भाग 13 अध्याय 6

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

           भाग 13
         *अध्याय 6*

*वैष्णव सम्प्रदाय के गुरु का वरण करना ही अनिवार्य है*
वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य को ही शिक्षा गुरु मानना चाहिए। अन्य मतों के विद्वानों की शिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। वैष्णव सम्प्रदाय के सिद्धांतों में सुशिक्षित एवं चरितवान ही दीक्षा गुरु होने के योग्य है, ऐसा वैष्णव सिद्धांतो का मत है।
*मायावादियों से कृष्ण नाम मन्त्र लेने पर परमार्थ नहीं बनता इसलिए शुद्ध भक्त को छोड़ किसी को भी गुरु मत बनाना*
मायावादियों से श्रीकृष्ण मन्त्र प्राप्त कर जीव कभी भीपरमार्थ पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। जो व्यक्ति श्रीकृष्ण भक्ति को छोड़कर और और शिक्षा लेते या देते हैं, दोनो ही नरक में जाते हैं।शुद्ध भक्ति को छोड़कर जो अन्य मतवादों की शिक्षा ग्रहण करते हैं , उसका जीवन यूँ ही तर्क वितर्क में बीत जाता है। ऐसे तर्क वितर्क में फंसा जीव भला गुरु कैसे हो सकता है तथा दूसरों का भला कैसे करेगा।जो स्वयम ही सिद्ध नहीं तथा अमंगलों से घिरा हुआ है, वह दूसरे का मंगल क्या करेगा।चाहे वह किसी भी कुल में उतपन्न क्यों न हो , वह गुरु होने के लिए उपयुक्त नहीं ऐसा शास्त्र कहते हैं।

             *गुरु तत्व*
शिक्षा गुरु तथा दीक्षा गुरु दोनो ही श्रीकृष्ण के दास हैं। तत्व से दोनो ही ब्रजवासी हैं एवं श्रीकृष्ण की शक्ति के प्रकाश हैं।शिष्यों को चाहिए कि वह अपने गुरुदेव को कभी सामान्य जीव न समझे, क्योंकि श्रील गुरुदेव श्रीकृष्ण की शक्ति , श्रीकृष्ण के प्रिय एवं शिष्यों के लिए नित्य सेव्य हैं।शुद्ध वैष्णवों का मत है कि गुरुदेव को साक्षात कृष्ण नहीं समझना चाहिए । गुरुदेव को श्रीकृष्ण समझना शास्त्रीय दृष्टि से अनुचित है।इसे मायावादी मत कहते हैं।अतः गुरुदेव को श्रीकृष्ण की शक्ति तथा श्रीकृष्ण का प्रिय जानकर जो शिष्य सदैव उनकी सेवा करता है , वह गुरु सेवा के प्रभाव से इस संसार से पार हो जाता है।
          *गुरु पूजा*

सबसे पहले गुरु पूजा करनी चाहिए। उसके पश्चात श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए। गुरुपूजा के समय गुरुदेव को श्रीकृष्ण का प्रसाद अर्पित करना चाहिए। अर्थात पूजा के समय पहले तो गुरु पूजा करें तथा गुरु जी से अनुमति लेकर श्रीराधाकृष्ण की पूजा करें। परन्तु भोग लगाते समय भगवान श्रीराधा कृष्ण को अर्पित करें तथा ततपश्चात उनका प्रसाद श्रीगुरुदेव जी को अर्पित करें तथा गुरुदेव जी से आज्ञा लेकर प्रेम के साथ श्रीकृष्ण की पूजा करें तथा श्रील गुरुदेव को स्मरण करते हुए मुख से भगवत नाम का कीर्तन करें।

*गुरु के प्रति किस प्रकार की श्रद्धा रखना उचित है*
यदि कोई गुरु की अवज्ञा करता है तो उसका अपराध होता है। इस प्रकार के अपराध से उसके भक्ति मार्ग में बाधा उतपन्न होती है। गुरुदेव, श्रीकृष्ण तथा वैष्णवों में समबुद्धि करते हुए अर्थात पूज्य भाव से सेवा करते हुए जो श्रीहरिनाम का आश्रय करते हैं,वे ही शुद्ध भक्त हैं और वे शीघ्र ही भवसागर से पार हो जाते हैं। जो साधक अपने गुरु में दृढ़ श्रद्धा रखते हैं, वे हरिनाम के प्रभाव से श्रीकृष्ण प्रेम रूपी धन को पा लेते हैं।

*कौन सी परिस्थिति में गुरु का अथवा शिष्य का त्याग करना चाहिए*
दुर्भाग्यवश यदि कभी ऐसा हो कि गुरु असत सँग में पड़ जाए तो असत सँग के प्रभाव से उनकी योग्यताएं खत्म हो जाती हैं। यह ठीक है कि पहले वह एक अच्छे सद्गुरु थे परंतु बाद में नामापराध से उनका ज्ञान नष्ट हो गया। ऐसे में यदि वे वैष्णवों से विद्वेष करके , हरिनाम रूपी श्रेष्ठ भजन छोड़कर , धन दौलत एवं कामिनी के वशीभूत हो जावे तो ऐसे गुरु का त्याग कर देना चाहिए।पुनः श्रीकृष्ण की कृपा से प्राप्त सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करके शुद्ध रूप से श्रीहरिनाम करना चाहिए।
  इधर सद्गुरु को भी चाहिए कि वह अपने अयोग्य शिक्षक को दण्ड क्योंकि अयोग्य शिष्य को पालते रहने से वह उद्दंड हो जाता है। दूसरी ओर शिष्य को भी चाहिए कि वह अयोग्य गुरु को छोड़ दे अन्यथा अयोग्य गुरु के पास रहने से शिष्य पाखंडी हो जाता है।जब तक गुरु व शिष्य दोनो की योग्यता ठीक रहती है, तब तक दोनो का सम्बन्ध बनाये रखना चाहिए और उस सम्बन्ध का त्याग नहीं करना चाहिए।

*परीक्षा के बाद ही सद्गुरु का वरण करना चाहिए*
शुद्ध भक्त की ही गुरु रूप में स्वीकार करे जिससे भविष्य मे कभी भी गुरु को त्याग करने का क्लेश ही न हो। साधक यदि सोच समझकर सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करेगा तो उसे भविष्य में संकट में नहीं पड़ना पड़ेगा।यदि गुरु भक्तिहीन होंगें तो शिष्य भी ऐसे होंगें, इसलिए परीक्षा करने के बाद साधक किसी को सद्गुरु के रूप में स्वीकार करे। सद्गुरु की अवज्ञा करना भयंकर अपराध है । इस अपराध से देवता व मनुष्य सभी नष्ट हो जाते हैं।

*गुरु सेवा की प्रक्रिया*
गुरुदेव के विश्राम करने वाला बिस्तर, पादुका, वाहन, चरण रखने वाला आसन तथा उनके स्नान के जल का कभी निरादर नहीं करना चाहिए।यहां तक कि कभी उनकी परछाईं को भी नहीं लांघना चाहिए। अपने गुरुदेव के सामने किसी और की पूजा नहीं करनी चाहिए , न ही किसी को दीक्षा देनी चाहिए।गुरुदेव के सामने कभी भी अपना बड़पन्न नहीं दिखाना चाहिए।जहां कहीं भी गुरुदेव के दर्शन हों भूमि पर लेटकर उन्हें दण्डवत करके उनकी वन्दना करनी चाहिए।गुरुदेव का नाम बहुत ही आदरपूर्वक उच्चारण करना चाहिए।गुरुदेव जी की आज्ञा को कभी टालना नहीं चाहिए। गुरु जी को प्रसाद अवश्य ग्रहण करवाना चाहिए।
श्रील गुरुदेव को कभी कड़वे वचन नहीं बोलने चाहिए। श्रुतियाँ कहती हैं कि अति दीनता के साथ गुरु जी के चरणों मे शरणागत होकर उनको प्रसन्न करने वाला आचरण करना चाहिए।इस प्रकार के आचरण से श्रीकृष्ण संकीर्तन करने पर सर्वसिद्धि होती है तथा भगवानल की प्राप्ति होती है। दुष्ट सँग के प्रभाव से अथवा अप्रमाणिक शास्रों को पढ़कर यदि किसी व्यक्ति से श्रीहरिनाम प्रदान करने वाले गुरुदेव का अनादर हो जाये तो गुरुदेव के पादपदमों में विलाप करते हुए क्षमा प्रार्थना करें।दयालु गुरुदेव उस साधक के नाम अपराध को क्षमा कर उसे शुद्ध श्रीकृष्ण नाम प्रदान करेंगे।

श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी की चरण रज ही जिनका भरोसा है , ऐसा तिनके से भी छोटा तुच्छ से तुच्छ जीव श्रीहरिनाम चिंतामणि का गान करता है।

छठा अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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