षड़ गोस्वामी अष्टक

*श्री श्री षड्- गोस्वामि-अष्टक*

*कृष्णोत्कीर्तन- गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भो-निधी*
*धीराधीर-जन-प्रियौ प्रिय-करौ निर्मत्सरौ पूजितौ*
*श्री-चैतन्य-कृपा-भरौ भुवि भुवो भारावहंतारकौ*
*वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।१।।*

   मैं, श्रीरूप, सनातन, रघुनाथदास, रघुनाथ ,श्रीजीव एवं गोपालभट्ट नामक इन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो श्रीकृष्ण के नाम -रूप-गुण-लीलाओ के कीर्तन, गायन, एवं नृत्य परायण थे; प्रेमामृत के समुद्रस्वरूप थे, विद्वान एवं अविद्वानरूप सर्वसाधारण जनमात्र के प्रिय थे, तथा सभी के प्रियकार्य करने वाले थे, मात्सर्यरहित एवं सर्वलोक पूजित थे, श्रीचैतन्यदेव की अतिशय कृपा से युक्त थे, भूतल में भक्ति का विस्तार करके भूमि का भार उतारनेवाले थे।

*नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्-धर्म संस्थापकौ*
*लोकानां हित-कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ शरण्याकरौ*
*राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ*
*वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।२।।*

मै, श्रीरुप सनातन आदी उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की, जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे, भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परामहितैषि थे, तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे,एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे।

*श्री-गौरांग-गुणानुवर्णन-विधौ श्रद्धा-समृद्धि अन्वितौ*
*पापोत्ताप- निकृंतनौ तनु-भृतां गोविंद-गानामृतैः*
*आनंदाम्बुधि-वर्धनैक-निपुणौ कैवल्य-निस्तारकौ*
*वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।३।।*

मै, श्रीरुप सनातन आदी उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हू की, जो श्रीगौरांगदेव के गुणानुवाद की विधि मे श्रध्दारूप-संपत्ती से युक्त थे, श्रीकृष्ण के गुणगानरूप अमृत की वृष्टी के द्वारा प्राणिमात्र के पाप-ताप को दूर करनेवाले थे, तथा आनंदरूप समुद्र को बढ़ाने में परमकुशल थे, भक्ति का रहस्य समझा कर, मुक्ति कराने वाले थे।

*त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति-श्रेणें सदा तुच्छ-वत्*
*भूत्वा दीन गणेशकौ करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ*
*गोपी-भाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहुर्*
*वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।४।।*

मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की बारंबार वंदना करता हु कि, जो समस्त मंडलो के आधिपत्य की श्रेणी को, लोकोत्तर वैराग्य से शीध्र ही तुच्छ की तरह सदा के लिए छोड़कर, कृपापूर्वक अतिशय दिन होकर, कौपीन एवं कंथा (गुदडी) को धारण करनेवाले थे, तथा गोपीभावरूप रासामृतसागर की तरंगों में आनंदपूर्वक निमग्न रहते थे।

*कूजत्-कोकिल-हंस-सारस-गणाकीर्णे मयूराकुले*
*नाना-रत्न-निबद्ध-मूल-विटप-श्री-युक्त-वृंदावने*
*राधा-कृष्णम् अहर्-निशं प्रभजतौ जीवार्थदौ यौ मुदा*
*वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।५।।*

मै, श्रीरुप सनातन आदी उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ जो कलरव करने वाले कोकिल हंस सारस आदि पक्षिओं की श्रेणी से व्याप्त, एवं मयूरों के केकारव से आकुल, तथा अनेक प्रकार के रत्नों से निबद्ध मूलवाले वृक्षो के द्वारा शोभायमान श्रीवृन्दावन में रात दिन श्रीराधाकृष्ण का भजन करते रहते थे, तथा जीवमात्र के लिये हर्षपूर्वक परमपुरुषार्थ देने वाले थे।

*सांख्या-पूर्वक-नाम-गान- नतिभिः कालावसानी-कृतौ*
*निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यंत-दीनौ च यौ*
*राधा-कृष्ण-गुण, स्मृतेर् मधुरिमानंदेन सम्मोहितौ*
*वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।६।।*

मै, श्रीरुप सनातन आदी उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ,जो अपने समय को संख्यापूर्वक नाम जप,नाम संकीर्तन, एवं संख्यापूर्वक प्रणाम आदि के द्वारा व्यतीत करते थे; जिन्होंने निंद्रा-आहार-विहार आदि पर विजय पा ली थी, एवं जो अपने को अत्यंत दीन मानते थे, तथा श्रीराधाकृष्ण के गुणों की स्मृति से प्राप्त माधुर्यमय आनंद के द्वारा विमुग्ध रहते थे।

*राधा-कुंड-तटे कलिंद-तनया-तीरे च वंशीवटे*
*प्रेमोन्माद-वशाद् अशेष-दशया ग्रस्तौ प्रमत्तौ सदा*
*गायंतौ च कदा हरेर् गुण-वरं भावाभिभूतौ मुदा*
*वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।७।।*

मै, श्रीरुप सनातन आदी उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ, जो प्रेमोन्माद के वंशीभूत होकर, विरह की समस्त दशाओ के द्वारा ग्रस्त होकर, प्रमादी की भाँति, कभी राधाकुंड के तट पर, एवं कभी वंशीवट पर सदैव धूमते रहते थे; और कभी-कभी श्रीहरि के गुणश्रेष्ठों  को हर्षपूर्वक गाते हुए भावविभोर रहते थे।

*हे राधे व्रजदेविके च ललिते हे नंद सूनो कुतः*
*श्री गोवर्धन कल्प पादपतले कालिंदी-वने कुतः*
*घोषंताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर् महा विह्वलौ*
*वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।८।।*

मै, श्रीरुप सनातन आदी उन छ गोस्वामियो की वंदना करता हूँ जो 'हे ब्रज की पूजनीय देवी ! राधिके ! आप कहाँ हो ? हे ललिते ! आप कहाँ हो ? हे ब्रजराजकुमार !  आप कहाँ हो ? श्रीगोवर्धन के कल्पवृक्षों  के नीचे बैठे हो, अथवा कालिन्दी के कमनीय कुल पर विराजमान वनसमूह में भ्रमण कर रहे हो क्या ?' इस प्रकार पुकारते हुए विरहजनित  पीड़ाओं से महान विह्वल होकर, ब्रजमण्डल में चारों और भ्रमण करते रहते थे।।

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