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*श्रीश्री निताई गौर लीलामृत*

*जय जय श्री विष्णुप्रिया गौरांग*

             भाग 3

       श्रीमती विष्णुप्रिया जी कहती हैं - तुम्हारे वियोग में तुम्हारी माँ प्राण त्याग देंगी। ऐसी माता का आप त्याग कैसे करेंगें।श्रीआचार्य जी, हरिदास,मुरारी, मुकुन्द आदि भक्तगण को छोड़कर तुम सन्यास कैसे ग्रहण करोगे । वे भी तुम्हारे विरह में प्राण त्याग देंगे।प्रिया जी महाप्रभु जी के श्रीचरणों को पकड़ कर रो रही हैं। महाप्रभु जी ने उनके मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा - प्रिये!तुम वृथा शोक क्यों कर रही हो? मैं जो कुछ भी करूंगा तुम्हारी अनुमति लेकर ही करूंगा।

  यधपि श्रीगौरसुन्दर का हृदय कृष्णविरह से दुखी है , किंतु प्रिया जी के सुख  के लिए उन्होंने ऐसा कहा।। प्रिया जी के लिए तो महाप्रभु जी ही उनके जीवन सर्वस्व हैं। चूंकि स्त्री का पति ही उसके लिए सब कुछ होता है।उसका सँग सुख , सेवा सुख , नारी के लिए स्वर्गसुख से भी बढ़कर होता है। विष्णुप्रिया जी भी अपने पति का सुखद सँग त्याग नहीं कर पा रही हैं। चूंकि पति परमेश्वर की सेवा से इस लोक में और परलोक में नारी का बहुत सम्मान होता है।

   इधर श्रीगौरसुन्दर प्रिया जी को समझाने लगे -प्रिये ! मेरी बात सुनो मन मे कुछ भी दुख मत करना , जगत में जो भी दिख रहा है उसे मिथ्या कर मानना । पति , पुत्र , नारी , पिता , माता सब कुछ अनित्य है। श्रीश्रीराधाकृष्ण का गोप गोपी समन्वित संसार ही नित्य है। अतः नित्य लीला में प्रवेश पाने के लिए अनित्य सम्बन्धों से मोह त्यागकर वैराग्य लेना होगा । यह जीव मात्र की प्रकृति है। एकमात्र सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ही सबके प्राणपति हैं।

    हे विष्णुप्रिये! तुम्हारा नाम विष्णुप्रिया है , अपना नाम सार्थक करो और श्रीकृष्ण का भजन करो।मिथ्या शोक का तुम त्याग कर दो।प्रियाजी बोलीं- स्वामिन ! मुझसे कृष्ण भजन नहीं हो सकेगा, मेरे कृष्ण तो तुम हो , तुम्हारे अलावा मैं किसी को जानती ही नहीं। श्रीगौरसुन्दर सन्यास ग्रहण करने में किसी का उत्साह न देखकर विषण्ण मन हो गए और मुख अवनत करके अश्रु विसर्जन करने लगे।श्रीगौरसुन्दर का विषण्ण मन देखकर विष्णुप्रिया अत्यंत दुखी हो उठी और इस प्रकार विचार करने लगी--

  हाय ! हाय ! मैं अपने सुख के लिए प्रियतम के सुख में बाधा बन रही हूं।ये तो सच्चे प्रेम की बात नहीं है। ऐसा विचारकर वे बोलीं- प्राणनाथ ! तुम दुख मत करो, तुमको दुखी देखकर मेरा हृदय फटता है। मैं तुम्हारा चाँद से मुख सदैव हंसता हुआ देखना चाहती हूं। मेरे भाग्य में जो दुख है , वह मैं स्वयम झेल लूँगी।

  यदि तुम जीवों के उद्धार के लिए सन्यास लेना चाह रहे हो तो भला मैं उसमे बाधा क्यों बनूँ। यह सुनकर प्रसन्न होते हुए श्रीगौरहरि ने विष्णुप्रिया को प्रेमालिंगन किया। प्रियतम का मधुर आलिंगन व आदर पाकर विष्णुप्रिया सब दुख भूल गयी। मातृभक्त शिरोमनी महाप्रभु ने शीघ्र ही सन्यास न लेकर कुछ मास आदर्श ग्रहस्थ के रूप में रहने का विचार किया , चूंकि शीघ्र सन्यास से उन पर दुखों का पहाड़ न टूट पड़े।

   अब श्रीगौरहरि प्रातः उठकर गंगास्नान को जाते हैं। वहां से आकर माँ को प्रणाम कर फिर विष्णुमन्दिर में जाकर ठाकुरजी की सेवा करते हैं। बालभोग करके आगन्तुकजनों तथा गरीबों को प्रचुर अन्न वस्त्र दान करते हैं। विष्णुप्रिया व शचीमाता से अति मधुर वार्तालाप करते हैं और अपने भक्तों सँग हास परिहास करते हैं।उनके भक्तगण उनका रसमय व हास विलासमय श्रीमुख देखकर जो कि महाप्रभु जी का सन्यास लेकर घर छोड़ने के संवाद को सुनकर स्वयम भी सन्यास लेने की बात सोच रहे थे। अब उन्होंने अपना संकल्प त्याग दिया।

    विष्णुप्रिया भी माँ की आज्ञा से श्रीगौरचन्द्र की प्रसन्नता के लिए विविध व्यंजन तयार करती हैं एवम उनकी प्रसन्नता के लिए विविध श्रृंगार करती हैं।

   *शचीमाता की अभिलाषा है कि निमाई को एक सोने जैसा लाल हो। किंतु इस अवतार में श्रीभगवान वैराग्य की शिक्षा देने के लिए आये हैं। वैराग्य उनका स्वधर्म है। इस बार महाप्रभु जी ने अपनी संतान के रूप में संकीर्तन को जन्म दिया है। उनका वंशधर श्रीहरिनाम संकीर्तन ही है। श्रीगौरहरि संकीर्तन पिता हैं अर्थात यह उनके कुल का प्रदीप है जो कि चिरकाल तक इस पृथ्वी पर कलिकाल के जीवों के अज्ञान अंधकार को दूर करेगा एवम जगतपिता श्रीविश्वम्भर श्रीगौरचन्द्र के कुल को उज्ज्वल करेगा*

क्रमशः

जय निताई जय गौर

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