भाग9 अध्याय 4

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

            भाग 9
       *अध्याय 4*

*नाम परायण वैष्णव ही साधु हैं*

नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि इस प्रकार के अर्थात पहले जो कम अक्षरों में साधु के लक्षण बताये गए हैं, ऐसे साधु के मुख से जब मैं एक श्रीकृष्णनाम सुनता हूँ तो मैं उसे वैष्णव समझकर प्रणाम करता हूँ। क्योंकि वैष्णव ही जगद्गुरु हैं और वे ही जगत के बन्धु हैं। सभी वैष्णव जीवों के लिए कृपा के समुद्र होते हैं। इस प्रकार के वैष्णव की जो निंदा करते हैं , वे नरक में जाते हैं तथा जन्म जन्मान्तरों के चक्कर मे फंसे रहते हैं। वैष्णव कृपा को छोड़कर भक्ति पाने का कोई और दूसरा उपाय नहीं है।वैष्णव की कृपा से सब जीवों को भक्ति प्राप्त होती है। वैष्णवों के देह में श्रीकृष्ण शक्ति रहती है ऐसे वैष्णवों को स्पर्श करने से भी कृष्ण भक्ति उदित हो जाती है। वैष्णवों की जूठन, वैष्णवों के चरणों का जल, वैष्णवों की चरण धूलि -ये तीनों ही भक्ति की साधना में बल प्रदान करने में बड़े प्रभावशाली हैं।

*वैष्णव के द्वारा शक्ति संचार*
वैष्णव के निकट यदि कुछ समय बैठा जावे तो उनके शरीर से श्रीकृष्ण शक्ति निकलकर श्रद्धावान हृदय को स्पर्श करके उसके शरीर को थोड़ा कम्पाकर उसके हृदय मे भक्ति उदित कर देती है। जो श्रद्धा सहित वैष्णव के निकट बैठते हैं , उनके हृदय में भक्ति उदित होगी। जब किसी के हृदय में भगवत भक्ति उदित होगी तो सर्वप्रथम उस जीव के मुख से श्रीकृष्णनाम निकलेगा एवं हरिनाम के प्रभाव से वह तमाम सर्वगुणों को प्राप्त कर लेगा।

*वैष्णवों के किस किस दोष को देखने से वैष्णव निंदा होती है*

माना किसी वैष्णव का जन्म छोटी जाति में हुआ हो और कोई व्यक्ति उसका यह जाति दोष देखे या किसी ने श्रीकृष्ण के चरणों मे पूर्ण शरणागति लेने से पहले अगर कोई पाप किया हो और कोई उस पाप को याद करवा कर उस भक्त की निंदा करे अथवा अचानक किसी वैष्णव से कोई पाप कर्म हो जाये या कोई वैष्णव ऐसी स्थिति में हो कि पहले पाप कर्म करता था परन्तु अब वह शरणागत रहकर भजन करता है परन्तु थोड़े बुरे संस्कार अभी बाक़ी हैं जिनको देखकर ही कोई उसकी निंदा करे या उसका अपमान करे तो वह अज्ञानी, वैष्णव निंदक,यमदण्ड का भागी बनता है। वैष्णवों के मुख से ही श्रीकृष्ण महात्म्य का प्रचार होता है। ऐसे वैष्णवों की निंदा को श्रीकृष्ण बिल्कुल भी सहन नहीं करते । दुनियावी भोग दिलाने वाले धर्म कर्म यज्ञ अथवा मोक्ष दिलाने वाले ज्ञान कांड को भी छोड़कर जो श्रीकृष्ण का भजन करते हैं , वे ही सर्वोपरि हैं।

*देवी देवताओं व शास्त्रों की निंदा न करके जो हरिनाम का आश्रय लेते हैं , वे ही साधु हैं*

शुद्ध साधुजन , अन्य देवों एवम अन्य शास्त्रों की निंदा नहीं करते , वे तो एकमात्र श्रीकृष्ण नाम का आश्रय लेते हैं। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहने लगे -हे प्रभु!ऐसे हरिनाम का आश्रय लेने वाले साधु चाहे गृहस्थी हों या सन्यासी ,उनके चरणों की धूल को पाने का मैं सदा प्रयास करता रहता हूँ। मेरा तो यह अनुभव है कि जिसकी जितनी हरिनाम में रुचि है , वह उतना ही बड़ा वैष्णव है। इसमें वर्णाश्रम, धन, विद्वता,यौवन, रूप,बल व जन आदि कुछ भी महत्व नहीं रखता। इसलिये जिन्होंने हरिनाम का आश्रय लिया है,उन्हें अवश्य ही साधु निंदा छोड़ देनी चाहिए। श्रीहरिनाम का आश्रय रूपी शुद्ध भक्ति का आश्रय लेने वाले भक्त ही शुद्ध भक्त हैं।

भक्त के द्वारा भक्ति को छोड़ने से वह अभक्त हो जाता है।जहां साधु निंदा होती है , वहां भक्ति नहीं रहती। वह स्थान तो अपराध के स्थान में बदल जाता है।अतः साधकों को चाहिए कि वे साधु निंदा को छोड़कर , साधु भक्त की सेवा करेंगे। भगवान का भक्त हर समय साधु सँग व साधु सेवा करेगा, यही उसका धर्माचरण है, इसी का वह पालन करेगा।

*असत सँग दो प्रकार का है*
असत्संग का त्याग करना ही वैष्णवों का आचरण होता है। असत का सँग करने से साधु की बड़ी अवहेलना व अवज्ञा होती है।सभी शास्त्रों में असत दो प्रकार के कहे गए हैं ,उन दो में से एक स्त्री संगी है।स्त्री संगी के संगी का सँग करना भी उसी के अंतर्गत है। उसका सँग त्यागने से ही जीवन धन्य हो सकता है।

*स्त्री संगी किसे कहते हैं*
श्रीकृष्ण को केंद्र मानकर ग्रहस्थ आश्रम में जो दम्पति रहते हैं शास्त्रों में इसे असतसंग या स्त्रीसंगी नहीं कहा गया। अधर्म से स्त्री पुरुष आपस में मिलें हों अथवा शास्त्र अनुसार अपने वर्ण में अग्नि, पुरोहित ,माता पिता व रिश्तेदारों को साक्षी के रूप में रखकर विवाह करके भी जो व्यक्ति बहुत अधिक स्त्री के पराधीन होता है, शास्त्रों में उसे स्त्री संगी कहा गया है।यहां पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस प्रकार पुरुष के लिए अवैध स्त्री सँग व स्त्री में बहुत ज्यादा आसक्ति गलत है।उसी प्रकार स्त्री के लिए भी अवैध पुरुष का सँग अथवा आसक्ति गलत है।

   एक और प्रकार का असत सँग होता है वह यह है कि जो श्रीकृष्ण के भक्त नहीं है , ऐसे व्यक्तियों का सँग। अर्थात जो श्रीकृष्ण के भक्त नहीं है ऐसे अभक्त लोगों के सँग को भी असत सँग कहते हैं। ये श्रीकृष्ण अभक्त सँग तीन प्रकार के होते हैं-मायावादी ,धर्मध्वजी तथा निरीश्वरवादी व्यक्तियों का सँग।

जो भगवान के नित्यस्वरूप को स्वीकार नहीं करता, जो श्रीकृष्ण की श्रीमूर्ति को माया की, अर्थात लकड़ी , पत्थर आदि की समझते हैंएवम जीव को भी माया निर्मित तत्व कहते हैं , उन्हें मायावादी कहते हैं।ऐसे लोग जिनके अंदर भक्ति या वैराग्य लेशमात्र नहीं है , केवल अपने दुनियावी स्वार्थों को पूरा करने के लिए कपटता सहित साधु का वेश धारण करते हैं, उन्हें धर्मध्वजी कहा जाता है, तथा जो भगवान को न मानने वाले नास्तिक है उन्हें निरीश्वर वादी कहा जाता है।

इन सबका अर्थात मायावादी, धर्मध्वजी तथा निरीश्वरवादी के सँग का त्याग करने को साधु का अपमान या साधु निंदा नहीं कहते बल्कि जो व्यक्ति इनके सँग का त्याग करने को साधु निंदा कहता है , उसका सँग वर्जनीय है। ऐसे व्यक्तियों के सँग का भी परित्याग कर देना चाहिए। असत सँग को छोड़कर जो श्रीकृष्ण की अनन्य भाव से शरण लेकर श्रीकृष्णनाम करते हैं , वही श्रीकृष्ण के प्रेम धन को प्राप्त करते हैं।

*वैष्णव आभास, प्राकृत वैष्णव, वैष्णवप्राय और कनिष्ठ वैष्णव -यह सभी प्रर्यायवाची शब्द हैं*

जिनकी साधु सेवा में रुचि नहीं है किंतु जो लौकिक श्रद्धा से श्रीमूर्ति का अर्चन करते हैं , ऐसे वैष्णवों को प्राकृत वैष्णव कहते हैं।ये वैष्णव वास्तविक वैष्णव नहीं होते।ये वैष्णवों की तरह ही होते हैं,वैष्णव आभास कहा जा सकता है-ऐसे वैष्णवों को।यही कारण है कि इनकी गिनती कनिष्ठ वैष्णवों में होती है।ऐसों पर श्रेष्ठ वैष्णव स्वयम ही कृपा करते हैं।

*माध्यम वैष्णव*
श्रीकृष्ण में प्रेम ,श्रीकृष्ण भक्तों से मित्रता,बालिश पर कृपा एवम द्वेषी की उपेक्षा ,ये चार गुण मध्यम भक्त में होते हैं। मध्यम भक्त ही शुद्ध भक्त है। ऐसे भक्त श्रीकृष्ण नाम करने का अधिकार प्राप्त कर लेते हैं।

*उत्तम भक्त*
जिन्हें सर्वत्र ही श्रीकृष्ण दर्शन होता है, जो सभी प्राणियों में श्रीकृष्ण का दर्शन करते हैं , श्रीकृष्ण ही जिनके प्राणधन हैं , जो वैष्णव तथा अवैष्णव में भेद नहीं देखते , वे ही उत्तम वैष्णव है। श्रीकृष्ण नाम ही उनका सार सर्वस्व होता है।

*मध्यम वैष्णव ही साधु सेवा करते हैं*
इसलिए मध्यम वैष्णव हर समय साधु सेवा में रत्त रहते हैं।
*प्राकृत -वैष्णव नामाभास के अधिकारी हैं*

प्राकृत वैष्णव,या वैष्णव प्रायः या कनिष्ठ वैष्णव ही नामाभास के अधिकारी है-शास्त्र ऐसा कहते हैं।

*मध्यम वैष्णव ही नाम के अधिकारी है तथा वे ही नाम भजन में होने वाले अपराधों पर विचार करते हैं*
मध्यम वैष्णव ही एकमात्र हरिनाम के अधिकारी हैं तथा वे ही नाम भजन में अपराध का विचार करते हैं।वैष्णव के अपराध की संभावना नहीं रहती क्योंकि वे सर्वत्र ही श्रीकृष्ण का वैभव देखते हैं। अपने अपने अधिकारों का विचार करके साधु निंदा छोड़नी चाहिए। साधु सँग, साधु सेवा,श्रीनाम संकीर्तन तथा सभी जीवों पर दया करना ही भक्तों का आचरण है।

*साधु निंदा होने पर क्या करना चाहिए*
असावधानी वश यदि अचानक के कभी साधु निंदा हो जाये, तब प्रायश्चित के साथ, उस साधु के चरणों को पकड़ लेना चाहिए तथा उनके चरणों मे पड़कर रोते रोते कहना चाहिए-प्रभु!मेरा अपराध क्षमा करो।हे वैष्णव! इस दुष्ट निंदक पर कृपा करो।इतना करने मात्र से वह तुम्हें क्षमा कर देंगे तथा कृपा पूर्वक तुम्हारा आलिंगन कर लेंगे।

भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के पादपदमों के जो भौरे हैं , श्रीहरिनाम चिंतामणि ही उनका जीवन है।

चतुर्थ अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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