रसिकानन्द प्रभु वंशज श्यामानन्द प्रभु

गौड़ीय महात्मा पूज्यपाद श्री रासिकानंद प्रभु के वंशज पूज्यपाद श्री कृष्ण गोपालानंद जी द्वारा श्यामानंद चरित्र और श्री हित चरण अनुरागी संतो द्वारा व्याख्यान ,आशीर्वचनों  पर आधारित  । कृपया अपने नाम से प्रकाशित न करे ।

भाग १ जन्म और बाल्यकाल :
श्री गौरसुन्दर चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं और संप्रदाय के प्रचार हेतु गौड़ीय संप्रदाय में अनेक सिद्ध संतो का प्राकट्य हुआ है । श्री श्यामानंद प्रभु का जन्म सन् १५३५ ई को चैत्र पूर्णिमा के दिन पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के अंतर्गत धारेंदा बहादुरपुर ग्राम में हुआ था । इनके पिता का नाम श्री कृष्ण मंडल और माता का नाम दुरिका देवी था । इनके पिता श्री कृष्ण मंडल का जन्म छः गोपो के वंश में हुआ था  । इनके बहुत से पुत्र और पुत्रियां थी परंतु धीरे धीरे वे सब श्यामानंद प्रभु के जन्म से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए अतः श्री कृष्ण मंडल ने अपने इस पुत्र (श्यामानंद प्रभु ) का नाम दुखी रख दिया ।

सभी ज्योतिष के ज्ञाता और संत उस बालक को देखकर कहते थे की यह अवश्य कोई महान संत होगा । देखने में यह बालक ऐसा सुंदर था की जो भी उसे देखता वह देखता ही रह जाता । धीरे धीरे बालक बड़ा हुआ और पिता ने उसे संस्कृत भाषा और शास्त्रो का अध्ययन कराने के लिए भेजा । बहुत ही कम समय में बालक को श्लोक कंठस्थ हो जाते और ऐसी तीक्ष्ण बुद्धि देख कर सभी विद्वानों को बहुत आश्चर्य होता था । बंगाल ओड़ीसा क्षेत्र में उस समय श्री गौरहारी और नित्यानंद प्रभु के प्रभाव से सर्वत्र कृष्ण प्रेम और संकीर्तन की बाढ़ बह रही थी ।

आस पास के वैष्णवो के श्रीमुख से श्री गौरहारी और नित्यानंद प्रभु के गुणगान सुनकर बालक दुखी को गौरहारी के चरणों का आश्रय लेने की तीव्र इच्छा होने लगी । बालक का मन सदा श्री गौर चरणों में लगा रहने लगा था ।  इनके पिता श्री कृष्ण मंडल भी भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त थे । जब उन्होंने देखा की बालक दुखी का मन नित्य श्री गौरहारी और नित्यानंद प्रभु के नाम संकीर्तन और गुणगान करने में लगा रहता है तब उन्होंने बालक से कहा – बेटा तुम्हे अब किसी अच्छे वैष्णव संत से मन्त्र दीक्षा प्राप्त करके जीवन को सफल बनाना चाहिए ।

पिता की बात सुनकर बालक न कहा – पूज्यपाद श्री हृदय चैतन्य प्रभु  मेरे गुरुदेव है , वे अम्बिका कलना में विराजते है । पूज्यपाद श्री गौरीदास पंडित उनके गुरुदेव है । श्री गौरसुंदर चैतन्य प्रभु और श्री नित्यानंद प्रभु सदा उनके घर में विराजमान रहते है । यदि आप आज्ञा देंगे तो मै उनके पास जाकर उनसे हरिनाम का प्रसाद ग्रहण करूँ । पिताजी ने कहा – बेटा ! वह तो बहुत दूर है ,तुम वहाँ कैसे पहुँचोगे ? बालक बोला – पिताजी ! यहां आस पास के बहुत लोग शीघ्र ही गौड़ – देश को गंगा स्नान के निमित्त जायेंगे । जब जब वह जाने वाले होंगे ,मै भी उनके साथ चला जाऊंगा ।

श्री गुरुदेव की प्राप्ति:

पिता ने बहुत सोच विचार करके अंत में बालक को जाने की आज्ञा प्रदान कर दी । कुछ ही दिन बाद आस पास के लोग गौड़ देश में गंगा स्नान के निमित्त जाने लगेे ।बालक दुखी भी माता पिता का आशीर्वाद लेकर उनके साथ चल दिए । रास्ते में नवद्वीप और शांतिपुर होकर वे अम्बिका कलना में पहुंचे । वहाँ पहुँचनेपर स्थानीय निवासी लोगो से श्री गौरीदास पंडित जी के घर का पता पूछा और वहाँ पर आ गए । श्री गौरीदास पंडित के घर पर श्री गौरांग महाप्रभु के मंदिर में बालक दुखी को श्री हृदय चैतन्य प्रभु के दर्शन हुए । उन्होंने चरणों में दण्डवत् प्रणाम् निवेदन किया और हाथ जोड़ कर खड़े हो गए ।

श्री हृदय चैतन्य प्रभु ने पूछा – बेटा तुम कौन हो ?
बालक दुखी बोला – मै बहुत दूर धारेंदा बहादुरपुर ग्राम से आया हूँ । मेरा जन्म छः गोपो के कुल में हुआ है । मेरे पिता का नाम श्री कृष्ण मंडल है और मेरा नाम दुखी है । आपके श्री चरणो की सेवा मिले इसी इच्छा से आपके पास आया हूं । आप मुझपर कृपा करे। बालक की मीठी वाणी सुनकर श्री हृदय चैतन्य प्रभु को बहुत हर्ष हुआ । उन्होने बालक को सेवा में अपने पास रख लिया । बालक बड़े प्रेम से गुरुदेव की सेवा किया करता था । श्री हृदय चैतन्य प्रभु ने फाल्गुनी पूर्णिमा (१५५४) के शुभ अवसर पर बालक दुखी को दीक्षा देने का निश्चय किया । श्री कृष्ण मंत्र का प्रसाद प्रदान करके गुरुदेव ने बालक का नाम दुखी कृष्ण दास रख दिया ।

गुरुदेव की सेवा दुखी कृष्णदास बहुत अच्ची तरह से करते थे , नित्य नाम जप , संकीर्तन ,हरी कथा का श्रवण परंतु फिर भी उनको ऐसा लगता था की कुछ अधूरा सा है । एक दिन उन्होंने श्री गुरुदेव से भारत के पवित्र तीर्थो की यात्रा करने की अनुमति मांगी । गुरुदेव के अनुमति देने पर वे ८ साल तक तीर्थो का सेवा करके १५६२ में दुखी कृष्ण दास अपने गाँव पहुंचे और माता पिता के दर्शन किये । माता पिता के मन में पुत्र का विवाह कराने की इच्छा थी , जो उन्होंने दुखी कृष्ण दास के सामने प्रकट की । दुखी कृष्णदास ने माता पिता की इच्छा से गौरांगी दासी नामक कन्या से विवाह कर लिया ।

उनके मन में सदा श्री प्रिय लाल जी के लीलाओ का स्मरण होता रहता और एक दिन वृन्दावन का विरह सहन न कर पाने की वजह से दुखी कृष्णदास अधिक दिन तक अपने गाँव में नहीं रह पाये और गुरुदेव से आज्ञा मांगने अम्बिका कलना पहुंचे ।  उन्होंने कुछ दिन तक गुरुदेव की सेवा में रहना का निश्चय किया। गुरुदेव ने दुखी कृष्णदास को श्री गौर नित्यानंद की छोटी से फुलवारी के लिए गंगा जी से जल लाने की सेवा प्रदान कर दी । नित्य प्रति कृष्णदास अपने सरपर सैकड़ो मिट्टी के भारी घड़े भरकर जल लाने की सेवा करने लगे । सेवा करते करते उनका मन सदा हरिनाम की मस्ती में मग्न रहता और उन्हें यह तक पता नहीं चला की उनके सरपर घाव हो गया है । धीरे धीरे घाव और बढ़ता गया और उसमे कीड़े तक लग गए ।

सेवा में निष्ठा :

एक दिन सेवा करते करते कृष्णदास जी के सर का एक कीड़ा पृथ्वी पर गिरा जहां पर गुरुदेव खड़े थे । गुरुदेव ने कृष्णदास जी के सर का निरीक्षण किया तो पाया की इसको तो घाव हो गया है और उसमे कीड़े तक पड गए है । श्री गुरुदेव ने सोचा की इतना गहरा घाव होनेपर भी इसने इसने किसी को कुछ भी नहीं बताया क्योंकि यदि वह ऐसा करता तो उससे यह सेवा छीन जाती , यह तो पक्का शिष्य है। गुरुदेव का हृदय भर आया और उन्होंने अपना करकमल श्री कृष्णदास जी के घाव पर रख दिया हाथ रखते ही एक क्षण में घाव भर गया और कीड़े गायब हो गए ।

श्री कृष्णदास जी को श्री राधा कृष्ण की सेवा का अधिकारी जानकार गुरुदेव ने उन्हें श्री वृन्दावन भेजने का निश्चय किया । श्री गुरुदेव ने आज्ञा दी की ब्रज में जाकर षड् गोस्वामियों के भक्ति शास्त्रो का अध्यन श्रीपाद जीव गोस्वामी के आशश्र में करना ,तुम्हे श्री युगल चरणों की प्राप्ति होगी । गुरुदेव ने उनके कुछ सखाओ और परिचितों के लिए दुखी कृष्णदास के साथ प्रेम सन्देश भी भेजे और साथ साथ यह भी कहा की श्री ब्रज में जाकर षड् गोस्वामीयों को उनकी ओर से दण्डवत् प्रणाम् भी निवेदन करें । श्री दुखी कृष्णदास प्रथम नवद्वीप धाम पहुँचे । वहाँ श्री जगन्नाथ मिश्र (श्री महाप्रभु के पिता )के पुराने घर का पता पूछ कर उनके स्थान पर गए । वहाँ पर बूढी अवस्था के श्री ईशान ठाकुर का उन्हें दर्शन हुआ । श्री ईशान ठाकुर महाप्रभु के घर के सेवको में से एक थे ।

श्री महाप्रभु सहित उनके परिकर में लगभग सभी भगवान् के धाम को पधार चुके थे परंतु श्री ईशान ठाकुर अभी तक विराजमान थे  और दुखी कृष्णदास को उन्होंने आशीर्वाद भी दिया था । आगे यात्रा करते करते दुखी कृष्णदास गया धाम पहुँचे और वहांपर उन्होंने श्री विष्णु के दर्शन किये । इसी स्थान पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने गुरु श्री इश्वरपुरी से हरिनाम दीक्षा ग्रहण की थी यह लीला स्मरण करके दुखी कृष्णदास को अपार हर्ष हुआ । गया से निकल कर दुखी कृष्णदास काशी धाम पहुंचे और वहाँ पर उन्होंने श्री तपन मिश्र, श्री चंद्रशेखर आदि अनेक भक्तो के दर्शन कर उनसे शुभाशीर्वाद प्राप्त किये और अंत में मथुरा आ पहुंचे । उन्होंने गोकुल जाकर नन्दभवन के दर्शन किये और उसके बाद श्री बरसाना धाम के दर्शन किये ।

श्री गिरिराज गोवर्धन और यावत् ग्राम के दर्शन करते हुए वे राधाकुण्ड क्षेत्र में पधारे । श्री कृष्णदास जी वहांपर श्री राधा गोविंद, श्री राधा गोपीनाथ और श्री राधा मदन मोहन जी मंदिरो के दिव्य दर्शन प्राप्त करकेे आनंद में झूम उठे । राधाकुण्ड में ही उन्हें श्रीपाद रघुनाथदास गोस्वामी और श्रीपाद कृष्णदास कविराज गोस्वामी के दर्शन हुए । श्रीपाद रघुनाथ दास जी ने उन्हें श्रीपाद जीव गोस्वामी की भजन कुटीर का रास्ता बताकर वहाँपर भेज दिया ।

श्रीपाद जीव गोस्वामी से भेट :

श्रीपाद जीव गोस्वामी जी की भजन कुटीर पर आकर कृष्णदास जी ने दण्डवत् निवेदन किया और अपना परिचय दिया । श्रीपाद जीव गोस्वामी यह बात सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए की कृष्णदास को श्री हृदय चैतन्य ने उनके पास भेजा है । जब श्री जीव गोस्वामी के मार्गदर्शन में कृष्णदास भक्ति साहित्यों का अध्ययन करने लगे तब उन्हें लगा की सभी रसो में माधुर्य रास की उपासना भगवान् से सम्बन्ध स्थापित करने में सर्वोपरि है । धीरे धीरे श्री कृष्णदास जी  का मन प्रिय प्रियतम की निकुंज रस सेवा की और खींचता गया । उन्होंने जीव गोस्वामी को माधुर्य रसोपासना के रहस्य को विस्तार से समझाने की प्रार्थना की ।

जीव गोस्वामी की कृपा से धीरे धीरे कृष्णदास को ब्रज रज माहात्म्य,निकुंज रस लीला एवं ब्रज की विशेष उपासना पद्धति का ज्ञान होने लगा । एक दिन श्री जीव गोस्वामी ने श्री कृष्णदास जी को श्री सेवा कुंज की गलियों की सफाई करने की सेवा प्रदान कर दी । नित्य प्रति श्री कृष्णदास जी सेवा कुंज अपने खुरपा, सोहनी लेकर जाते और सम्पूर्ण क्षेत्र की सफाई करते । श्री कृष्णदास जी की वृन्दावन रज में बडी निष्ठा थी । यह वृंदावन की रज कोई साधारण रज नहीं है , रसिक संतो की वाणी में प्रमाण मिलता है की जो वृंदावन रास के रसिक है वे तृषा से मर जायेंगे परंतु जिस जल को ब्रज रज का स्पर्श न हुआ हो वो जल नहीं ग्रहण करेंगे । स्वामी श्री हरिदास जी ने अपनी लीला में यह प्रकट किया है की वृंदावन रज का एक एक कण परास मणि के सामान है ।

रसिको ने प्रभु से यही माँगा है –
मोहे मोर जो बनाओ , तो बनाओ वृन्दावन को ।
नाच नाच चहक चहक ,तुम्ही को रिझायुंगो ।।
मोहे बन्दर बनाओ , तो बनाओ वृन्दावन को  ।
डाल डाल कूद कूद , तुम्ही को रिझायुंगो   ।।
मोहे भिछुक बनाओ ,तो बनाओ बृज मंडल को  ।
मांग मांग टूक , बृजवासिन सो खायूंगो  ।।
कोकिला करो या कीट , करो कालिंदी के तीर  ।
आठों याम श्याम श्याम,श्याम श्याम गायुंगो ।।

रसिको के जीवन में तो ऐसा समय आया था जब यवनों का आक्रमण हुआ । राधावल्लभ जी कामवन चले गए ,बांके बिहारी जी भरतपुर चले गए परंतु रसिको ने वृंदावन नहीं छोड़ा । यवनों ने एक एक अंग से सौ टुकड़े किये परंतु वृंदावन नहीं छोड़ा ।

खण्ड खण्ड हो जाये तन,अंग अंग सत टूक।
वृन्दावन मत छांड़ियो छांड़वो है बड़ी चूक ।।

जब मुक्ति भगवन से पूछती है की मै सब जीवो को मुक्त करती हूं परंतु मेरी मुक्ति किस प्रकार होगी? श्री कृष्ण कहते है अपने मुख से-

पड़ी रहो या गैल में , साधु संत चली आये ।              ब्रज राज उड़ मस्तक लगे, मुक्ति मुक्त है जाए ।।

रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :

एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ

धर्म सम्राट श्री स्वामी करपात्री जी महाराज कहा करते थेभगवान के सभी धामो की महिमा एक सी है, पर श्रीब्रज की महिमा अन्य धामों की रज की महिमा से अधिक है ! अन्य धामों में भगवान अपने चरण कमलो से चले है, खेले कूदे है, जिस से वहां की  भूमि  निश्चित  रूप  से  धन्य  हुई है परंतु ब्रजधाम में चलने फिरने , खेलने कूदेने की बात ही क्या , यहाँ की एक एक रज को श्री कृष्ण ने चाट चाट कर उसे परम पुनीत बना दिया है।  कृष्ण ने यहां की मिट्टी अपने श्रीमुख में रखी है ।

श्री ब्रज रज का माहात्म्य इस कथा के द्वारा भी ज्ञात होता है :

एक बार प्रयाग राज का कुम्भ योग था। चारों ओर से लोग प्रयाग-तीर्थ जाने के लिये उत्सुक हो रहे थे।श्रीनन्द बाबा तथा उनके गोष्ठ के भाई-बन्धु भी परस्पर परामर्श करने लगे कि हम भी चलकर प्रयाग-राज में स्नान-दान-पुण्य कर आवें किन्तु श्रीकृष्ण को यह कब मंज़ूर था। प्रातः काल का समय था श्रीनन्द बाबा वृद्ध गोपों के साथ अपनी बैठक के बाहर बैठे थे कि तभी सामने से एक भयानक काले रंग का घोड़ा सरपट भागता हुआ आया। भयभीत हो उठे सब कि कंस का भेजा हुआ कोई असुर आ रहा है।

वह घोड़ा आया और ज्ञान-गुदड़ी वाले स्थल की कोमल-कोमल रज में लोट-पोट होने लगा। सबके देखते-देखते उसका रंग बदल गया, काले से गोरा, अति मनोहर रूपवान हो गया वह। श्रीनन्दबाबा सब आश्चर्यचकित हो उठे। वह घोड़ा सबके सामने मस्तक झुका कर प्रणाम करने लगा। श्रीनन्द बाबा ने पूछा- आप कौन है ? यहां कैसे आये और इस रज में लौटकर काले से गोरे कैसे हो गये?

वह घोड़ा एक सुन्दर रूपवान विभूषित महापुरुष रूप में प्रकट हो हाथ जाड़ कर बोला-  मैं तीर्थराज प्रयाग हूँ। विश्व के अच्छे बुरे सब लोग आकर मुझमें स्नान करते हैं और अपने पापों को मुझमें त्याग कर जाते हैं, जिससे मेरा रंग काला पड़ जाता है। अतः मैं हर कुम्भ से पहले यहाँ श्रीवृन्दावन आकर इस परम पावन स्थल की धूलि में अभिषेक प्राप्त करता हूँ। मेरे समस्त पाप दूर हो जाते हैं। निर्मल-शुद्ध होकर मैं यहाँ से आप व्रजवासियों को प्रणाम कर चला जाता हूँ। अब मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

इतना कहते ही वहाँ न घोड़ा था न सुन्दर पुरुष। श्रीकृष्ण बोले- बाबा! क्या विचार कर रहे हो? प्रयाग चलने का किस दिन मुहूर्त है? नन्दबाबा और सब व्रजवासी एक स्वर में बोल उठे- अब कौन जायेगा प्रयागराज? प्रयागराज हमारे व्रज की रज में स्नान कर पवित्र होता है, फिर हम वहाँ जाकर क्या करे?सबने अपनी यात्रा स्थगित कर दी।

सेवाकुंज में श्री राधारानी का नुपुर प्राप्त होना और राधारानी की विशेष कृपा :

श्री दुखी कृष्णदास जी अपने हाथो पैरो पर झुककर , अच्छी प्रकार सेवा सफाई किया करते थे। सम्पूर्ण शरीर ब्रज रज से ढका रहता था । इस प्रकार सेवा करते करते पूरे १२ वर्ष बीत गए परंतु श्री कृष्णदास जी ने कभी भी जीव गोस्वामी जे से प्रश्न नहीं पूछा की हमें और कोई सेवा न प्रदान इस प्रकार केवल सेवा कुंज में झाड़ू लगाने की सेवा क्यों प्रदान की गयी है? कभी कभी श्री कृष्णदास जी को लाडली जी के चरण चिन्ह का दर्शन हो जाता और कभी श्री लाल जी के चरणों का दर्शन हो जाता । मन ही मन नित्य श्री लाडली जी को पुकारा करते थे और कहा करते की चरण चिन्हों का दर्शन तो आपकी कृपा से होता है परंतु कब वह दिन आएगा जब प्रत्यक्ष चरणों के दर्शन होंगे  ।

श्री लाडली जी इस भाव भरी प्यारी सखी को दर्शन तो देना चाहती है परंतु श्री लाडली जी स्वयं जाकर दर्शन दे यह उनके हाथ में नहीं है ,उनकी सखियों के हाथ में है । जब तक श्री ललिता (श्री स्वामी हरिदास ), श्री विशाखा (श्री हरिराम व्यास ), श्री वंशी (हित महाप्रभु ) आदि की इच्छा नहीं हो तब तक श्री लाडली जी कैसे जाकर दर्शन दे ? श्री राधारानी के मन में एक युक्ति आयी , उन्होंने नित्य रास के समय जानबूझ कर अपने चरण का एक इंद्रनील मणियों से जटित नुपुर सेवा कुंज की गलियों में एक अनार के पेड़ निकट गिरा दिया ।

प्रातः काल जब श्री दुखी कृष्णदास जी सोहनी सेवा कर रहे थे तब उन्हें एक दिव्य नुपुर के दर्शन हुए । उस दिव्य नुपुर से प्रकाश निकल रहा था, उन्होंने नूपुर को उठा कर मस्तक से लगाया । मस्तक से लगाते ही उनके शरीर में सात्विक भावों का उदय हो गया, आनंद की एक लहर से चल गयी भीतर में  । वे समझ गये कि यह अवश्य कोई दिव्य नुपुर है । वे नूपुर को बार बार कभी सर से , कभी ह्रदय से , कभी स्नेह कि दृष्टि से देख देख कर चूमने लगे ।

उन्होंने उस नुपुर को अपने उत्तरीय वस्त्र में बाँध कर रख दिया और पुनः सेवा में लग गए । नित्य रास लीला के समय श्री ललिता आदि सखियों ने देखा की उनके दक्षिण (बाएँ) चरण का नुपुर नहीं है । संत जन इस नुपुर का नाम ‘मंजुघोषा’ बताते है । ललिता जी ने राधा जी से पूछाँ कि आपके बाँए पैर का नुपुर नहीं है ।राधा रानी जू ने कहा – ललिते लगता है मेरा नूपुर कहीं गिर गया है , सेवाकुंज में जाकर देखो वहां तो नही है  । ललिता समझ गयी कि राधा रानी ने कोई  लीला करनी है इसलिए नूपुर सेवाकुंज में छोड़ आई है । श्री ललिता सखी वृद्ध ब्राह्मणी के वेश में सेवाकुंज गयी और वहां कृष्णदास से पुछा – बाबा आपने यहाँ कहीं नूपुर देखा है? मेरी बहु फूल लनेे गयी थी  परंतु पास में उसे शेर दिखाई पड़ा इसीलिए डर के  सुरक्षित स्थान पर भाग गयी । इसी बीच उसका नुपुर उसके पैर से निकल के गिर पड़ा होगा । यदि तुम्हे मिला हो तो हमें दे दो ?

उस वृद्ध ब्राह्मणी ने अपना नाम राधदासी ,गोत्र कान्य कुब्ज और निवास स्थान मथुरा का यावत ग्राम बताया ।श्री कृष्णदास जी तो संत है , असत्य कैसे बोले ? उन्होंने कहा – हाँ मुझे मिला तो है एक दिव्य नुपुर ,पर वह नूपुर तुम्हारा नही है । जिसे देखते ही मन में अद्भुत आनंद हो गया,  स्पर्श करते ही प्रेम समुन्द्र में गोते खाने लगा, यह कोई साधारण नुपुर नहीं है , जिसका है उसी को दूंगा । आप अपनी बहु को यहां लेकर आओ, उसके चरणों में ऐसा ही दूसरा नुपुर देखकर दे दूंगा । श्री ललिता जी ने बहुत मानाने का प्रयत्न किया परंतु श्री दुखी कृष्णदास जी नहीं माने ।

श्री लाडली लाल जी के चरणों का भजन करते करते जो भाव प्राप्त होता है जिसे रसिक जन सखी भाव कहते है वो भाव चतुरता की सीमा है । ब्रज के रसिको ने तो इतना तक कहा है –

हम गुरु श्यामा श्याम के ,हम शिष्य श्याम श्याम के।

नुपुर के बिना नित्य रास लीला कैसे हो ? श्री प्रिया प्रियतम के जो आभूषण है वो भी नित्य आभूषण है , नित्य सहचारियां है । श्री प्रिया प्रियतम जो भी अपने श्रीअंग पर धारण करते है वो प्रेम स्वरुप है , रस स्वरुप है । किसी अन्य भाव का ,अन्य पदार्थ का वहाँ पर प्रवेश नहीं है ।

श्री राधा जी गुप्त रूप में वहीं कुंजो में अपनी सखियां विशाखा , वृंदा , इन्दुलेखा आदि के साथ खडी थीं । जब कृष्णदास जी नहीं माने तब श्री ललिता सखी ने कृष्णदास से कहा – बाबा आप इस नुपुर के बदले कोई वरदान मांग लो ,पर नुपुर लौट दो । आपने ठीक कहा था , यह नुपुर साधारण नहीं है । यह नुपुर श्री राधारानी जू का है और मै श्री स्वामिनी जू की सखी ललिता हूं । श्री कृष्णदास जी ने ललिता साखी से अपने वास्तविक स्वरुप का सर्शन कराने की प्रार्थना करने पर ललिता जी ने अपने दिव्या रूप में दर्शन दिया । श्री कृष्णदास जी ने ललिता जी के चरणों में प्रार्थना की के उन्हें गोलोक में श्री प्रिया जी की निकुंज लीला में नित्य सेवा प्राप्त हो ।

श्री ललिता जी ने कहा – यह तो केवल इस भौतिक शरीर के छुटने पर ही संभव है । इसपर कृष्णदास जी ने ललिता जी के चरण पकड़ कर विनती करते हुए कहा की ठीक है ,परंतु आप कृपा कर के हमें स्वामिनी जू के चरणों का दर्शन करवा दीजिये । श्री ललिता जी स्वामिनी जू सेे कहा – स्वामिनी जू अब तो आपको इस सखी को दर्शन देना ही पड़ेगा । राधा जी बडी प्रसन्न हुई और ललिता जी से बोली –  दुखी कृष्णदास की सेवा से हम अत्यंत प्रसन्न है ।

श्री प्रिया जी ने आगे कहा – ललिता जू ! आप  कृष्णदास को ललिता कुडं में स्नान कराओ और उन्हें सिद्ध राधा मंत्र प्रदान करो । जब ये कुंड में स्नान कर लेंगे और दिव्य मंजरी स्वरुप धारण कर लेगे तब ये मेंरे दर्शन के पात्र बन जाएगें । श्री ललिता जी ने कृष्णदास जी के कान में षड् ऐश्वर्य पूर्ण पंचदशाक्षरी (१५ अक्षरी ) श्री राधा मंत्र प्रदान किया और उस मंत्र को जपते हुए कृष्णदास राधा कुंड में स्नान करने गए ।  श्री कृष्णदास जी के कुण्ड में स्नान करते ही वे दिव्य मंजरी  सखी के वेष में बाहर आये । उस दिव्य मंजरी का शरीर स्वर्ण की भाँती चमक रहा था ।

श्री ललिता जी अपने साथ उस मंजरी को लेकर गुप्त वृंदावन में राधा रानी के निकुंज मंदिर में प्रवेश कर गयी । श्री राधारानी के दर्शन पाकर हृदय अत्यानंद से भर गया । श्री राधारानी ने अपना चरणों का दर्शन कराते हुए कहा – देख सखी ! ऐसा ही दूसरा नुपुर मिला है ना तुम्हे ? दो अब हमारा नुपुर । सखी कहने लगी – हे स्वामिनी जू ! आपने इतनी बना दी तो अब क्यों कसर छोड़ती है आप ? आपकी कृपा से रसिको को जिस भाव की प्राप्ति होती है , उस भाव की संतुष्टि केवल चरण दर्शन से नहीं होती । आप कृपा कर के अपने श्री चरणों की सेवा प्रदान करे ।

श्री राधारानी भाव समझ गयी और अपना चरण आगे कर दिया । मंजरी सखी ने अपने नयनों के जल से प्रिया जी के चरणों का अभिषेक कर दिया और अपने हाथो से उनके चरणों में नुपुर पहनाने की प्रार्थना की ।  नूपुर धारण कराने से पहले ललिता जी ने प्रिय जी की आज्ञा से नुपुर को मंजरी सखी के ललाट से स्पर्श कराया ।नूपुर के स्पर्श से पूर्व का जो तिलक था वह तिलक नूपुर आकार के तिलक में परिवर्तित हो गया । राधारानी ने स्वयं अपने करकमलों द्वारा कुमकुम ,चंदन और कपूर को मधु के साथ चंद्रकांत नामक पत्थर पर घिस कर उस तिलक के मध्य में एक उज्ज्वल बिंदु लगा दिया ।

इस तिलक को ललिता सखी ने ‘श्याम मोहन तिलक’ का नाम दिया और कहा की तुमने श्रीप्रिया जी को अपनी सेवा से प्रसन्न करके बहुत आनंद प्रदान किया है अतः तुम्हे अब संसार में श्यामानंद नाम से जाना जायेगा । स्वर्ण जैसी कांति होने के कारण विशाखा सखी ने उसे कनक मंजरी यह नाम प्रदान किया । श्री प्रिया जी ने कहा – हे कृष्णप्रिया ! क्योंकि तुम मधुसुदन को सुख प्रदान करने तथा मेरे नयनों को भी सुख प्रदान करने वाली हो इसलिए तुम मुझे ललिता और विशाखा जैसी ही प्रिय हो । पूर्व में तुम कृष्णप्रिया नाम की मेरी सहचरी ही थी । उसके बाद ललिता और विशाखा ने कहा – श्री राधारानी की विशेष कृपा से इस कनक मंजरी को यह दिव्य नुपुर प्राप्त हुआ अतः यह सखी अत्यंत सौभाग्यशालिनी है । श्री वृंदावन की रज का प्रताप ही ऐसा है ।

श्री प्रिया जी के चरणों में श्यामा सखी ने अपने हाथो से नुपुर धारण कराया । राधारानी ने श्यामानंद जी को पुनः मृत्युलोक में जाने का का जब आदेश दिया तब वे स्वामिनी जी से विरह की कल्पना करते ही रोने लगे । वे बार बार श्री प्रिय जी से अपने चरणों की सेवा से अलग न करने की विनती करने लगे । तब राधारानी का हृदय दया से भर आया और उनके हृदयकमल से अपने प्राण-धन श्रीश्यामसुंदर का एक दिव्य विग्रह  प्रकट हुआ ।श्री प्रिया जी ने ललिता सखी के माध्यम से श्यामानंद को यह श्रीविग्रह प्रदान किया । संतो का मत है की यह घटना १३ जनवरी १५७८ की वसंत पंचमी वाले दिन की है।

श्री प्रिया जी ने श्यामानंद जी से कहा – जब तक तुम जीवित रहोगे, तब तक प्रेम से श्यामसुंदर के इस श्रीविग्रह की सेवा करते रहना । ऐसा करने से तुम्हे मेरे विरह का ताप नहीं सताएगा । मृत्युलोक में अपना कार्य पूर्ण हो जाने पर तुम नित्य गोलोक धाम में मेरे चरणों की सेवा प्राप्त करोगे । श्री प्रिय जी ने स्वयं कहा की इस दुर्लभ श्री विग्रह की कृपा से कलिमल से ग्रसित जीवो का सहज ही उद्धार हो जायेगा और यह सब तुम्हारी सेवा का प्रताप है । तुम न होते तो यह अद्भुत श्यामसुंदर का श्रीविग्रह कलियुगी जीवो के लिए कैसे सुलभ हो पाता ?

ललिता सखी ने उसके बाद श्यामानंद जी से कहा – इस दिव्य लीला के विषय में श्री जीव गोस्वामी के अतिरिक्त किसीसे भी कहना नहीं । यदि तुमने ऐसा किया तो तुम अल्पायु हो कर और श्री प्रिजा जी की कृपा से वञ्चित हो जाओगे । मैंने तुम्हे जो सिद्ध राधा मन्त्र प्रदान किया है उसके स्मरण मात्र से तुम्हे श्री प्रिया जी के दर्शन किसी भी समय सुलभ होंगे । यदि कोई विपत्ति आये तो उस मन्त्र का स्मरण कर लेना । इतना कहकर श्री ललितादि सखियां और  राधारानी अंतर्धान हो गए । श्री राधा जी की इच्छा से श्यामानंद जी पुनः अपने पुरुष रूप में आ गए । उस दिव्य श्यामसुंदर के श्रीविग्रह को सर पर रख कर श्यामानंद जी श्रीपाद जीव गोस्वामी की कुटिया पर आये ।

श्री जीव गोस्वामी ने देखा की दुखी कृष्णदास जी के वक्ष स्थल पर श्यामानंद लिखा हुआ है, राधारानी के चरण आकार और मध्य में उज्जवल बिंदु का नवीन तिलक है , अत्यंत सुंदर श्यामसुंदर का श्रीविग्रह है, उनका लोहे का खुरपा स्वर्ण के खुरपे में परिवर्तित हो गया है ,शरीर स्वर्ण की भाँती चमक रहा है ,आँखों से अश्रुपात हो रहा है । जीव गोस्वामी ने पूछा – कृष्णदास ! तुम इतने समय से कहा थे ? तुम्हारा साधारण शरीर सुंदर स्वर्ण कांतिमय कैसे हो गया ? कृष्णदास जी बोले – मै इतने समय से सेवा कुञ्ज में ही था और यह शरीर की स्वर्ण कांति आपकी कृपा से ही मुझे प्राप्त हुई है । श्री जीव गोस्वामी ने कहा – यह नया तिलक तुम्हे किसने प्रदान किया ? यह सुंदर श्रीविग्रह तुम कहा से लाये ?

अवश्य ही तुमपर श्री लाल जू अथवा श्री लाली जू की कृपा हुई है । तुम सब कुछ सत्य कहो । श्री कृष्णदास ने एकांत स्थान में ले जाकर जीव गोस्वामी के कान में सारी बात कही। जीव गोस्वामी आनंद अतिरेक से नाचने लगे ,उनके आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । कृष्णदास को आलिंगन प्रदान करते हुए उन्होंने कहा – तुम बहुत भाग्यशाली हो , राधारानी के विशेष कृपापात्र हो । केवल इस लीला के स्मरण मात्र से मेरे शरीर में कम्पन पैदा हो रही है । श्री कृष्णदास जी बोले – यह सब आपकी ही कृपा से संभव हुआ है । आपने ही दास को सेवा कुञ्ज की गलियों में झाड़ू लगाने की सेवा प्रदान की । आपकी कृपा से ही दास को प्रिया जी का नुपुर प्राप्त हुआ और राधारानी जी के दर्शन सुलभ हुए । आप जैसे रसिक संत की कृपा और इस ब्रजरज के प्रताप का ही यह परिणाम है ।

श्री कृष्णदास जी ने  जीव गोस्वामी से विनती करते हुए कहा की आप इस बात को किसीसे भी ना कहे । यदि कोई पूछे तो कृपा कर के यही कहे की – यह सब कृष्णदास जी के गुरुदेव भगवान् का ही कृपा प्रसाद है । उसके बाद श्री जीव गोस्वामी ने सबको यह कह दिया की कृष्णदास जी के गुरुदेव की कृपा और इच्छा से अब उनका नाम श्यामानंद है और उनके इस तिलक का नाम श्यामनंदी तिलक । श्री श्यामानंद जी ने प्रिया जी के द्वारा प्रदान किया हुआ भगवान् का श्री विग्रह अपने भजन कुटीर में पधरा दिया और नित्य प्रेम से उसकी सेवा करने लगे ।

धीरे धीरे नए तिलक और नाम की बात समस्त ब्रज मंडल और बहार भी प्रसिद्ध होने लगी ।

श्री श्यामनंदी तिलक और नए नाम की गुरुदेव हृदय चैतन्य द्वारा परीक्षा :

एक दिन गौड़ देश(बंगाल) से कुछ वैष्णव वृंदावन दर्शन और गोवर्धन परिक्रमा को पधारे । वे सब श्यामानंद का नया तिलक एवं नाम देख कर आश्चर्य में पड गए । गौड़ देश वापस लौटने पर उन्होंने श्री हृदय चैतन्य (कृष्णदास के गुरुदेव) को बताया की उनके शिष्य कृष्णदास ने अपनी परंपरा और गुरु का त्याग कर अपना नाम श्यामानंद रख लिया है और नया तिलक भी धारण कर लिया है ।इस तिलक को ब्रज में श्यामनंदी तिलक कहा जा रहा है ।उन यात्री वैष्णवो की बात सुनकर श्री हृदय चैतन्य को शिष्य का ऐसा अवैष्णव व्यवहार जानकार क्रोध आया । हृदय चैतन्य अपने साथ ६४ महंत, १२ गोपाल और अन्य कुछ वैष्णवो को साथ लेकर वृंदावन के धीर समीर घाट पर पहुंचे । सही बात का निर्णय करने के लिए कल्प कुंज में वैष्णवो की एक बड़ी सभा आयोजित की गयी ।

सभी वैष्णवो की उपस्तिथि में हृदय चैतन्य ने श्यामानंद जी से पूछा – ऐसी क्या बात हो गयी की तुमने अपने गुरुदेव का त्याग करके नया तिलक और नाम धारण किया? हम तुम्हारे इस अवैष्णव व्यवहार से दुखी है ।किसकी आज्ञा से तुमने ऐसा कर्म किया यह हमें बताओ ? श्री श्यामानंद जी बोले – मैंने आपका त्याग नहीं किया , मै तो आपका ही बालक हूं । यह नया तिलक और नाम मुझे आपकी ही कृपा से प्राप्त हुआ है । श्यामानंद जी ने वैष्णव सभा में कहा की उन्होंने कोई नया नाम और तिलक कृष्णदास को नहीं प्रदान किया है । यह कृष्णदास कहता है की हमारी कृपा से उसे नया तिलक और नाम प्राप्त हुआ है । मै अभी इस तिलक और वक्ष स्थल पर लिखे नाम को मिटा दूंगा ,यदि वास्तव में यह हमारी कृपा से प्राप्त हुआ है तो ये नहीं मिटेगा ।

हृदय चैतन्य ने खूब अच्छी तरह से रगड़ कर तिलक और वक्ष स्थल पर अंकित नाम को मिटाने का प्रयास किया । मस्तक से रक्त निकलने लगा पर तिलक और नाम नहीं मिटा । श्यामानंद जी ने वैष्णव समाज से कहा की उन्हें कुछ देर का समय दिया जाए । श्यामानंद जी एकांत में गए और ललिता जी द्वारा प्रदान किया राधा मंत्र स्मरण करने लगे । मंत्र का स्मरण करते ही दिव्य मंजरी रूप धारण करके श्री प्रिया जी के पास जा पहुंचे । उन्होंने प्रिया जी के चरणों में प्रणाम् करके सारी बात कही । श्री प्रिया जी ने अपने भाई और कृष्ण के सखा ‘सुबल ‘ को वैष्णव सभा में जाकर श्यामनंदी तिलक की रक्षा का भार सौंप दिया । श्यामानंद जी के वापस वैष्णव सभा में उपस्थित होने पर श्रीकृष्ण के सुबल सखा ने दिव्य रूप में प्रकट होकर हृदय चैतन्य से कहा की यह तिलक और नाम स्वयं श्री राधारानी ने इनकी सेवा से प्रसन्न होकर प्रदान किया है ।

श्री राधा जी को श्यामानंद जी अत्यंत प्रिय है । श्री राधारानी का दिया कौन मिटा सकता है ? देखते देखते श्यामानंद जी के मस्तक पर पहले से भी अधिक उज्जवल तिलक प्रकट हो गया और वक्ष स्थल पर लिखा नाम भी प्रकट हो गया । समस्त वैष्णव समाज हरिनाम संकीर्तन करने लगा और श्यामानंद जी पर राधारानी की विशेष कृपा सत्य मानकर उनके भाग्य की सराहना करने लगे ।श्री हृदय चैतन्य को बहुत दुःख हुआ , वे मौन हो गए । शास्त्र वचन है की यदि माता ,पिता और गुरु तीनो में से कोई भी

आपके सामने हाथ जोड़े या क्षमा याचना करे तो आपके समस्त पुण्य नष्ट हो जाते है । हृदय चैतन्य ने कुछ कहा नहीं, बस श्यामानंद जी को आशीर्वाद देकर सब वैष्णवो को लेकर ब्रज यात्रा के लिए निकल पड़े। श्यामानंद जी भी गुरुदेव के पीछे चल दिए ।

दंड उत्सव की परम्परा :

१२ वैन और अन्य स्थानों के दर्शन करने के बाद सभी वैष्णव संकेत कुंज नामक स्थान कर पहुँचे । वहांपर कुछ बालक बालिकाएं रासलीला का अभिनय कर रहे थे । रास का दर्शन करते ही श्यामानंद जी गोपी भाव में भरकर एक स्त्री की भाँती कलाइयां मोडे नृत्य करने लगे और घुंगट करने जैसा शरमाने लगे । श्री हृदय चैतन्य की परंपरा में सख्य रस (भगवान् से सख्य )की उपासना प्रधान थी परंतु श्रीपाद जीव गोस्वामी जी के देख रेख में भक्ति शास्त्रो का अध्ययन करते करते उनका मन माधुर्य रास की उपासना में ही डूब चूका था । ब्रज के रसिक वैसे तो प्रिय प्रियतम को एकरूप ही समझते है परंतु उनके मन का झुकाव श्रीप्रिया जी की ओर कुछ अधिक होता है । श्री हृदय चैतन्य को लगा की हमारी परंपरा के विरुद्ध इसने श्रीकृष्ण सख्य रस उपासना त्याग कर श्री राधा की माधुर्य रस उपासना आरम्भ कर दी है ।

गुरुदेव ने श्यामानंद जी से नृत्य बंद करने और इस माधुर्य रस उपासना को रोकने के लिए कहा परंतु श्यामानंद जी भाव में ऐसे डूबे थे की उन्हें कुछ पता ही नहीं चला । क्रोध में भरकर हृदय चैतन्य ने लकड़ी से श्यामानंद जी के मस्तक पर प्रहार किया । रक्त बहने लगा परंतु श्यामानंद जी ने मार को भी गुरु कृपा ही समझा । उन्होंने गुरुदेव से कुछ भी नहीं कहा । गुरुदेव क्रोध में भरकर वहां से चले गए । रात्रि में हृदय चैतन्य को स्वप्न में श्री गौरहरी चैतन्य महाप्रभु के दर्शन हुए । उन्होंने सफ़ेद वस्त्र धारण किया था और उस वस्त्र पर रक्त लगा हुआ था । हृदय चैतन्य ने महाप्रभु से पूछा की आपके वस्त्र पर रक्त कैसे लग गया ?

महाप्रभु ने कहा – तुमने श्यामानंद को चोट पहुँचायी , उसका घाव मैंने अपने ऊपर ले लिया है । श्यामानंद मुझे बहुत प्रिय है , उसपर प्रहार करके तुमने वैष्णव अपराध किया है । हृदय चैतन्य काँप गए और महाप्रभु से बार बार चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे । महाप्रभु ने कहा – इस अपराध का प्रयाश्चित्त करने के लिए १२ दिन का दंड उत्सव करो । सभी संत महात्माओ की सेवा करो , कथा कीर्तन का आयोजन करो और आगे वैष्णव अपराध कभी न हो इस बार का विशेष ध्यान रखना । श्री महाप्रभु इतना कहकर अंतर्धान हो गए । प्रातः हृदय चैतन्य ने सभी वैष्णवो को बुलाकर महाप्रभु द्वारा बताये गए १२ दिन का दंड उत्सव करवाने का निश्चय किया ।

जब श्री श्यामानंद जी को इस बात का  पता चला तब उन्होंने वैष्णव समाज से प्रार्थना करते हुए कहा – इसमें गुरुदेव भगवान की कोई गलती नहीं है । यदि वे यह उत्सव फिर भी करना ही चाहते है तो उत्सव इनके स्थान पर मुझे करने की अनुमति मिले । जिस तरह से गुरु की समस्त संपत्ति पर शिष्य का अधिकार होता है वैसे ही गुरु के दंड पर भी शिष्य का ही अधिकार है । श्यामानंद जी की गुरुभक्ति देखकर सभी वैष्णव प्रसन्न हुए और सभा में निर्णय किया गया की यह १२ दिन का दंड उत्सव अब श्यामानंद जी ही करेंगे । श्री श्यामानंद जी ने श्रीपाद जीव गोस्वामी और अन्य वैष्णवो की सहायता से वृंदावन में पहला दंड उत्सव मनाया , संत महात्माओ की खूब सेवा इस उत्सव में हुई । आगे चलकर श्यामानंद जी के शिष्य श्री रसिक मुरारि जी ने इस उत्सव की परंपरा को चलाया ।

श्री राधा के अद्भुत श्री विग्रह का प्रकट होना और श्री लाल लाली का विवाह :

श्री हृदय चैतन्य श्यामानंद प्रभु को आशीर्वाद देकर अन्य वैष्णवो सहित अपने ग्राम वापास लौट गए । श्री श्यामानंद जी अब अपने आराध्य श्री श्यामसुंदर की सेवा में निमग्न रहने लगे । एक दिन भरतपुर रियासत के राजा के कोष में रातों रात राधारानी का एक दिव्य विग्रह स्वयं प्रकट हो गया। यह घटना १५७८ ई की है ।  उस रात श्री श्यामसुंदर ने श्यामानंद जी को स्वप्न में कहा- मेरी राधारानी भरतपुर के राज प्रासाद में प्रकट हो गई हैं। तुम मेरा उनके साथ विवाह कराओ। उधर स्वयं प्रकटित राधारानी ने भरतपुर के महाराज को भी स्वप्न में आदेश दिया-मेरे श्यामसुंदर श्रीधाम वृंदावन में श्यामानंद की कुटिया में विराजते है । तुम उनके साथ मेरा विवाह संपन्न कराओ।

राजा की निद्रा भंग हो गई। उन्होंने उसी समय अपनी रानी को जगाकर स्वप्न के विषय में बताया। सुबह होते ही जब वे दोनों अपने भंडारगृह में गए तो उन्हें वहां मूल्यवान रत्नों के मध्य राधारानी के स्वयं प्रकटित अपूर्व सुंदर श्रीविग्रह का दर्शन हुआ। राजा-रानी ने श्रीराधा जी के उस दिव्य विग्रह का श्रृंगार करके विधि-विधान से पूजन किया। शुभ मुहूर्त्त देखकर भरतपुर के राजा-रानी अपने राजपुरोहित और मंत्रियों को साथ लेकर श्रीधाम वृंदावन में श्यामानंद प्रभु की कुटिया में पहुंचे । श्री श्यामसुंदर की अपूर्व लावण्यमय त्रिभंगी श्री विग्रह का दर्शन करके भाव-विभोर हो उठे। सन् १५८० ई. में वसंत पंचमी के शुभ दिन श्रीवृंदावन में श्री श्यामसुंदर एवं राधारानी के दिव्य विग्रहों का विवाह उत्सव बडे धूमधाम से संपन्न हुआ।

राजदंपति ने कन्यादान की रस्म अदा की। इस प्रकार श्यामा-श्यामसुंदर विग्रह- रूप से परिणयसूत्र में बंध गए ।विवाहोपरांत भरतपुर के राजा ने श्रीराधा-श्यामसुंदर का विशाल मंदिर बनवाया और एक गांव तथा बहुत सी संपत्ति मंदिर की सेवा में समर्पित की। इस घटना के बाद जयपुर के महाराजा ने श्यामली नाम का गाँव श्यामानंद जी को दान में दिया । वृंदावन में षड् गोस्वामियों द्वारा लिखे हुए भक्तो ग्रंथो का प्रचार बंगाल क्षेत्र में हो इसलिए वृंदावन के गौड़ीय वैष्णव गोस्वामियों ने ग्रंथो की प्रतियां साथ देकर श्यामानंद प्रभु , नरोत्तम दास और श्रीनिवास आचार्य को बंगाल प्रांत में जाने की आज्ञा दी । राह में विरहम्बीर नाम के वनविष्णुपुर के राजा ने सारे ग्रन्थ चोरी कर लिए । श्रीनिवासचार्य वही पर ग्रंथो की खोज करने हेतु रुके रह गए ।

श्री नरोत्तमदास जी और श्यामानंद जी निकल कर खेतुरी ग्राम में आये । वहां कुछ दिन बिताकर श्यामानंद जी अम्बिका कालना ग्राम में गुरुदेव के दर्शन हेतु गए । कुछ दिन गुरुदेव की सेवा में रहे और गुरुदेव की आज्ञा से हरिनाम का प्रचार उत्कल देश में करने लगे । उत्कल देश में श्यामानंद प्रभु ने कई विमुखो का दीक्षा देकर उद्धार किया । कुछ समय बाद श्यामानंद प्रभु को वृंदावन का विरह सताने लगा अतः उत्कल देश से अपने परिवार के सेव्य ठाकुर ,श्याम रे और अन्य शिष्यो को लेकर श्री वृंदावन की ओर चलने लगे ।

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