भाग 21 अध्याय 13

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*
   
         भाग 21
       *अध्याय 13*

हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी या दीक्षित होते हुए भी अधिकांश विषयी लोग इस नाशवान शरीर में मैं और मेरेपन की बुद्धि बनाये रखते हैं, जो कि गलत है व ऐसी बुद्धि भक्ति पथ से भृष्ट कर देती है तथा यह नामपराधों में से एक नामापराध है।

  श्रीगदाधर पंडित जी की जय हो, श्रीगौरांग महाप्रभु जी की जय हो, सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी की जय हो  तथा महाप्रभु जी के समस्त भक्तवृंद की जय हो जय हो।

  श्रीहरिदास ठाकुर महाशय जी भगवत प्रेम में गदगद होकर श्रीमन महाप्रभु जी के श्रीचरणों में अंतिम नामापराध विनय करते हैं । वे कहते हैं कि -हे प्रभु ! इस अपराध के बारे में सुनें , यह अपराध सबसे निकृष्ट अपराध है । इस अपराध के कारण भी साधक के हृदय में भगवत प्रेम उदय नहीं होता ।

*हरिनाम में शरणागति की आवश्यकता*
ठाकुर श्रीहरिदास जु कहते हैं कि सज्जन व्यक्तियों को चाहिए कि वे पहले वर्णित नव अपराधों को छोड़कर श्रीहरिनाम में शरणागत हों। हे गौरहरि ! हमारे शास्त्रों में 6 प्रकार की शरणागति के बारे में कहा गया है । हे प्रभु ! मेरी तो सामर्थ्य नहीं कि मैं विस्तृत भाव से शरणागति का वर्णन कर सकूँ , तब भी आपकी प्रसन्नता के लिए संक्षेप में कहना चाहूंगा।

*शरणागति के प्रकार*

पहली व दूसरी शरणागति है कि संसार में रहने के लिए जो विषय भगवान की भक्ति के अनुकूल हों , उन्हें लेना तथा जो विषय भगवान की भक्ति के अनुकूल न हों उन्हें छोड़ देना।

    भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षाकर्ता हैं -इस प्रकार की सोच रखना , भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे पालनहार हैं -इस प्रकार की भावना रखना , अपने अंदर हमेशा दीनता का भाव बनाये रखना तथा अपना सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में निवेदन कर देना ही शरणागति के बाकी चार लक्षण हैं। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि दुनिया मे सब भोजन व दवाई इस भावना से स्वीकार करना कि यह सभी इस शरीर की रक्षा के लिए जरूरी हैं।क्योंकि जब मैं ही जिंदा न रहूंगा तो मुझसे भजन ही न हो पायेगा । अपने जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए केवल उन्हीं विषयों को ग्रहण करो जो श्रीकृष्ण को भाते हैं । भक्ति के प्रतिकूल विषय जब आपके सामने आते हैं तो उनके प्रति अरुचि दिखाते हुए अवश्य ही उन्हें त्याग देना चाहिए।इस बात को अपने हृदय में बिठा लेना चाहिए कि श्रीकृष्ण के बिना मेरा रक्षाकर्ता तथा पालनकर्ता कोई और नहीं हैं।हृदय में हर समय दीनता के ऐसे भाव रहने चाहिए कि मैं तो सबसे निकृष्ट हूँ , अधम हूँ तथा मुझमें कोई गुण नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण के संसार में मैं उनका नित्य दास हूँ , उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करना ही मेरा प्रयास है।

  मैं कर्ता हूँ , मैं दाता हूँ , मैं ही अपने परिवार का पालन करने वाला हूं , ये मकान , ये शरीर, ये सन्तान तथा यह स्त्री सब मेरे हैं।मैं ब्राह्मण हूँ तथा मैं शुद्र हूँ , मैं इसका माता पिता हूँ , मैं राजा हूँ या मैं प्रजा हूँ । अपनी संतानों का सब कुछ तो मैं ही हूँ इत्यादि इस प्रकार की बुद्धि को छोड़कर अपने ध्यान को , अपनी बुद्धि को , अपनी मति को श्रीकृष्ण में लगाये रखना । इस प्रकार की भावना करना कि श्रीकृष्ण ही सबके मालिक हैं , वास्तविक कर्ता तो वे ही हैं , उनकी इच्छा ही बलवान है।
ठाकुर हरिदास जी कहते हैं कि इस प्रकार की भावना बनाकर रखना कि अपने जीवन मे मैं वही कार्य करूंगा जो श्रीकृष्ण की इच्छा के अनुकूल हों। अपनी इच्छा के अनुसार तो मैं कुछ सोचूंगा भी नहीं। श्रीकृष्ण की इच्छा के अनुसार ही मेरा जीवन तथा मेरा परिवार चलेगा और उनकी इच्छा अनुसार ही मैं भव सागर से पार होऊँगा। चाहे मैं दुख में रहूँ या सुख में लेकिन मैं सब कुछ श्रीकृष्ण की इच्छा मानकर स्वीकार करुंगा। श्रीकृष्ण अपनी इच्छा अनुसार संसार के सब जीवों पर अपनी दया बिखेरते हैं । मेरी सुख सुविधाएं तथा मेरे कर्म भोग सब श्रीकृष्ण की इच्छा अनुसार ही होने हैं , यहां तक कि मेरा वैराग्य भी श्रीकृष्ण की इच्छा के अनुसार होगा।

*शरणागति होने से ही आत्मनिवेदन होता है*
सरल भाव से जब उक्त शरणागति के भाव किसी के हृदय में उदित होते हैं , तब उसे आत्मनिवेदन कहा जाता है।
*शरणागति के बिना हरिनाम करते हुए जो होता है*
छः प्रकार की शरणागति जिसकी नहीं होती , वह तो अधम है । मैं तथा मेरे के दोष में ही उस बिचारे की बुद्धि उलझी होती है।ऐसी अवस्था मे वह अपने को कर्ता मानता हुआ कहता है कि यह सब संसार मेरा ही है।कर्मो के दुख सुख सब मेरे ही भोग है ।मैं अपना रक्षक व पालक हूँ ।ये मेरी पत्नी , यह मेरा भाई तथा यह मेरे लड़के लड़की हैं।मैं रुपया कमाता हूँ । मेरी कोशिशों से ही सब अच्छे अच्छे काम हो रहे हैं । श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि भगवान से विमुख व्यक्ति की शरीर में तथा शरीर से सम्बंधित व्यक्ति तथा वस्तुओं में मेरी बुद्धि होने के कारण वह अपने दिमाग को बड़ा समझता है। वह सोचता है कि मेरे दिमाग के कारण ही शिल्पकला तथा विज्ञान इतनी उन्नति कर रहे हैं।इसी अभिमान में वह दुष्ट व्यक्ति भगवान की शक्तियों को स्वीकार नहीं करता। हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी वह उसमें विश्वास नहीं करता। हां , लोकाचार की दृष्टि से देखा देखी कभी कभी श्रीकृष्ण का नाम उच्चारण कर लेता है। अक्सर धर्मध्वजी तथा दुष्ट प्रकृति के लोग ऐसा करते हैं।कृष्ण नाम उच्चारण करते हुए भी श्रीकृष्ण नामामृत में उनकी रुचि नहीं होती। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हेला से हरिनाम का उच्चारण करने से अनायास ही मुख से श्रीकृष्ण नाम निकल जाए तो उसे कुछ न कुछ पुण्य तो अवश्य मिलता है परंतु भगवत प्रेम नहीं मिलता। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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