भाग 19 अध्याय 11

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

          भाग 19
       *अध्याय 11*

*अन्य शुभ कर्मों के साथ नाम को बराबर समझना*
धर्म-व्रत-त्याग-हुतादि-सर्व शुभ -क्रिया-सामयमपि प्रमाद

नाम प्रचार के उद्देश्य से अवतरित श्रीहरिनाम के अवतारस्वरूप श्रीगौरचन्द्र जी की जय हो। समस्त तत्वों के सार श्रीहरिनाम की जय हो । श्रील हरिदास ठाकुर जी बोले - हे प्रभु ! दूसरे शुभ कर्म कभी भी श्रीहरिनाम के बराबर नहीं हो सकते।

   *नाम का स्वरूप*
श्रील हरिदास ठाकुर जी कहने लगे -हे प्रभु ! आपका स्वरूप तो चिन्मय सूर्य के समान है। आपका नाम, विग्रह, लीला , धाम सभी चिन्मय हैं। आपके मुख्य नाम आपसे अभिन्न हैं जबकि जड़ीय अथवा दुनियावी वस्तुओं के नाम सदा उन वस्तुओं से भिन्न हैं । भक्तों के मुख से उच्चारित भगवतनाम , गोलोक से प्रकट होते हैं। यह हरिनाम , सारे शरीर में फैलकर जिव्हा पर नृत्य करते हैं। भगवान का नाम चिन्मय है तथा गोलोक धाम से अवतरित होता है, इस प्रकार की भावना करने से हरिनाम करने पर ही शुद्ध हरिनाम होता है । जिसका ऐसा दिव्य ज्ञान नहीं है और जो हरिनाम में जड़ीय बुद्धि रखते हैं ,उन्हें बहुत लंबे समय तक नरक की यंत्रणाओं को सहन करना पड़ता है।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! शास्त्रों में आपको प्राप्त करने के जो उपाय बताए गए हैं , अलग अलग अधिकारों के कारण वे उपाय -कर्म , ज्ञान व भक्ति के विभिन्न अंगों के कारण बहुत से हो गए हैं।

      *कर्म का स्वरूप*
जड़ बुद्धि से ग्रसित व्यक्ति जड़ीय द्रव्यों की प्राप्ति तथा काल के आश्रय में रहकर मृत्य के भय से आपकी साधना करता है। हे हरि ! आप जीवों को अभय दान देने वाले हो तथा आपके समान कोई नहीं है।आपके चरणों का आश्रय लेने से जीव भवसागर से पार हो जाता है।कर्म मार्ग में आपके चरणों का आश्रय प्राप्त करने के लिए यज्ञ करना, तलाब व कुएं का निर्माण करवाना,तीनों समय स्नान करना, दान , योग,वर्णाश्रम धर्म का पालन,तीर्थ यात्रा, व्रत, माता पिता की सेवा, ध्यान, ज्ञान, देवताओं के लिए तर्पण तपस्या तथा प्रायश्चित आदि विधान -जड़ीय द्रव्यों तथा जड़ीय भावों का आश्रय लेने के कारण जड़ीय हैं।इन सबका आश्रय लेने से मात्र शुभ कर्म होते हैं।अर्थात दुनियावी उपायों का कर्मफल भी जड़ीय ही होता है। परंतु जब किसी साधक को भक्ति में सिद्धि प्राप्त होती है तो ऐसे जड़ीय तथा अचिन्त्य उपाय स्वयम ही छूट जाते हैं।क्योंकि तमाम सिद्धियों का सार पूर्ण आनन्दमयी भगवान की प्रेम प्राप्ति ही है।यही जीवों का सर्वोत्तम उपेय अर्थात प्रयोजन है।परंतु बद्ध जीव इन सब जड़ीय वस्तुओं के बिना रह नहीं पाता।उसकी तमाम क्रियाओं में तथा चिंता में जड़ीय भाव अवश्य ही विधमान रहता है किंतु इस जड़ीय सिद्धांत में रहते हुए जड़ातीत शुद्ध भक्ति की खोज करना ही कर्म आदि की कुशलता है।अतः क्रमानुसार देखा जाए तो सभी शुभ कर्म जीव के प्रयोजन भगवत प्रेम के उपाय ही हैं।लेकिन इस मार्ग से जीव को भगवत भक्ति व भगवत प्रेम बहुत विलम्ब से मिलता है क्योंकि यहां पर उपाय तो दुनियावी जो कि जड़ हैं परन्तु भगवत प्रेम तो पूर्णतः चेतन है।अतः शुभ कर्मों के द्वारा भगवत प्रेम की प्राप्ति में होने वाले विलम्ब का कारण कर्मों का जड़ होना तथा भगवत प्रेम का दिव्य होना है।

*साधनाकाल में हरिनाम किस प्रकार उपाय है*

हे प्रभु ! आपने विशेष कृपा करके जगतवासियों को हरिनाम प्रदान किया इसलिये
आप अपना मंगल चाहने वाले जीव , कृष्ण प्रेम रूपी सिद्धि को प्राप्त करने के लिए हरिनाम का ही आश्रय लेते हैं। शास्त्रों के मत अनुसार हरिनाम ही कृष्ण प्रेम प्राप्ति का उपाय है इसलिए दूसरे दूसरे सुकर्मों के साथ गिना गया है। ठीक उसी प्रकार जैसे सर्वेश्वर भगवान विष्णु जी की ब्रह्मा जी एवम शिव जी के साथ त्रिभुवन के देवता के रूप में गणना की जाती है।
*श्रीहरिनाम शुद्ध सत्वमय हैं*
श्रीहरिनाम का स्वरूप शुद्ध सत्वमय होता है।इसमें लेश मात्र भी जड़ीय गन्ध नहीं होती। जड़ीभूत जीवों ने अर्थात अविद्याग्रस्त जीवों ने श्रीहरिनाम में जड़ीय भावना करके उसे अन्य शुभ कर्मों के समान एक कर्म मान लिया है।मायावाद के कारण इस प्रकार का नाम अपराध होता है,जिस दोष के कारण हमेशा ही भक्ति में बाधा उतपन्न हो जाती है।

*श्रीहरिनाम साधन होते हुए भी साध्य है*

हे प्रभु ! आपका श्रीकृष्ण नाम पूर्णानन्द तत्व है । यह श्रीकृष्ण नाम साधन भी है और साध्य भी।इसी कारण इसकी विशेष महिमा है। जीवों के ऊपर उपकार करने के लिए श्रीहरिनाम ने साधन के रूप में इस धरातल पर अवतार लिया है। तमाम शास्त्र इसके प्रमाण हैं।यहां कहा गया है कि श्रीकृष्ण नाम उपाय भी है तथा उपेय भी अर्थात हरिनाम साधन भी है और साध्य भी। अपने अपने अधिकार के अनुसार सभी जीव श्रीहरिनाम का अनुसरण करते हैं। यह बड़ी विचित्र बात है कि जब तक जीव के हृदय में आत्मरति उतपन्न नहीं हो जाती तब तक वह हरिनाम को आत्मरति रूपी उपेय की साधना समझता रहता है।
*शुभ मार्ग गौण उपाय हैं जबकि हरिनाम मुख्य उपाय है*
उपाय दो प्रकार के होते हैं -मुख्य उपाय तथा गौण उपाय। गौण उपाय शुभ कर्म हैं जबकि हरिनाम मुख्य उपाय है।शास्त्रों में जितने भी प्रकार  के शुभ कर्मों का वर्णन पाया जाता है उनमें से कोई भी हरिनाम के समान नहीं हो सकता। यही सब शास्त्रों का मर्म है।सरल हृदय से जब कोई श्रीकृष्ण नाम का कीर्तन करता है तब दिव्य आनन्द प्रकट होकर उसके चित्त को आनन्द से विभोर करके उससे नृत्य करवाता है।श्रीकृष्ण नाम का ऐसा चमत्कारिक स्वभाव है कि यह साधक को ऐसी आत्म रति व आत्म क्रीड़ा प्रदान करता है कि इस आनन्द के ऊपर और कुछ भी नहीं होता है।ब्रह्मज्ञान तथा योग में जो आनन्द है वह बहुत थोड़ा है क्योंकि वह तो इस दुनिया के दुखों से केवल छुटकारा मात्र है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि ब्रह्मज्ञान तथा योग में उस परम आनन्द की छाया मात्र है जबकि श्रीकृष्ण नाम मे जो सुख है वह असीम है।
*अन्य शुभ कर्मों से श्रीहरिनाम की विलक्षणता*
हरिनाम के सम्बन्ध में विलक्षण बात यह है कि सदहन काल मे हरिनाम उपाय स्वरूप है जबकि सिद्धावस्था में यही हरिनाम उपेय स्वरूप है। उपाय स्वरूप हरिनाम में ही उपेय सिद्ध है जबकि यह स्पष्ट है कि ऐसी बात अन्य कर्मों में नहीं है।दुनियावी सब कर्म जड़ आश्रित होते हैं जबकि हरिनाम सदा ही चिन्मय है एवम स्वाभाविक सिद्ध ही है।साधन काल मे भी हरिनाम शुद्ध और निर्मल होता है किंतु साधक के अनर्थों के कारण मलिन से लगता है।साधु सँग प्राप्त होने से ही जड़ बुद्धि का विनाश होता है।जड़बुद्धि के नाश होने पर अर्थात सभी अनर्थों के समाप्त होने पर साधक के हृदय में शुद्ध हरिनाम का स्फुरण होता है।हरिनाम करने वाले साधक को छोड़कर अन्य शुभ कर्म करने वाले साधक उपेय को प्राप्त कर लेने पर उपाय को छोड़ देते हैं किंतु हरिनाम करने वाले भगवत भक्त कभी हरिनाम का त्याग नहीं करते।यह बात अलग है कि सिद्धवस्था में ही शुद्ध नाम होता है। शुद्ध नाम अन्य शुभ कर्मों से अति विलक्षण है।यही नाम के स्वरूप का अपूर्व लक्षण है।वेदों में ऐसा कहा गया है कि साधन काल मे ही श्रीगुरुदेव की कृपा से ऐसा विलक्षण ज्ञान प्राप्त होता है ।साधनावस्था में जिसको यह ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है वह सभी नाम अपराधी हैं।इस विश्वास के साथ जो हरिनाम करते हैं शुद्ध हरिनाम बहुत जल्दी ही उनमे उदित हो जाता है तथा वह पूर्ण आनन्द स्वरूप श्रीहरिनाम के रस का पान करते रहते हैं।
*इस अपराध से बचने का उपाय*
वैष्णव अपराध रूपी दुष्कृति के कारण यदि किसी साधक की अन्य शुभ कर्मों के साथ हरिनाम में समबुद्धि होती है तो उस साधक को चाहिए कि इस दोष को समाप्त करने का पूरा प्रयत्न करें।तभी साधक की श्रीहरिनाम के प्रति शुद्ध बुद्धि होगी तथा उसे श्रीकृष्ण प्रेम रूपी धन की प्राप्ति होगी। नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु !चारों वर्णों से बाहर यदि अन्त्यज जाति का व्यक्ति भी शुद्ध नाम परायण हो तथा कोई पवित्र भाव से उसकी चरण रज लेकर अपने शरीर पर लगाए , उसका जूठा प्रसाद सेवन करे तथा उसके चरणों का जल पिये तो ऐसा करने से उसकी शुद्ध हरिनाम में मति हो जाएगी । बहुत से भक्तो का कहना है कि इस प्रकार से श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के पार्षद श्रील कालिदास जी की दुष्कृतियों की समाप्ति हुई थी और उन्हें पुनः भगवान की कृपा प्राप्त हुई थी।
    बड़ी दीनता के साथ श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि -हे प्रभु ! मैं जड़ बुद्धि हूँ और एकमात्र नाम का ही कीर्तन करता हूँ परन्तु अभी तक नाम चिंतामणि तत्व को प्राप्त नहीं कर पाया।

*हरिदास ठाकुर जी की हरिनाम में निष्ठा*
श्रीहरिदास ठाकुर जी महाप्रभु जी के चरणों मे यही विनय करते हैं कि - हे प्रभु ! आप कृपा करके हरिनाम के रूप में मेरी जिव्हा पर नृत्य करते रहना।आप मुझे संसार में रखो या अपने धाम में , जहां आपकी इच्छा हो मुझे वहां रखो परन्तु मुझे कृष्ण नामामृत का पान अवश्य करवाते रहना।जगत के जीवों को हरिनाम देने के लिए ही आपका अवतार हुआ है और नाम ग्रहण करने वालों में से मैं भी एक हूँ , इसलिए प्रभु मुझे अवश्य अंगीकार करना।मैं तो अधम हूँ परन्तु आप तो अधमों के तारण हार हो।
  हे पतितपावन ! हम दोनों का सम्बन्ध भी बड़ा विचित्र है। मेरा और आपका सम्बन्ध कभी टूटने वाला नहीं है क्योंकि मैं अधम हूँ और आप अधम तारणहार हो।आपसे मेरा नित्य सम्बन्ध है इसलिए मैं आपसे हरिनाम अमृत प्रदान करने की प्रार्थना करता हूँ।

*कलियुग में हरिनाम ही युग धर्म क्यों*
कलियुग में दूसरे सभी कार्य दुःसह हो गए हैं, अतः जीव पर करुणा करने के लिए हरिनाम ही युग धर्म के रूप में प्रकट हुआ है।
   श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी के जो दास हैं तथा जो भगवत भक्ति का रसास्वादन करते हैं , वे अकिंचन ही श्रीहरिनाम चिंतामणि का गान करते हैं।

एकादश अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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