भाग 18 अध्याय 10

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

             भाग 18
        *अध्याय 10*

*श्रद्धाहीन व्यक्ति को नाम उपदेश करना अपराध है*

श्रीगदाधर जी , श्रीगौरांग व श्रीमती जांह्वा देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की जय हो। सीतापति अद्वैताचार्य जी की तथा श्रीवास पंडित आदि सब भक्तों की सर्वदा जय हो।

अपने दोनों हाथों को जोड़कर श्रीहरिदास ठाकुर जी महाप्रभु जी से कहते हैं -हे प्रभु! अब आगे के नाम अपराधों का श्रवण कीजिये।

*हरिनाम में श्रद्धा होने पर हरिनाम का अधिकार प्राप्त होता है*
श्रीहरिनाम में होने वाले दृढ़ विश्वास को श्रद्धा कहते हैं। यह श्रद्धा जिनके हृदय में उदित नहीं हुई, वे बाहिर्मुख व दुखशायी अथवा बुरे उद्देश्य वाले व्यक्ति हरिनाम नहीं सुन्ना चाहते क्योंकि उनका हरिनाम में अधिकार ही उतपन्न नहीं हुआ होता। श्रद्धावान व्यक्ति ही हरिनाम करने के उचित अधिकारी हैं। ऊंची जाति, ऊंचा कुल , दुनियावी ज्ञान, ताकत, विद्या एवम धन आदि हरिनाम का अधिकार देने के योग्य नहीं हैं । हरिनाम की महिमा में जिनका सदृढ़ विश्वास है , तमाम शास्त्रों में उन्हीं को श्रद्धावान कहा गया है।
*श्रद्धाहीन व्यक्ति को हरिनाम देने से नाम अपराध होता है*
वैष्णवों के आचरण के अनुसार उस व्यक्ति को हरिनाम दीक्षा प्रदान नहीं की जाती , जिनकी भगवान के नाम के प्रति श्रद्धा न हो । श्रद्धाहीन व्यक्ति यदि हरिनाम की दीक्षा प्राप्त कर लेते हैं , तो अवश्य ही हरिनाम की अवज्ञा करेंगे, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। जिस प्रकार सुअर को रत्न देने से वह उसे तोड़ फोड़ देगा , बन्दर को वस्त्र देने से वह उसे फाड़ देगा , उसी प्रकार श्रद्धाहीन व्यक्ति नाम को प्राप्त करके खुद अपराधी बन जाता है तथा साथ ही अपने गुरु को भी शीघ्र ही अभक्त बना देता है।
*श्रद्धाहीन व्यक्ति यदि हरिनाम के लिए प्रार्थना करे तो उससे किस प्रकार का व्यवहार करना उचित है*
श्रद्धाहीन व्यक्ति यदि कपटता करके वैष्णवों के पास जाकर हरिनाम मांगते हैं तो उसके धूर्तता पूर्ण वाक्यों को साधु पुरुष समझ लेते हैं और उन्हें कभी भी हरिनाम नहीं देते। साधु उन्हें बड़े स्नेह से कहते हैं कि तुम कपटता छोड़ दो तथा प्रतिष्ठा की आशा को छोड़कर हरिनाम में श्रद्धा करो। हरिनाम में श्रद्धा होने से अनायास ही तुम्हें हरिनाम मिल जाएगा और हरिनाम के प्रभाव से तुम इस संसार से पार हो जाओगे परन्तु जब तक तुम्हारी हरिनाम में श्रद्धा नहीं होती तब तक तुम्हारा हरिनाम लेने का कोई भी अधिकार नहीं है। तुम शुद्ध भक्तों के मुख से शास्त्रों में वर्णित हरिनाम की महिमा को श्रवण करो तथा प्रतिष्ठा की आशा को छोड़कर दीनता को अपनाओ।जब तुम्हारी नाम में श्रद्धा हो जाएगी , तभी हरिनाम रूपी महाधन के धनी , श्रील गुरुदेव तुम्हें हरिनाम रूपी महाधन प्रदान करेंगे।
धन के लोभ से यदि कोई श्रद्धाहीन व्यक्ति को हरिनाम देता है तो वह नामापराधी होकर नरक में जाता है।

*इस अपराध से छुटकारा प्राप्ति का उपाय*
असावधानी वश यदि श्रद्धाहीन व्यक्ति को यदि हरिनाम दे दिया जाए तो उससे गुरु के पतन होने का डर लगा रहता है। ऐसी अवस्था में गुरु को चाहिए कि वह वैष्णव समाज में जाकर श्रद्धाहीन व्यक्ति को हरिनाम देने के बारे में बताये और उस दुष्ट शिष्य को त्याग दे। ऐसा नहीं करने से इस अपराध के कारण वह गुरु धीरे धीरे भक्तिहीन तथा दुराचारी होकर माया के जाल में फंस जाता है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु ! आपने हरिनाम का प्रचार करने के लिए भक्तों को यह आदेश दिया है कि श्रद्धावान व्यक्ति को ही श्रीहरिनाम का उपदेश करें तथा गावँ गावँ तथा शहर शहर में जाकर श्रीहरिनाम की महिमा का प्रचार करें ।

श्रद्धा प्राप्त करके ही जीव सद्गुरु के सम्बन्ध में विचार करेगा । श्रद्धावान जीव सद्गुरु से श्रीहरिनाम ग्रहण करके अनायास ही श्रीकृष्ण रूपी प्रेम धन की प्राप्ति कर लेगा । गुरु को चाहिए कि वह चोर, वैश्य तथा कपटी आदि पापों में लिप्त व्यक्तियों की पापमय बुद्धि को समाप्त करके उनके हृदय में श्रीकृष्ण नाम के प्रति श्रद्धा उतपन्न करें। इस प्रकार के व्यक्तियों की जब हरिनाम में श्रद्धा उतपन्न हो जाए तो वे उन्हें हरिनाम प्रदान करें । इस प्रकार हरिनाम का उपदेश करके सारे विश्व का उद्धार करें।
*श्रद्धाहीन व्यक्ति को हरिनाम देने का फल*
पापियों की पापमय बुद्धि को खत्म न करके तथा उनके हृदय में भगवत नाम के प्रति श्रद्धा उतपन्न न करके जो व्यक्ति उन्हें हरिनाम धन प्रदान करता है , उसका इसी से पतन हो जाता है।श्रद्धाहीन शिष्य हरिनाम प्राप्त करके नामापराध करता है , जिससे गुरु की भक्ति रस प्राप्ति में बाधा पहुंचती है। इस अपराध के कारण गुरु और शिष्य दोनो ही नरक में जाते हैं ।

श्रीमन महाप्रभु जी को श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु ! आपने जगाई मधाई के प्रति कृपा की थी। हे गौरहरि ! आपने पहले उनके मन में श्रीहरिनाम के प्रति श्रद्धा उतपन्न की और फिर उन्हें हरिनाम प्रदान किया । इस अद्भुत चरित को सभी लोग श्रद्धा के साथ अपने जीवन में आचरण करें ।
श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि भक्तों के चरण तथा भक्तों की सेवा ही जिनका आनन्द है । श्रीहरिनाम चिंतामणि उनके गले का हार है।

दशम अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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