग्य नहीं है। क्या आपको किसी पर भी दया नहीं आती है। हम पर आप कितने कठोर हो गए हो।तुम्हारे बिना इस जीवन से क्या लाभ है। हम सब भी अपना शरीर छोड़ देंगे। इतना कहकर मुकुन्द फूट फूटकर रो पड़े। मुकुन्द का विलाप सुनकर सभी रुओ पड़े। यह सुनते सुनते करुणामय गौरसुन्दर का हृदय भर आया। मुकुन्द के मुख की ओर देख पुनः नीचे कर अश्रुपात करने लगे। फिर कुछ साहस कर कहने लगे - मैं सच कहता हूं मेरे वियोग में जो आपकी दशा हो रही है वही दशा मेरी कृष्ण वियोग में हो रही है। आप अपने सुख के लिए मुझे दुखी कर रहे हो । यह तुम्हारा कैसा प्रेम है?

  हे बंधुगण !मेरा हृदय कृष्ण विरह में जल रहा है और मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। मैं सन्यासी वेश धारण कर मेरे प्राण नाथ की खोज में देश देशान्तर भृमण करूंगा।फिर गौरसुन्दर स्वस्थचित्त होकर भक्तो के साथ गंगा तट पर आ गए और भक्तों को इस प्रकार कहने लगे- भाइयो सुनो !यह जगत बड़ा दारुण है और कृष्ण से विमुख करने वाला है।

  14 वर्षीया नवबाला विष्णुप्रिया जी कुछ दिनों के लिए पितृगृह गयी हुई थी। पुत्र का संसार से वैराग्य देखकर मैया ने झटपट पुत्रवधु को बुलाया। चूंकि प्रिया जी प्राणेश्वर की सेवा अत्यंत प्रीतिपूर्वक करती हैं।वृद्धा सास की सेवा करती हैं। ठाकुर सेवा करती हैं और समस्त गृहकार्य करती हैं। पड़ोस की एक ब्राह्मण कन्या काँचना से उनका सखी भाव है। दोनो सखियाँ निर्जन में बैठकर मन की बातें करती हैं। श्रीश्रीबिष्णुप्रिया की सेवा में काँचना सदा समर्पित रहती है उनके समान त्रिभुवन में भाग्यशाली और कौन है?

  श्रीनिमाई के ग्रह त्याग की विषम घड़ी जितनी निकट होती जा रही थी उतना ही प्रिया जी का मन उदास होता जा रहा था। उनको चारों तरफ अमंगल सूचक दिखलाई दे रहे थे। उनका दाहिना अंग फड़कने लगा । कर्ण के आभूषण अकस्मात भूतल पर गिर पड़ते हैं। कच्चे सोने के समान उनका स्वर्ण वर्ण मलिन हो गया है। कमल सा मुख दिन प्रतिदिन सूखता ही जा रहा है। उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगे। वृक्षों से पत्ते सूख सूखकर झड़ रहे हैं। आजकल कोयल का गान भी बन्द हो गया है।सखी ! मेरे प्राणेश्वर मुझे छोड़कर चले तो नहीं जाएंगे। काँचना ने उन्हें बहुत समझाकर शांत किया।इस समय श्रीप्रभु दिन रात भक्तों से घिरे रहते हैं। रात्रि के समय श्रीगदाधर नरहरि आदि अंतरंग भक्तगण उनके ग्रहमन्दिर में शयन करते हैं। इस कारण श्रीमती विष्णुप्रिया देवी रात में भी प्रभु के सेवा सुख से वंचित रहती है, किंतु गौरहरि को कुछ दुख न हो इसलिये उनसे कुछ नहीं कहती है।

   सौभाग्य से आज श्रीगौरसुन्दर अकेले ही ग्रहमन्दिर पधारे हैं।वे नयन बन्द किये पलंग पर लेटे हैं। धीरे धीरे विष्णुप्रिया देवी ने ग्रहमन्दिर में प्रवेश किया, और प्राणवल्लभ के श्रीचरण कमलों के तले बैठकर उनकी चरण सेवा करने लगी। उनके नयनों से अश्रु प्रभु के श्रीचरणों पर गिर पड़े। वे चौककर उठ बैठे, यह देखकर उनका कोमल हृदय द्रवीभूत हो उठा और अत्यंत स्नेहपूर्वक अपने पलँग पर बैठाकर आदर करके दुख का कारण पूछने लगे? तो रुंधे स्वर में प्रिया जी ने कहा - प्राण वल्लभ !! मेरे सिर पर हाथ रखकर बतलाओ क्या आप भी अपने बड़े भाई की तरह...........

  प्रिया जी इसके आगे कुछ भी न बोल सकीं। मन के आवेग से वे फफकती हुई, रोते रोते श्रीगौरहरि के चरणों मे गिर पड़ीं, महाप्रभु जी ने उनको उठाकर उनके नयन निज उतरीय से पोंछ दिए , प्रिया जी के दुख सागर का अंत नहीं। वे कलेजा थामकर रोते रोते अपने प्राणवल्लभ से पूछने लगी , प्राणनाथ !! मेरे सिर पर हाथ रखकर कहो क्या तुम सन्यास ले लोगे ?यदि यह सत्य है तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी। आपकी सेवा के लिए ही तो मेरा जीवन है। सेवा से वंचित इस जीवन को रखने का क्या प्रयोजन है।कुसुमपुष्प के समान अपने सुकोमल श्रीचरणों से कंटीले वन में कैसे भृमण करोगे ? तुम्हारे श्रीचरणों के सिवाय और किसी को मैं जानती ही नहीं , मुझे किसके भरोसे छोड़ जाओगे?
क्रमशः

जय निताई जय गौर

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