भाग 25 अध्याय 15

*श्रीहरिनाम चिन्तामणि*

          भाग 25
      *अध्याय 15*

*रस का विभाव उद्दीपन*
श्रीकृष्ण के रूप, गुण, इत्यादि सभी उद्दीपन हैं । यह आलम्बन तथा उद्दीपन दोनो विभाव के अंतर्गत हैं।

*विभाव से अनुभाव प्रकट होता है*
विभाव सम्पूर्ण होने से अनुभाव होता है। श्रीकृष्ण शुद्ध प्रेम के सभी विकार अनुभाव कहलाते हैं। प्रेम के यह सभी विकार शुद्धमय ही होते हैं।
*जब संचारी भाव और सात्विक भाव के मिलन में विभाव काम करता हूं तब स्थायी भाव ही रस होता है*
सभी शास्त्रों में कहा गया है कि जब संचारी भाव और सात्विक भाव के मिलन में विभाव काम करता हूं तब स्थायी भाव ही रस होता है

*रस पान का क्रम*
श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान श्रीचैतन्यदेव महाप्रभु जी को कहते हैं कि मैं तो इस दिव्य रस को ही सभी का सार तथा सभी सिद्धियों का सार समझता हूँ -सभी शास्त्र कहते हैं कि ये रस ही जीवों का परम पुरुषार्थ है।भक्ति के उन्मुख जीव शुद्ध गुरु की कृपा से श्रीराधा कृष्ण जी के युगल मन्त्र को अर्थात हर कृष्ण महामन्त्र को सौभाग्य से प्राप्त करता है तथा परम् आदर के साथ तुलसी माला पर सँख्यापूर्वक नाम संकीर्तन करता है। एक ग्रंथि अर्थात 16 माला पच्चीस हजार हरिनाम से आरम्भ करके धीरे धीरे तीन लाख नाम का जप करें , इससे आपके मन की इच्छा पूर्ण हो जाएगी।

  माला में जो भी निश्चित संख्या रखकर आप हरिनाम करते हैं उसमें से कुछ नाम आप थोड़ा जोर जोर से उच्चारण करते हुए करें।इससे सारी इंद्रियों में स्फूर्ति होगी तथा आनन्द से नृत्य करने को मन करेगा तथा तुम नाचोगे ।भक्ति के नो प्रकार के अंग श्रीहरिनाम का आश्रय करते हैं। फिर भी इनमें कीर्तन और स्मरण सर्वश्रेष्ठ है।

*अर्चन मार्ग तथा श्रवण मार्ग के अधिकार भेद से क्रिया में भेद*
अर्चन मार्ग में जिसकी गाढ़ रुचि है , उसे उसी से ही श्रवण कीर्तन की सिद्धि मिल जाएगी।हरिनाम में जिसकी एकांतिक प्रीति होती है , वह केवल भगवान की कथा श्रवण , कीर्तन और स्मरण ही करेगा।
*नाम श्रवण , कीर्तन और स्मरण में क्रम*
हरिनाम का जप करने से अपने आप ही बड़ी आसानी सड़ भक्ति के अन्य अंग जैसे सेवा,प्रणाम, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन आदि का पालन होता है। नाम और नामी एक तत्व हैं, ऐसा विश्वास करके दस नामापराधों को त्याग कर जो साधक निर्जन स्थान में बैठकर भजन करता है, उस पर हरिनाम प्रभु दयावश होकर अपने श्यामसुंदर रूप में उसके हृदय में प्रकाशित हो जाते हैं। जब साधना में नाम और रूप एक ही जैसा अनुभव हो जाता है , तब नाम लेने से ही हर समय भगवान का रूप भी चित्त में आ जाता है । यही नहीं थोड़े दिन बाद जब भगवान का नाम, भगवान का रूप तथा भगवान के गुण एक ही हैं ऐसा अनुभव में आता है , तब हरिनाम उच्चारण करने के साथ साथ नाम , रूप तथा गुण एक साथ भक्त के चित्त में आ जाते हैं।
*मन्त्र ध्यानमयी उपासना*
मन्तरध्यानमयी इस हरिनाम कज उपासना में साधक प्राथमिक धारा के रूप में हरिनाम का ही विशेष रूप से चिंतन करता है। स्मरण के समय योगपीठ में कल्पवृक्ष के नीचे ब्रज के गोप व गोपियों के बीच में श्रीकृष्ण का कौतूहल पूर्वक दर्शन करता है।तभी उसके शरीर मे सभी सात्विक भाव प्रकट होते हैं तथा वह भक्त भजन के आनन्द से पुलकित हो जाता है। धीरे धीरे जब हरिनाम अपनी सुगन्ध बिखेरता है तब भक्त उसमें प्रफुल्लित हो जाता है तथा तभी अष्टकालीय लीला उसके चित्त में प्रकाशित हो जाती है।
*अपने रस की उपासना*
अपने रस की उपासना तब उदित होगी जब साधक भगवान श्रीकृष्ण नन्दनन्दन के धाम में उनका दर्शन करता है, एवम सद्गुरु की कृपा से सिद्ध देह से सखियों सँग भगवान की लीला में प्रवेश करता है। महाभाविनी स्वरूप जो श्रीराधा जी हैं उनके आनुगतय में सदा भक्ति करता है। उस लीला में वह रसिक भक्त श्रीकृष्ण के मधुर रस की जो भक्त हैं - गोपियाँ, उनकी आज्ञा अनुसार भगवान श्रीराधाकृष्ण के युगल रूप की सेवा करता है और महाप्रेम में मगन हो जाता है।

  हे गौरहरि! आपकी कृपा से इस साधना में भजन साधन और भजन की सिद्धि वाली स्थिति काफी नजदीक हो जाती है अर्थात दोनो की दूरियां काफी कम हो जाती हैं । यही नहीं आपकी कृपा से साधक का सूक्ष्म शरीर खत्म हो जाता है और उसे स्वरूप की सिद्धि प्राप्त हो जाती है।

*इससे श्रेष्ठ अवस्था का वर्णन नहीं किया जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता है*
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि इससे आगे तो मुझसे बोला नहीं जा रहा । इससे आगे की स्थिति तो आपकी कृपा से ही अनुभव हो सकती है। हे गौरहरि! यह ही सर्वश्रेष्ठ साधना व उज्ज्वल रस है , इससे बिल्कुल निश्चित है -श्रीकृष्ण प्रेम की भक्ति।

*साधना के ग्यारह भाव*
उज्ज्वल रस की साधना में ग्यारह प्रकार के भाव होते हैं जो कि बड़े ही चमत्कारिक होते हैं। वे हैं - सम्बन्ध, उम्र, नाम,रूप, यूथ प्रवेश, वेश, आज्ञा,वासस्थान, सेवा, पराकाष्ठा तथा पालय दासी भाव।
*भाव की साधना में पांच दशाएं होती हैं*
सम्पूर्ण साधना में तो उपरोक्त ग्यारह भाव होते हैं जबकि भाव की साधना करते समय साधक के जीवन मे निम्नलिखित पांच दशाएं उदित होती हैं-श्रवण दशा, वरण दशा, स्मरण दशा,आपन दशा तथा सम्पति दशा।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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