भाग 10 अध्याय 5

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

           भाग 10

           *अध्याय 5*

*अन्य देवी देवताओं को श्रीकृष्ण से अलग समझना अपराध है*
शिवस्य श्रीविश्नोर्य इह गुणनामादि सकलं
धिया भिन्न पश्येत स खलु हरिनामहितकरः

श्रीगदाधर पंडित जी कर प्राण श्रीगौरांग महाप्रभु जी,श्रीमति जान्ह्वी देवी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की जय हो। सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि भक्तों की जय हो।
श्रीहरिदास जी हाथ जोड़कर कहने लगे -हे जगन्नाथ श्रीगौरसुन्दर अब दूसरा अपराध सुनिए।

परम् अद्वयज्ञान श्रीविष्णु ही,परमतत्व हैं।वे चित्स्वरूप हैं,जगदीश हैं एवं सदा शुद्धसत्व स्वरूप हैं।उस पर तत्व के सार हैं अर्थात गोलोक विहारी श्रीकृष्ण श्रेष्ठ तत्व हैं । ये श्रीकृष्ण ही 64 गुणों से अलंकृत एवं सभी रसों के आधार हैं।60 गुण भगवान श्रीनारायण जी रूप में प्रकाशित हैं । ये 60 गुण ही श्रीविष्णु जी में सामान्य रूप से विलास करते हैं। पुरुषावतार एवं स्वांश अवतारों में ये 60 गुण उनके कार्य अनुसार स्पष्ट रूप से झलकते है।

*श्रीविष्णु के विभिन्न अंशों का प्रकाश*
श्रीविष्णु के विभिन्न अंश दो प्रकार के हैं-साधारण जीव एवं देवता।जीव में भगवान के ही 50 गुण बिंदु बिंदु रूप से विद्यमान हैं जबकि शिव आदि देवताओं में यह 50 गुण ही कुछ अधिक मात्रा में रहते हैं।इसके अतिरिक्त इन देवताओं में 5 और गुण आंशिक रूप से विद्यमान होते हैं जो कि पूर्णमात्रा में केवल श्रीविष्णु जी मे ही विद्यमान होते हैं।

*60 गुण से श्रीविष्णु परम् तत्व ईश्वर हैं*

उक्त 55 गुण श्रीविष्णु जी में पूर्ण रूप से विराजमान हैं, इसके इलावा और 5 गुण श्रीविष्णु में पूर्ण रूप से हैं किंतु शिव आदि देवता तथा जीव में यह गुण नहीं। इन 60 गुणों से ही श्रीविष्णु तत्व सभी ईश्वरों के ईश्वर अर्थात परम् ईश्वर हैं।अतः शिव आदि अन्य देवी देवता , भगवान विष्णु जी के दास दासियाँ हैं।विष्णु जी के विभिन्न अंश ये देवता श्रेष्ठतर जीव हैं , कहने का तातपर्य यह है कि भगवान विष्णु ही सभी देवताओं तथा सभी जीवों के ईश्वर हैं,इसलिए उन्हें सर्वेश्वर अथवा सर्वदेवेश्वर कहते हैं।

*अज्ञानी व्यक्ति देवी देवताओं को विष्णु के समान समझते हैं*
सचमुच ही वे बड़े अज्ञानी हैं जो अन्य देवी देवताओं के साथ श्रीविष्णु जी को समान मानते हैं।ऐसे मानने वालों को ईश्वर तत्व का ज्ञान नहीं है।इस जड़ जगत में श्रीविष्णु ही परम ईश्वर हैं , शिव आदि देवता सब उनके आधीन व उनके किंकर हैं। कोई कहता है कि माया के तीन गुणों को लेकर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों ही सविशेष देवता हैं ,जबकि हमेशा एक सा रहने वाला ब्रह्मा तो निर्विशेष होता है। यह मायावादियों का मत है जो कि गलत है।

*विभिन्न वादों के सिद्धांत*

शास्त्रों के अनुसार श्रीनारायण ही सर्व पूज्य है, जबकि ब्रह्मा ,शिव आदि तो इस संसार की सृष्टि तथा प्रलय का कार्य करने के लिए हैं। वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर जो और और देवताओं का भजन करते हैं ,वे ईश्वर को छोड़ संसार में ही फंसे रहते हैं।कोई कहता है कि यह ठीक है कि श्रीविष्णु तत्व ही परम तत्व हैं , यह वेद वाणी है। इसे मैं मानता हूं परन्तु यह सारा विश्व ही विष्णुमय है इसलिए वेद के इस सिद्धांत के अनुसार सब देवताओं में ही श्रीविष्णु का अधिष्ठान है,अतः सभी देवताओं का अर्चन होने से वह श्रीविष्णु का ही सम्मान होता है।यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि उपरोक्त शास्त्र सिद्धान्त है परंतु यह विधि का सिद्धांत नहीं है।ये तो निषेध का सिद्धांत है अर्थात सारा विश्व विष्णुमय होता है या सभी देवताओं में विष्णु का अधिष्ठान होता है-इसका मतलब यह नहीं है कि किसी भी देवता की पूजा करने से या सब देवताओं की पूजा करने से भगवान विष्णु की पूजा हो जाती है। इस शास्त्र वाक्य का तातपर्य है कि भगवान विष्णु की पूजा करने से सभी देवी देवताओं की पूजा हो जाती है। ठीक उसी प्रकार जैसे वृक्ष की जड़ को सींचने से उसके तने, उसकी टहनियों ,शाखाओं आदि का पोषण हो जाता है अर्थात सभी को पानी मिल जाता है।जबकि पत्तों पर पानी डालने से वृक्ष सूख जाता है तथा उसे पानी नहीं मिलता है। इसलिए अन्य देवी देवताओं की पूजा त्यागकर , श्रीविष्णु जी की पूजा करनी चाहिए,इससे अन्य देवताओं की पूजा तो अपने आप हो जाती है।प्राचीन काल मे ,वेद सम्मत यह विधि ही चली आ रही थी , किंतु दुर्भाग्यवश कुछ मूढ़ व्यक्तियों ने यह विधि छोड़ दी । मायावाद के दोष से तथा कलियुग के आने से लोग भगवान विष्णु को अन्य देवी देवताओं के समान जानकर अन्य सभी देवी देवताओं की पूजा करने लग पड़े हैं। एक एक देवता , एक एक फल को देने वाला है , किंतु श्रीविष्णु सर्वफलदाता एवं सबके पालक हैं। सकामी व्यक्ति भी यदि इस तत्व को समझ लें तो वे भगवान श्रीविष्णु की पूजा करके अपने अपने फलों को पाते हैं , एवं अन्य देवी देवताओं की पूजा छोड़ देते हैं।

*ग्रहस्थ वैष्णवों के कर्तव्य*
ग्रहस्थ होकर जो , जो श्रीविष्णु भक्त होता है वह संशय त्यागकर हर परिस्थिति में श्रीकृष्ण की पूजा करता है, जन्म से मरने तक जितने भी संस्कार हैं , ग्रहस्थ व्यक्ति उन सभी में वेद मंत्रों के अनुसार श्रीकृष्ण की पूजा करेंगे। भगवान विष्णु व वैष्णवों की पूजा का देवी देवताओं व चितगणों को श्रीकृष्ण का प्रसाद देने का , वेद में विधान है। मायावादियों के मत अनुसार जो व्यक्ति पित्रश्राद्ध एवं अन्य देवताओं की पूजा करते हैं , वे अपराधी हैं तथा इस अपराध के कारण उनकी दुर्गति होती है। जैसे विष्णु जी एक ईश्वर हैं , उसी प्रकार शिव जी आदि भी अलग अलग ईश्वर हैं -विष्णुतत्व में इस प्रकार की भेद बुद्धि करना भी एक प्रकार का भयंकर नाम अपराध है। भगवान विष्णु की शक्ति पराशक्ति है, इसी से सभी देवता आये हैं । वेदों के अनुसार भगवान की शक्ति के अतिरिक्त कोई और शक्ति नहीं है। शक्ति को कभी शक्तिमान से अलग नहीं किया जा सकता यह वेद का सम्मत है। शिव जी, ब्रह्मा जी, गणेश जी तथा सूर्य व अलग अलग दिशाओं के देवता हमेशा से ही श्रीकृष्ण के द्वारा शक्ति प्रदान करने पर कुछ सामर्थ्य रखते हैं। हरिदास जी कहते हैं कि इन्हें ईश्वर कहा जा सकता है परंतु मैं समझता हूं कि परमेश्वर एक है तथा जितने भी देवी देवता हैं ,सब इन्हीं परमेश्वर की शक्ति हैं।ग्रहस्थ भक्त भक्ति के सद्भाव को ग्रहण करेंगे।

*वैष्णव लोग किस तरह से वैष्णव धर्म पालन करेंगे*

भगवान की भक्ति के सद भावों में रहकर भगवान की भक्ति की विभिन्न क्रियाओं को करते रहना चाहिए तथा देवताओं व अपने पितरों की प्रसन्नता के लिए उन्हें भगवान का प्रसाद निवेदन करना चाहिए।बहुत से देवी देवताओं की पूजा नहीं करनी चाहिए। सभी देवता भगवान कृष्ण के दास तथा दासियाँ हैं, यह जानकर केवल श्रीकृष्ण का ही भजन करते रहना चाहिए और यह भावना हृदय में रखनी चाहिए कि इस कृष्ण भजन के द्वारा सभी देवी देवताओं की प्रसन्नता हो रही है। जीव,भगवान श्रीकृष्ण की पूजा व वैष्णवों की सेवा से सर्वसिद्धि प्राप्त कर लेता है, साथ ही इससे साधक का नाम अपराध भी नहीं होता है।हर समय उसके मुख से श्रीकृष्ण नाम निकलता रहता है या वह हर समय श्रीकृष्ण का नाम गाता रहता है।

*चारो वर्णों की जीवनयात्रा की विधि*
मनुष्य को चाहिए कि इस संसार मे वह अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र आदि वर्णों तथा ब्रह्मचर्य , ग्रहस्थ, वानप्रस्थ आदि आश्रमों के अनुसार आचरण करे। अपने अपने वर्ण व आश्रम के नियमों का पालन करते हुए अपनी देह यात्रा को चलाना भी सनातन धर्म कहलाता है क्योंकि यह क्रियाएं साधक को सनातन धर्म अर्थात आत्म धर्म की ओर ले जाती हैं।क्रमशः

जय निताई जय गौर

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला