भाग 23 अध्याय 14

*श्रीहरिनाम चिंतामणि *

          भाग 23
       *अध्याय 14*
श्रीगदाधर पंडित जी तथा श्रीगौरांग महाप्रभु जी की जय हो। श्रीमती जान्ह्वी देवी जी के प्राण स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की जय हो । सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी की जय हो तथा श्रीवास आदि सभी भक्तों की जय हो।
*श्रीहरिदास ठाकुर जी को हरिनाम का आचार्य कहा जाता है*
श्रीमन महाप्रभु जी ने कहा -मेरे प्रिय भक्त हरिदास !आपने सभी प्रकार के नामपराधों के तत्व को प्रकाशित किया है, उससे कलियुग के सभी जीवों को मंगल की प्राप्ति होगी । इसलिये तुम नाम तत्व के प्रतिष्ठित आचार्य हो।

  हे महापुरष ! तुम्हारे मुख से नाम तत्व श्रवण करके मैं ही उल्लसित हो गया हूँ। आप आचरण में तथा प्रचार में भी सुनिपुण हो। आप हरिनाम रूपी धन के धनी हो। श्रीरामानन्द राय जी ने मुझे रस तत्व की शिक्षा दी तथा आपने मुझे हरिनाम की महिमा सिखाई। आप अब सेवा अपराधों के बारे में बताइए।ये कितने प्रकार के होते हैं ताकि इसको सुनकर जीवों के चित्त में भरा अंधकार खत्म हो।

   श्रील हरिदास ठाकुर जी बोले -महाप्रभु ! आप एक ऐसे विषय पर मुझसे जिज्ञासा कर रहे हैं जिसे केवल सेवक लोग ही जानते हैं । मैं तो हर समय श्रीहरिनाम के आश्रय में रहता हूँ , इसलिए इस विषय के बारे में मैं क्या बोलूं , मुझे समझ नहीं आ रहा । परन्तु फिर भी मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता । सलिये आप मुझसे जो बुलवाएँगे मैं वही विस्तार से कहूंगा।
*सेवा अपराधों की संख्या*
हे गुनमणि गौरहरि! शास्त्र के अनुसार सेवा अपराध अनन्त प्रकार के होते हैं और यह सभी श्रीविग्रह से ही सम्बंधित होते हैं। किसी किसी शास्त्र में 32 प्रकार के तथा किसी किसी शास्त्र में 50 प्रकार के सेवा अपराधों का वर्णन है।
*सेवा अपराधों के चार विभाग*
बुद्धिमान व्यक्ति शास्त्रों की सहायता से इन सभी सेवा अपराधों को चार विभागों में विभाजित करते हैं।
1 श्रीमूर्ति सेवक निष्ठ अर्थात जो मूर्ति की सेवा करते हैं , उनके सम्बन्ध में अपराध
2 श्रीमूर्ति स्थापक निष्ठ अर्थात जो श्रीमूर्ति की स्थापना करते हैं , उनके सम्बन्ध में अपराध
3 श्रीमूर्ति दर्शननिष्ट अपराध अर्थात जो श्रीमूर्ति के दर्शन करते हैं उनके कुछ अपराध
4 सर्व निष्ठ अपराध अर्थात इन सबके लिए कई तरह के अपराध

*सेवा अपराधों के प्रकार*
पादुका या चप्पल पहनकर कोई मन्दिर में जाये, किसी वाहन में चढ़कर किसी मंदिर के सामने जाए, नंगे बदन मन्दिर जाए, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि उत्सव न मनाए , मन्दिर के सामने जाकर भी भगवान को प्रणाम न करे , जूठे मुंह या अपवित्र अवस्था मे भगवान की वंदना करे, एक हाथ से भगवान को प्रणाम करे, भगवान की ओर पीठ दिखाकर घूम जाए, भगवान की ओर पैर पसारे, भगवान से ऊँचे आसन पर बैठ जाये , भगवान के खुले मन्दिर के आगे सोये या भोजन करे, भगवान के आगे झूठ बोले, भगवान के आगे जोर से चिल्लावे या गप्पें मारे, भगवान के सामने किसी को प्रणाम करे या आशीर्वाद दे, भगवान के मंदिर के आगे झगड़ा करे, भगवान के आगे उनकी भक्ति के विरुद्ध कार्य करे, क्रूर भाषा का उपयोग करे, दूसरों की निंदा करे, भगवान के मंदिर में कम्बल ओढ़ कर जाए, भगवान के आगे दूसरों की तारीफ करे, भगवान के सामने अश्लील बातें करे या अश्लील हरकतें करें, भगवान के सामने अधोवायु छोड़े, समर्थ होते हुए भी भगवान की सेवा में कंजूसी करे , भगवान को भोग लगाए बिना खाये, भगवान के मन्दिर के सामने इस प्रकार बैठे की उनकी पीठ भगवान की ओर हो , भगवान के आगे किसी दूसरे का सम्मान तथा पूजा करे, गुरु की महिमा न बोलकर अपनी तारीफ करना तथा भगवान के आगे किसी देवता की निंदा करना - इस प्रकार के 32 अपराधों के बारे में महापुराण में वर्णन है।
*दूसरे शास्त्रों के अनुसार सेवा अपराधों का वर्णन*
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु ! अन्य शास्त्रों में भी कुछ सेवा अपराधों का वर्णन है जिन्हें मैं आपकी इच्छा अनुसार वर्णन करूंगा। सेवा अपराध निम्न प्रकार के हैं -
धनी विषयी का दिया हुआ भोजन करना , अंधेरे में ही मन्दिर में प्रवेश करके श्रीविग्रह को स्पर्श करना , शास्त्रों में दी गयी विधियों को छोड़कर भगवान को भोग तथा वस्त्र आदि निवेदन करना , घण्टा या ताली इत्यादि बजाए बगैर मन्दिर का दरवाजा खोलना, कुत्ते की नज़रों में पड़े भोजन का भोग लगाना, भगवान का अर्चन करते हुए बिना किसी कारण के बोलना, पूजा करते हुए बीच में से ही उठकर मन्दिर से बाहर आ जाना , भगवान को माला दिए बगैर उनकी पूजा करना, सुगन्ध रहित फूलों के द्वारा श्रीकृष्ण की पूजा करना, बिना नहाए श्रीकृष्ण की पूजा करना, स्त्री सम्भोग तथा रजस्वला स्त्री का स्पर्श करके बिना नहाए मन्दिर में पूजा करना, शव को देखने तथा स्पर्श करने के बाद बिना नहाए मन्दिर में पूजा करना, श्मशान घाट से वापिस लौट बिना नहाए पूजा करना, भगवान के सामने अधोवायु छोड़ना , अटपटे कपड़े पहनकर भगवान की पूजा करना, गुस्से में अथवा खाना पूरा हजम न हुआ हो या पान चबाते हुए मन्दिर में प्रवेश करना, अपने शरीर पर तेल मालिश करके मन्दिर में जाकर श्रीविग्रह को स्पर्श करना, अरण्ड के फूलों से भगवान का पूजन करना, आसुरिक काल जैसे आधी रात में अथवा जमीन पर बैठकर भगवान की पूजा करना, भगवान को शयन देते समय बाएं हाथ से उनका स्पर्श करना, बासी फूलों से या मांगकर लाये फूलों से भगवान का अर्चन करना, पूजा करते हुए डींगें मारना अथवा अनुचित बात बोलना , त्रिपुण्ड्र लगाकर भगवान श्रीकृष्ण की सेवा करना, बिना पैर धोए ही मन्दिर में पूजा के लिए जाना , अवैष्णव के हाथ से बनाये भोजन को भगवान के आगे निवेदन करना, अवैष्णवों को दिखा दिखाकर भगवान का अर्चन करना, भगवान की पूजा किये बगैर ही कपाली आदि तांत्रिकों का दर्शन करना , नाखून द्वारा स्पर्श हुए जल के द्वारा भगवान की पूजा करना, पसीने की बूंदों से मिले पानी से भगवान का अर्चन करना, भगवान श्रीकृष्ण की कसम खाना, भगवान को अर्पित माला व तुलसी इत्यादि को लांघना -इन सबसे सेवा अपराध बनते हैं ।भगवान की सेवा करने वाले साधक को चाहिए कि वह इन सबसे सावधान होकर भगवान की सेवा करे ताकि भगवान की सेवा में कोई
बाधा न हो।
*सेवक को सेवा अपराधों का त्याग करना चाहिए*
श्रीमूति के सम्बन्ध में जिनका भजन और पूजन है , उनको सेवा अपराधों का त्याग करना चाहिए। वैष्णव सदा से ही सेवापराध तथा नामापराध का त्याग करके श्रीकृष्ण की सेवा का आस्वादन करते रहे हैं । सेवापराधों के सम्बन्ध में जिसकी जिस प्रकार की सेवा है , वह उसी प्रकार से होने वाले अपराधों का ध्यान रखे तथा नामापराधों का त्याग भी वैष्णव के लिए अति आवश्यक है।

*भाव सेवा करने वाले साधक का अपराध न के बराबर होता है*
जो साधक श्रीमूर्ति के विरह में एकांत में रोते रोते सदा भाव से भजन करते हैं , यह नाम अपराध तो उनके लिए भी वर्जनीय हैं।यह दस प्रकार के नामापराध ही सब क्लेशों का कारण हैं । नामापराध नष्ट होने से भावमयी सेवा हो सकती है। भावमयी सेवा करने से अपराध नहीं बनते।

*नाम स्मरण वाले को ही भाव सेवा करनी चाहिए*
हे प्रभु ! हरिनाम करते करते जब आपकी कृपा से किसी जीव का भाग्य उदित होता है , तभी नाम सेवा से उसकी भाव सेवा उदित होती है। भक्ति के जितने भी प्रकार के साधन हैं , सब अन्त में नाम मे प्रेम प्रदान करते हैं , इसलिए नाम साधक हरिनाम करता रहता है और उसी में मग्न रहता है। हरिनाम में मग्न रहने वाला साधक दूसरी किसी भी साधना को नहीं करता है।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी की आज्ञा के प्रभाव से ही मैं , अकिंचन, श्रीहरिनाम चिन्तामणि का कीर्तन कर रहा हूँ।

  चतुर्दश अध्याय विश्राम

      जय निताई जय गौर

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