नरोत्तम प्रार्थना 47
॥ श्री राधारमणो जयति ॥
🔺॥ जय गौर ॥🔺
श्री नरोत्तम प्रार्थना-(2 ) (47)
प्रार्थना :-
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हरि हरि ! कि मोर करम अति मन्द।
ब्रजे राधाकृष्ण पद , ना सेविनु तिल आध ,
ना बुझिनु रागेर सम्बन्ध ॥
स्वरूप सनातन रूप , रघुनाथभट्ट युग,
भूगर्भ श्री जीव लोकनाथ ।
इहाँ सबार पाद-पद्म, न सेविनु तिल आध ,
किसे मोर पुरिवेक साध ॥
कृष्णदास कविराज रसिक भकत माझ ,
जे रचिल चैतन्य चरित ।
गौर गोबिन्द लीला , शुनये गलये शिला ,
ना डुबिल ताहे मोर चित ॥
ताहार भक्तेर संग , तार संगे जार संग ,
तार संगे नैल केन वास ।
कि मोर दुःखेर कथा , जनम गोङानु वृथा ,
धिक् धिक् नरोत्तम दास ॥
♻ शब्दकोश :-
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तिल आध - -आधा क्षण भी
बुझिनु - -समझना
सबार - - सब
किसे -- कैसे
पुरिवेक -- पूर्ण होगी
माझ -- मध्य में
गलये --पिघलना
डुबिल --आसक्त और रूचि होना
गोङानु -- गँवा देना
अनुवाद :-
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♻ हे हरि ! हाय !! मेरे कैसे मन्द भाग्य है !!! ब्रजबिहारी श्री राधाकृष्ण के चरणों की सेवा मैं आधा क्षण भी नहीं कर सका और उनके प्रति जो रागानुगा -विषयक सम्बन्ध ( मञ्जरी भाव ) है , उसको ज़रा भी न समझ सका ।
♻ हाय ! जिनके अनुगत्य में रहकर मञ्जरी -भाव सम्बन्ध का ज्ञान होता है , उन श्री स्वरूप दामोदर , श्री सनातन , श्री रूप , श्री रघुनाथ भटट् , श्री रघुनाथ दास , श्री भूगर्भ , श्री जीव तथा लोकनाथ आदि गोस्वामी वृन्द के चरणों का सेवन आधा क्षण मात्र भी नहीं कर सका , फिर भला कैसे मेरी अभिलाषा पूर्ण हो सकती है ???
♻ हाय ! हाय !! रसिक कुल मुकुट मणि कविराज श्री कृष्णदास गोस्वामी द्वारा रचित श्री चैतन्य चरितामृत , जो श्री गौर-लीला प्रधान ग्रंथ है , तथा श्री गोविन्द लीलामृत , जो श्री कृष्ण लीला प्रधान ग्रंथ है , इन दोनों के श्रवण करने से तो पाषाण भी पिघल जाते है , हाय ! मैंने कभी इन दोनों गौर-गोविन्द लीलामृत सागरों में अपने मन को डुबकी न लगवाई ।
♻ श्री गौर-गोविन्द के भक्तों के संग अथवा उन भक्तों के सत्संगियों के संग हाय ! मैंने वास क्यों नहीं किया ? क्या कहूँ अपने दुख की सीमा ! मैंने तो वृथा ही जन्म गँवा दिया....... धिक्कार है , धिक्कार है मुझे !!!
♻♻♻♻
॥श्रीराधारमणाय समर्पणं ॥
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