नित्यानन्द अष्टकम

*श्रीकृष्णदास कविराज विरचित*

*श्रीनित्यानन्दाष्टकम्*

प्रेम घूर्णित, नयन पूर्णित, चञ्चल मृदुगति निन्दितं.
वदन मण्डल, चान्द निर्मल, वचन अमृत खण्डितम्।
असीम गुणगणे, तारिले जगजने, मोहे काहे करूँ वञ्चितं
जयति जय वसु-जानहवा-प्रिय, देहि मे स्वपदान्तिकम् ।।१।।

मिहिर-मण्डल, श्रवणेकुण्डल, गण्डमण्डले दोलितं.
किये निरूपम, मालतीर दाम, अंगे अनुपम शोभितम।
मधुर मधुमदे, मत्त मधुकर, चारुचौदिके चुम्बितं.
जयति जय, वसु-जानहवा-प्रिय, देहि मे स्वपदान्तिकम।।2।।

आजानुलम्बित, बाहु सुवलित, मत्त करिवर निन्दितं
भाय्या भाय्यावलि, गभीर डाकई, कणादिक भेदितम्।
अमर किन्नर, नाग नर लोक, सर्वचित्त सुदर्शितं,
जयति जय, वसु-जानहवा-प्रिय, देहि मे स्वपदान्तिकम्।।३।।

क्षणे हुँहुँकृत, लम्फ झंकृत, मेघ निन्दित गर्जितं,
सिंह डमरू, क्षीण कटितट, नील पट्टवास शोभितम्।
सो पहुँ धुनीतीरे, सघने धावई, चरण भरे नही कम्पितं,
जयति जय, वसु-जानहवा-प्रिय, देहि मे स्वपदान्तिकम्।।४।।

अवनी मण्डल, प्रेमे वादल, करल अवधौत धावितं
तापी दीन हीन, तार्किक दुर्जन, केह न भेल वञ्चितम् ।
श्रीपद पल्लव, मधुर माधुरी, भकत भ्रमर सुख प्रीतं
जयति जय बसु-जानहवा-प्रिय, देहि मे स्वपदान्तिकम्।।५।।

ओ मणि मञ्जीर, चारु तरलित, मधुर मधुर सुभासितं
अतुल रातुल, युगल पदतल, अमल कमल सुराजितम्।
तेजिया अमर, अवनी हिमकर, निताई पद नख शोभितं
जयति जय, वसु-जानहवा-प्रिय, देहि मे स्वपदान्तिकम् ।।६।।

यांहार भये, कलि भुजग, भागल भेल सभे हर्षितम्
तपन किरण जनु, तिमिर नाशई, तैछे करिल सुराजितम्।
दूरित भये क्षिति, अवहि आतुर, भार तार करु नाशितं
जयति जय, वसु-जानहवा-प्रिय, देहि मे स्वपदान्तिकम् ।।७।।

ईषत् हस हइते, झलके दामिनी, कामिनीगण मन मोहितं
सो पहुँधनीतीरे, ना जानिकार भावे, अवनि उपरे गिरितं ।
वचन बलईते, अधर कम्पई, वाहु तुलि क्षणे रोदितं
जयति जय, वसु-जाहवा-प्रिय, देहि मे स्वप्दान्तिकम ।।८।।

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