कबे गौर वने
कबे गौर-वने
कबे गौर-वने, सुरधुनी-तटे,
‘हा राधे हा कृष्ण’ बोले’।
काँदिया बेडा’ब, देहसुख छाड़ि’,
नाना लता-तरु-तले।।1।।
श्वपच-गृहेते, मागिया खाइब,
पिब सरस्वती-जल ।
पुलिने-पुलिने, गडा-गडी दिबो,
कोरि’ कृष्ण-कोलाहल।।2।।
धामवासी जने, प्रणति कोरिया,
मागिब कृपार लेश ।
वैष्णव-चरण-रेणु गाय माखि’,
धरि’ अवधूत-वेश।।3।।
गौड़-ब्रज-जने, भेद ना देखिब,
होइब ब्रज-बासी ।
धामेर स्वरूप, स्फुरिबे नयने,
होइब राधार दासी।।4।।
1. ओह! वह दिन कब आयेगा जब मैं सब प्रकार के शारीरिक सुखों का त्याग करके नवद्वीप धाम में गंगाजी के किनारे ‘‘हे राधे! हे कृष्ण!’’ पुकारते हुए लताओं और वृक्षों के नीचे भ्रमण करूँगा?
2. मैं चाण्डाल के घर से भिक्षा माँगकर अपना जीवन निर्वाह करूँगा और सरस्वती नदी का जल पीऊँगा। नदी के एक तट से दूसरे तट तक आनन्द में मैं लोट-पोट होता हुआ उच्चस्वर में ‘‘कृष्ण! कृष्ण!’’ का कीर्तन करूँगा।
3. मैं समस्त धामवासियों को प्रणाम करके उनकी कृपा के एक बिन्दु की याचना करूँगा। मैं वैष्णवों की चरणधूलि अपने पूरे शरीर पर मलूँगा और एक अवधूत का वेश धारण करूँगा।
4. अहो! कब मैं नवद्वीप और वृन्दावनवासियों के बीच भेद न देखकर एक व्रजवासी होऊँगा? इससे भगवान् के धाम का सच्चा स्वरूप मेरी आँखों के सम्मुख प्रकट होगा और मैं श्रीमती राधारानी की दासी बन पाऊँगा।
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