भाग 22 अध्याय 13

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

          भाग 22
      *अध्याय 13*
*इसका मूल कारण क्या है*
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी हरिनाम में विश्वास न करना व हरिनाम की महिमा सुनते हुए भी नाशवान शरीर मे मैं और मेरे की बुद्धि बनाये रखना जो दसवां अपराध है। ऐसा अपराध माया में फंसे होने के कारण ही होता है।
*इस दोष को त्यागने का उपाय*
अतः हमें एक ऐसे निष्किंचन भक्त की खोज करनी होगी जिसके अंदर दुनिया के सारे भोगों की जरा सी भी कामना न हो तथा जो हर समय विषय भोगों को छोड़कर नाम संकीर्तन करता रहता है। ऐसा निष्किंचन भक्त जब मिल जाये तो साधक को उसकी संगति में रहना होगा तथा अपनी विषय वासनाओं को छोड़कर उसकी सेवा करनी होगी।ऐसा करने से साधक के अंदर धीरे धीरे हरिनाम में रुचि होने वाले भावों का संचार होगा तथा मैं और मेरेपन को छोड़कर वह माया से मुक्त हो जाएगा। हरिनाम की महिमा सुनकर मैं और मेरे के भावों को छोड़कर हरिनाम की शरण लेना ही भक्त का स्वाभाविक लक्षण है। जो भक्त हरिनाम के शरणागत होकर श्रीकृष्ण नाम करते हैं , वे ही श्रीकृष्ण प्रेम रूपी महाधन को प्राप्त कर लेते हैं।
*दस अपराध से रहित व्यक्ति के लक्षण*
अतएव बड़े यत्न के साथ साधु निंदा को छोड़कर , शुद्ध मन से भगवान के श्रेष्ठत्व को समझें। ये मानें कि भगवान विष्णु ही परम तत्व हैं। जो हरिनाम के गुरु हैं, जो हरिनाम की महिमा बखान करने वाले शास्त्र हैं , उन्हें सर्वोत्तम समझें तथा भगवान के यह नाम विशुद्ध हैं व चिन्मय हैं इसे हृदय से मानें। साधकों को चाहिए कि वह पापों की लालसा व पापों के कारण को यत्न के साथ छोड़ें तथा जो श्रद्धालु लोग हैं उनके बीच शुद्ध हरिनाम का प्रचार करें । शरणागत भक्त के इलावा सभी शुभ कर्मों से अपने आप को हटाकर तथा प्रमाद को छोड़कर हर समय भगवान का स्मरण करता है।

*अपराध रहित हरिनाम करने से थोड़े ही दिनों में भावों का उदय हो जाता है*
नामाचार्य हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि भगवान के शरणागत होकर जो हर समय हरिनाम करता है , इस सारे त्रिभुवन में वह ही धन्य है तथा ऐसा हरिनाम करने वाला भाग्यवान है।सचमुच ऐसे व्यक्ति को ही गुणों की खान कहा जायेगा तथा ऐसा व्यक्ति श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करने के योग है। हरिनाम करते करते साधक के हृदय में थोड़े ही दिनों में भाव उदित होने लगते हैं तथा उसके कुछ समय बाद उसे श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति हो जाती है।

      *उन्नति का क्रय*
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि शरणागत भाव से निरन्तर हरिनाम करने वाले साधक अक्सर थोड़े ही दिनों बाद ही भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से भाव की स्थिति से भगवत प्रेम की स्थिति पर पहुंच जाते हैं। तमाम शास्त्रों के अनुसार भगवत प्रेम की स्थिति प्राप्त करना ही सर्वसिद्धि है। हे प्रभु ! आपने ही तो कहा था कि जो भक्त अपराध रहित होकर हरिनाम करेगा , वही प्रेम धन को प्राप्त करेगा।

*व्यतिरेक भाव से इसकी चिंता*
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि यदि कोई अपराधों को न छोड़कर हरिनाम करता भी है तो हजारों साधन करने पर भी उसे प्रेम रूपी धन की प्राप्ति नहीं होती। ज्ञानी की ज्ञान से मुक्ति तथा कर्मी को कर्म भोगों से मुक्ति की प्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु सुदुर्लभा भक्ति केवल शुद्ध साधुओं के आनुगतय में निर्मल भाव से रहकर हरिनाम की साधना करने से प्राप्त होती है जो कि जीवों का परम लक्ष्य है। शुद्ध भक्ति की तुलना में मुक्ति और भोग नगण्य हैं। साधु सँग से अति ही अल्प समय में तथा अति ही अल्प साधना द्वारा भक्ति लता भक्तों को फल देती है।

     *भजन नैपुण्य*
दसों अपराधों को छोड़कर हरिनाम करना ही भजन साधन की निपुणता है।

*नाम अपराध का गुरुत्व*
यदि किसी को भक्ति प्राप्त करने का लोभ है तो उसे दसों नामपराधों को छोड़कर हरिनाम करना चाहिए। एक एक अपराध से सतर्क रहकर , चित्त में विलाप करते हुए यत्न से नाम करना चाहिए।हरिनाम प्रभु के चरणों मे निवेदन करना चाहिए कि आप कृपा करके मेरे सभी अपराधों को ध्वंस कर दो क्योंकि हरिनाम प्रभु की कृपा से सभी अपराध ध्वंस होगें। नाम प्रभु की कृपा के बिना अन्य किसी भी प्रकार के प्रायश्चित से अपराध श्रय नहीं हो सकते।
*नाम अपराधों को त्यागने का उपाय*
भोजन व विश्राम आदि केवल दैहिक कार्यों को छोड़कर बाकी किसी भी काम में समय को व्यर्थ न गंवाकर हरिनाम करते रहने से सब अपराध चले जाते हैं।निरन्तर नाम करते रहने से अपराध करने का अवसर ही नहीं आता। यदि कभी अपराध हो भी जाये तो रात दिन नाम करते हुए प्रायश्चित करते रहना चाहिए। इससे अपराध नष्ट हो जाते हैं तथा हरिनाम का मुख्य फल मिलता है। अपराध नष्ट होने से ही शुद्ध हरिनाम उदित होता है जो कि भावमय तथा प्रेममय होता है।

नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी बड़ी दीनता के साथ श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के चरणों में प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि महाप्रभु जी आप मुझ पर ऐसी कृपा करो मैं सदा सर्वदा इन सभी अपराधों से बचकर शुद्ध नाम रस में ही मगन रहूँ।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि मैं नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी की कृपा से ही कौतूहल पूर्वक श्रीहरिनाम चिंतामणि का गान करता हूँ।

त्रयोदश अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला