भाग 16 अध्याय 8

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

            भाग 16
          *अध्याय 8*

     *हरिनाम में अर्थवाद*
श्रीगौर गदाधर तथा श्रीश्री राधामाधव की जय हो। श्रीमन महाप्रभु जी की सभी लीला स्थलियों की जय हो , गंगा जी की तथा समस्त वैष्णव भक्तों की जय हो।

  श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे शचीनन्दन ! हे गौरहरि! श्रीहरिनाम में अर्थवाद की कल्पना अर्थात शास्त्रों में हरिनाम की महिमा बढ़ा चढ़ा कर लिखी गई है, ऐसा मानना अपराध है।

       *नाम महिमा*
स्मृति शास्त्र कहते हैं कि श्रद्धा से अथवा अनायास ही कोई श्रीकृष्ण नाम लेता है तो दयालु श्रीकृष्ण दया के वशीभूत होकर उस पर कृपा करते हैं। श्रीहरिनाम के समान कोई निर्मल ज्ञान नहीं है। श्रीहरिनाम करने के समान और कोई भी प्रबल व्रत नहीं है। इस जगत में श्रीहरिनाम करने के समान कोई भी ध्यान नहीं है।श्रीहरिनाम के समान कोई श्रेष्ठ फल नहीं है।  श्रीहरिनाम के समान कोई त्याग भी नहीं है ।श्रीहरिनाम के समान कोई पुण्य नहीं है। हरिनाम के बराबर तो कुछ भी नहीं है । विचार करने से मालूम पड़ेगा कि श्रीहरिनाम के समान गति किसी भी साधन में नहीं है। अतः श्रीहरिनाम ही परम मुक्ति है । श्रीहरिनाम ही श्रेष्ठ नाम है। श्रीहरिनाम से ही उच्चतम गति की प्राप्ति होती है। श्रीहरिनाम ही परम शांति स्वरूप है। श्रीहरिनाम ही उच्चतम स्थिति है। श्रीहरिनाम ही श्रेष्ठतम भक्ति है। श्रीहरिनाम से ही मति शुद्ध होती है। श्रीहरिनाम से ही श्रीकृष्ण में परम प्रीति होती है। श्रीहरिनाम ही श्रेष्ठतम स्मृति है। श्रीहरिनाम ही कारण तत्व हैं । श्रीहरिनाम ही सबके प्रभु हैं। श्रीहरिनाम ही परमाराध्य हैं। श्रीहरिनाम ही सब गुरुओं में से श्रेष्ठतम गुरु हैं।

*श्रीकृष्णनाम की सर्वोतम्मता*
एक हज़ार विष्णु नाम के बराबर एक राम नाम होता है जबकि तीन राम नाम के बराबर एक कृष्ण नाम होता है।

*नाम में अर्थवाद करने से अवश्य ही नरक गति होती है*
श्रुति शास्त्र हमेशा ही श्रीहरिनाम कि महिमा का गान करते रहते हैं तथा जगतवासियों को बताते हैं कि भगवतनाम चिन्मय तत्व हैं । श्रुति व स्मृति शास्त्रों के द्वारा प्रदर्शित श्रीहरिनाम की महिमा को पाखंडी लोग अर्थवाद कहते हैं । उनका कहना है कि यह महिमा तो बढ़ा चढ़ा कर लिखी गयी है। जो अधम जीव श्रीहरिनाम में अर्थवाद करते हैं , वह पापी नरक में सड़ सड़ कर मरते हैं।हरिनाम का जो फल श्रुति शास्त्रों में वर्णित है, वह सत्य नहीं है, केवलमात्र हरिनाम में रुचि उत्तपन्न करने को यह सब कहा गया है - ऐसा जो लोग कहते हैं वह शास्त्रों के सही तातपर्य को नहीं जानते हैं तथा वह अधम जीव यह भी नहीं जानते हैं कि जीव का मंगल या अमंगल किस बात में है। वह तो अपने दिमाग से ही हर बात का अल्प अर्थ सोचते हैं।
*श्रीहरिनाम का फल सत्य है*
कर्मकांड में जैसी कपटता व स्वार्थ बुद्धि भरी पड़ी है , वह भक्तितत्व अर्थात श्रीहरिनाम में नहीं है। श्रीहरिदास ठाकुर जी का मानना है कि कर्मकांड में रुचि उतपन्न करने के लिए उसमें बहुत तरह के फलों का प्रलोभन दिया गया है परंतु भक्तितत्व में वर्णित फल, मात्र प्रलोभन नहीं , वरन नित्य सत्य है।

   श्रीहरिनाम के समान कुछ भी नहीं है तथा श्रीहरिनाम देने वालों का अपना कुछ भी स्वार्थ नहीं होता। जो श्रद्धावान व्यक्ति को श्रीहरिनाम प्रदान करते हैं , वह ऐसा करके श्रीकृष्ण की भक्ति ही करते हैं जबकि कर्मकांड के द्वारा यज्ञ कराने वालों को धन का लोभ रहता है। इसलिए उसमें कपटता का प्रभाव आ ही जाता है। वेद व स्मृतियां भगवान के नाम के फल की अनन्त महिमा बखान करती हैं परंतु स्वार्थी व्यक्ति इसे नहीं मानते।कर्मकांडी व्यक्ति श्रीहरिनाम करते हुए बहुत प्रकार के शुभ व अशुभ सांसारिक फलों की इच्छा रखते हैं । फल की कामना को त्यागकर जो कर्म करते हैं , उनका हृदय विशुद्ध हो जाता है तथा विशुद्ध हृदय में सांसारिक विषयों से वैराग्य तथा आत्मतत्व में अनुराग उदित होता है। धीरे धीरे यह अनुराग ही प्रगाढ़ प्रेम में परिवर्तित हो जाता है।

*श्रीहरिनाम चिन्मय हैं , उनमें अर्थवाद हो ही नहीं सकता*
श्रीहरिनाम करने से आत्मसाक्षात्कार व आत्मरति स्वतः ही हो जाती है । साधन काल में ही हरिनाम साध्य वस्तु का कुछ अनुभव करवा देते हैं । निष्काम कर्म का चर्मफल , हरिनाम में रुचि उतपन्न होना है। सत्य वस्तु के लिए किया गया निष्काम कर्म निश्चित रूप से हरिनाम के प्रति श्रद्धा उतपन्न करता है। हरिनाम उस फल को, बड़ी सरलता व शीघ्रता से प्राप्त करते हैं, जो कि चौदह लोकों में भृमण करने वाला ब्राह्मण भी प्राप्त नहीं कर सकता। प्रत्येक दृष्टि से हरिनाम का फल सर्वोपरि ही है। कर्मी व ज्ञानी अपनी ईर्ष्या के कारण कितना भी प्रयास कर लें , नाम महिमा का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते।

*नामाभास के द्वारा सभी कर्मों का व ब्रह्मज्ञान का फल प्राप्त होता है।*
नामाभास होने मात्र से ही सभी कर्मों तथा ज्ञान का फल प्राप्त हो जाता है। हरिनाम के नामाभास से ही यदि इतना फल मिलता है तो शुद्ध हरिनाम क्या दे सकता है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतएव शास्त्रों में जितनी भी हरिनाम की महिमा कही गयी है , शुद्ध नामाश्रित भक्त उसे निश्चित रूप से प्राप्त करता है। इसमें जिसको सन्देह है , वह व्यक्ति अधम है तथा नाम अपराध से अवश्य ही उसका पतन हो जाएगा। वेदों में, रामायण में, महाभारत में तथा पुराणों के प्रारंभ में , मध्य में तथा अंत में हरिनाम की ही महिमा वर्णित की गई है। वेद वाक्यों में जो हरिनाम की महिमा गाई गयी है , वह अनादि तथा अटल है । इसमें अर्थवाद की कल्पना करके भला क्या फल मिलेगा ?अर्थात हमारे द्वारा यह बड़ी भारी भूल होगी या यह हमारा अपराध ही होगा कि यह गलत धारणा हम मन में बनाये रखें कि हरिनाम की जो महिमा शास्त्रों में वर्णित है , ये सब काल्पनिक है।
*श्रीहरिनाम की शक्ति, ज्ञान एवं कर्म की शक्ति की अपेक्षा अनन्त गुणा अधिक है*
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान चैतन्य महाप्रभु जी से कहते हैं कि नाम और नामी एक ही हैं । हे प्रभु ! आपने अपने नाम में तमाम शक्तियों का समावेश करके श्रीहरिनाम संकीर्तन को सर्वश्रेष्ठ भक्ति बना दिया है।हे प्रभु!आप पूर्ण स्वतंत्र हैं तथा सर्वशक्तिमान हैं । आपकी इच्छा से ही विधि का विधान चलता है । आपने अपनी इच्छा अनुसार कर्म को जड़ बनाया है अर्थात कर्म से केवल दुनियावी वस्तुओं की ही प्राप्ति हो सकती है, जबकि आपने ही ज्ञान में मोक्ष प्रदान करने की शक्ति भर दी है । हे प्रभु ! आप स्वतंत्र इच्छामय हो। आपने अपने ही नाम अक्षरों में अपनी सारी शक्तियां भर दी हैं , इसलिए आपका नाम भी आपकी तरह सर्वशक्तिमान है।अतः जो बुद्धिमान पुरुष हैं , वे नाम में अर्थवाद नहीं करते।

*इस अपराध से मुक्त होने का उपाय*
यदि नाम के प्रति अर्थवाद रूपी अपराध हो जाये तो बड़ी दीनता के साथ वैष्णव सभा में जाकर वैष्णवों से अपने अपराध के बारे में निवेदन करना चाहिए तथा दुखी मन से नामापराध के प्रति क्षमा याचना करनी चाहिए। हरिनाम की महिमा को जानने वाले भक्त आप पर कृपा करते हुए आपको क्षमा करेंगें। श्रीहरिनाम की अनन्त महिमा पर विश्वास न करते हुए हरिनाम में अर्थवाद की कल्पना करने की चेष्ठा करना केवल मात्र माया की विडंबना है। नाम में अर्थवाद रूपी अपराध करने वाले के साथ यदि कभी बातचीत हो जाये तो उसी अवस्था मे कपड़ों के साथ गंगा स्नान करना चाहिए।

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण की प्रिय वंशी की कृपा में जिनका विश्वास है, श्रीहरिनाम चिंतामणि ही उनका अलंकार है।

अष्टम अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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