भाग 15 अध्याय 7

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

           भाग 15
        *अध्याय 7*

*अभिदेय नवधा भक्ति*
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजन, वन्दन, पादसेवन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन इस नवधा भक्ति में श्रीनाम संकीर्तन ही सर्वशिरोमणि है। वेदों में भी भगवान के नाम प्रणव ॐ की विशेष महिमा गाई गई है।

   *प्रयोजन कृष्ण प्रेम*
मानव शुद्ध भक्ति का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण कृपा के प्रभाव से भगवत प्रेम प्राप्त करता है।
*इस प्रकार की शिक्षा देने वाले श्रुति शास्त्रों की निंदा करना अपराध है*
यह नो प्रमेय वेदों में वर्णित होने के कारण पूर्ण रूप से प्रमाणिक हैं । सद्गुरु इन नो प्रमेयों को भली भांति समझते हैं तथा अपने शिष्यों को समझाते हैं। इस प्रकार के श्रुति शास्त्रों की जो निंदा करता है वह जीव नाम अपराधी तथा नराधम है।

    *वेद विरुद्ध वाद*
जैमिनी, कपिल, नगन, नास्तिक, सुगत तथा गौतम ये छः व्यक्ति हेतुवाद से ग्रस्त हैं। जैमिनी मुख से तो वेदों को मानते हैं परन्तु ईश्वर को नहीं मानते। उनका कहना है कि कर्मकांड ही श्रेष्ठ है। कपिल की कल्पना में ईश्वर असिद्ध हैं, काल्पनिक है परंतु फिर भी उन्होंने योगमार्ग की शिक्षा दी है।उसका तातपर्य क्या है समझ में नहीं आता है। नगन ने तामस तंत्र का विस्तार करके वेद विरुद्ध धर्म का प्रचार किया। नास्तिक चावराक तो कभी भी वेद को नहीं मानते । सुगत तो बौद्ध धर्म का पालन करते हैं , वे हलग की तरह व्याख्या करते हैं । न्याय दर्शन के रचयिता गौतम, भगवान को नहीं मानते । इनके हेतुवाद में मनुष्य उलझे हुए हैं। विद्वान भगवत भजन जानते हैं कि इन सब दुष्ट मतवादों के द्वारा कभी स्पष्ट रूप से तो कभी अस्पष्ट रूप से श्रुति शास्त्रों की निंदा होती रहती है। इन सब मतों में पड़ने से अपराध निश्चित है , इसलिए दृढ़ता के साथ इन मतवादों से दूर रहना चाहिए।
*मायावादी अति ही दुष्ट एवं वेद विरुद्ध मत है*
ऊपर लिखे मतवादों को तथा मायावाद को छोड़ने से ही मानव निर्विवाद रूप से शुद्ध भक्ति रस का आस्वादन कर सकता है। मायावाद असत शास्त्र है और एक तरह का गुप्त मत है । इसमें वेदों के अर्थ की विकृति की गई है परंतु यह कलिकाल में प्रसिद्ध है।
श्रीहरिदास ठाकुर जी श्रीमन महाप्रभु जी से कहते हैं-हे प्रभु ! आपकी आज्ञा से ही उमापति महादेव जी ने ब्राह्मण रूप में आकर इस मायावाद रूप को प्रकाशित किया तथा मायावाद के आचार्य बने। जैमिनी ने जिस प्रकार सिर्फ मुख से वेद को मानते हुए श्रुति शास्त्र के परिवर्तित अर्थों की व्याख्या की , उसी प्रकार मायावादी गुरुओं ने प्रच्छन्न (ढके हुए)बौद्ध धर्म को वेदवाक्यों के द्वारा स्थापितकरके भगवत भक्ति के असली मर्म को ही ढक दिया । इन सब मतवादों को स्वीकार करने से जीव भक्ति से दूर हो जाता है तथा उसका श्रीकृष्ण के प्रति नाम अपराध हो जाता है।
*वेदों के विचारानुसार शुद्ध प्रक्रिया*
वेदों की अभिधवृति (मुख्य अर्थ)को ग्रहण करने से शुद्ध भक्ति की प्राप्ति होती है जिससे वह श्रीकृष्ण रूपी प्रेम धन से धनी हो जाता है किंतु वेद वाक्यों में अनुचित रूप से लक्षणावृति (घुमा फिरा कर किया हुआ अर्थ) का प्रयोग करने से नित्य सत्य से जीव दूर रहता है और अपराध में ही फंसता चला जाता है। प्रणव(ॐ) श्रीकृष्ण नाम सभी वेदों द्वारा सम्मत है अर्थात सभी वेदों की राय है। महावाक्य प्रणव(ॐ) ही श्रीकृष्णनाम है। उस श्रीकृष्ण नाम को करने से भक्तजन आनन्दमय वैकुंठ गोलोक धाम को प्राप्त करते हैं। वेदों में कहते हैं कि इस जगत में भगवान नाम ही चिदस्वरूप है, जिसके आभास मात्र से सब प्रकार की सिद्धि हो जाती है।
*वेद केवल शुद्ध नाम भजन की शिक्षा देते हैं*
दुर्भाग्यशाली व्यक्ति ही वेद की इन शिक्षाओं को न मानकर, वेद की निंदा करते हुए नाम अपराध करते हैं किंतु जो शुद्ध नाम परायण भगवत भक्त लोग हैं , वह वेदों का आश्रय लेकर नाम रस रूपी प्रेम धन को प्राप्त करते हैं।सभी वेद कहते हैं कि श्रीहरिनाम ही सार है, उसका कीर्तन करो। ऐसा करने से आपकी भगवान में प्रगाढ़ प्रीति होगी तथा तुम्हे असीम आनन्द का अनुभव होगा। यही नहीं , वेद और भी कहते हैं कि जितने भी संसार से मुक्त महाजन हैं , वे वैकुंठ धाम में सदा सर्वदा श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन ही करते रहते हैं।

*तामस तंत्रों की शिक्षा वेद विरुद्ध है*
कलियुग के तथाकथित लोग महाजन लोग चिन्मय पुरुष श्रीकृष्ण के नाम रस को त्याग कर माया शक्ति का भजन करते हैं । वे तामसिक तंत्रों को प्रमाणिक मानकर वेदों की निंदा करते हैं। वे शराब व मांस का सेवन करते हुए अधर्म का आचरण करते हैं । इस प्रकार के निंदक, श्रीकृष्ण नाम को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते और न ही कभी उन्हें श्रीकृष्ण के श्रीवृन्दावन धाम की प्राप्ति होती है।

*मायादेवी की निष्कपट कृपा ही हमारा प्रयोजन है*
इस प्रकार पाखण्ड आचरण करने वाले व्यक्ति को मायादेवी अधोगति प्रदान करती है एवम भगवत नाम में उनकी रुचि नहीं होने देती किंतु यदि साधक की साधु सेवा की निष्कपट भावना द्वारा मायादेवी अर्थात दुर्गादेवी प्रसन्न होती है तो वे भी निष्कपट भाव से उसको श्रीकृष्ण के पादपदमों की छाया प्रदान करती है। मायादेवी श्रीकृष्ण की दासी हैं।वह श्रीकृष्ण से विमुख जीवों को दण्ड देती है। मायादेवी अपनी पूजा से इतनी प्रसन्न नहीं होती जितनी श्रीकृष्ण की पूजा से होती हैं।जो श्रीकृष्ण का नाम उच्चारण करते हैं , मायादेवी उन पर निष्कपट कृपा करते हुए उन्हें भवसागर से पार ले जाती हैं। अतः श्रुति शास्त्र की निन्दरूपी अपराध को छोड़कर श्रीनाम संकीर्तन रस में मग्न रहना चाहिए।

*इस अपराध से मुक्त होने का उपाय*
असावधानीवश यदि श्रुति शास्त्र की निंदा हो जाये तो पश्चाताप करते हुए श्रुति शास्त्रों की वंदना करनी चाहिए तथा उन श्रुति शास्त्रों को श्रीमद भागवत के साथ रखकर उनको पुष्प एवम तुलसी अर्पण करते हुए बड़े यत्न के साथ उनकी पूजा करनी चाहिए क्योंकि श्रीमद्भागवत जी सभी वेदों का सार हैं तथा ये साक्षात श्रीकृष्ण का अवतार हैं । यह भावना रखनी चाहिए कि भगवान श्रीकृष्ण रूपी श्रीमद्भागवत मुझ पर अवश्य कृपा करेंगे । श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के चरणों की रज ही जिनका भरोसा है, श्रीहरिनाम चिंतामणि उनके गले का हार है।

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