भाग 26 अध्याय 15 विश्राम

*श्रीहरिनाम चिन्तामणि*

         भाग 26

        *अध्याय 15*

       *श्रवण दशा*
भाव मार्ग में अपने से जो श्रेष्ठ शुद्ध भावुक महापुरष होता है , वही गुरु कहलाता हौ। उनके मुख से भाव तत्व के बारे में श्रवण करने से श्रवण दशा प्राप्त होती है।

         *भाव तत्व*
यह भाव तत्व दो प्रकार का होता है। पहला तो अपना सम्बन्ध , उम्र तथा नामादि एकादश भाव और दूसरा श्रीकृष्ण की लीला यह दोनों ही भाव तत्व हैं।

*क्रम से वरण दशा की प्राप्ति*
भगवान श्रीराधाकृष्ण जी जो अष्टकालीय लीला करते हैं , उन दिव्य अष्ट लीलाओं को श्रवण करके उन लीलाओं के प्रति लोभ होता है। लोभ होने के कारण साधक अपने गुरुदेव से लीला विषयक जिज्ञासा करता है। तब निष्कपट साधक पर कृपा करके उसके गुरुदेव उसकी साधना के अंतर्गत आये ग्यारह भावों का तथा साध्यावस्था की अष्टकालीन लीला का परस्पर मेल करवा देंगे। यह नहीं इस प्रकार वे उस योग्य शिष्य को भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीला में प्रवेश करने का आदेश दे देंगे।आगे नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि अपने गुरुदेव द्वारा दिये सिद्ध भाव को शुद्ध रूप से श्रवण करके उसे अपने चित्त में बिठा लेना चाहिए।

*अपनी रुचि गुरुदेव जी को बतानी चाहिए*
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि वरण काल के समय अर्थात जब शिष्य को गुरु जी द्वारा ये सिद्ध भाव दिया जा रहा हो , उस समय शिष्य को चाहिए कि भली भांति विचार करके सरल भाव से अपनी रुचि भी गुरुदेव के पादपदमों में निवेदन करे। शिष्य अपने गुरुदेव जी से कहे कि हे गुरुदेव! आपने मुझ पर जो कृपा करके मेरा परिचय दिया है , उसमे मेरी पूरी श्रद्धा व प्रीति है।परंतु स्वाभाविक रूप से मेरी इस बात में रुचि है। अतैव यदि मैं ठीक हूँ तो आप मुझे आज्ञा दें । आपकी आज्ञा ही मुझे शिरोधार्य होगी।
*दूसरी रुचि होने से गुरु दूसरा भाव देंगे*
वह भाव जो गुरु द्वारा प्रदान किया गया है , यदि उसमे आपकी रुचि नहीं है, तब निष्कपट होकर अपनी रुचि को गुरुदेव के समीप कहना चाहिए।गुरुदेव विचार करके आपको दूसरा भाव देंगे और उसी भाव मे रुचि होने से साधक अपने स्वरूप को जल्दी प्राप्त कर लेगा।

*अपना सिद्ध भाव गुरु को बताना चाहिए*
इस प्रकार गुरु शिष्य संवाद होने के उपरांत जब अपना सिद्ध भाव स्थिर हो जाये , तब शिष्य को चाहिए कि अपने गुरुदेव के चरणों मे पड़कर बड़ी दीनता के साथ विनती करते हुए उसी भाव की सिद्धि मांगे। गुरुदेव शिष्य का ऐसा भाव देखकर कृपा करके आदेश दे देंगे और तब वह शिष्य उस आदेश का पालन करते हुए उसी भाव मे प्रवेश करेगा।
          *दृढ़ वरण*
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि ऐसे समय मे अपने सद्गुरु के चरणों मे पड़कर विनती करनी चाहिए कि हे गुरुदेव! आपके द्वारा दिये हुए भाव को मैं वरण करता हूँ और अब यह भाव भी नहीं छोडूंगा। यह भाव जीवन और मरण दोनो समय ही मेरे साथ रहेगा।

*भजन में रुकावट डालने वाले विचार*
आपने सिद्ध ग्यारह भाव मे व्रती होकर सुदृढ चित से अपने भावों को याद करना चाहिए। स्मरण में एक बड़ी अच्छी बात है, वह यह कि साधक अपनी योग्यता के अनुसार निरन्तर स्मरण कर सकता है। हाँ, यदि अपनी योग्यता से रहित स्मरण होता है , तब कई युग साधना करने पर भी सिद्धि नहीं मिलती है।
        *आपन दशा*
अपनी दशा में जब साधक स्मरण में दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाता है तब जल्दी से साधक आपन दशा को प्राप्त कर लेता है। अपने शुद्ध भाव मे जब नित्य स्मृति होती चली जाती है , तब शीघ्र ही साधक की दुनियावी चीजों से बद्धमति समाप्त होने लगती है।
*बद्ध जीव जिस क्रम से भाव को प्राप्त करते हैं*
दुनियावी भावों से ग्रसित बद्ध जीव अपने सिद्ध स्वरूप को भूलकर दुनियावी अभिमान के द्वारा अपने जड़ शरीर मे ही मत्त रहता है। ऐसे समय मे श्रीकृष्ण लीला श्रवण कर उसके हृदय में शुद्ध धन पाने का लोभ जाग्रत होता है।इसी लोभ में वह सदा भाव तत्व का स्मरण करता रहता है । साधक द्वारा जब अपने भावों का स्मरण बढ़ता जाता है , उतना ही भृम दूर होता जाता है।
       *स्मरण दशा*
स्मरण भी वैधी तथा रागानुगा दो प्रकार का होता है। रागानुगा स्मरण तो शास्त्र की पद्धति से परे है। केवल श्रीकृष्ण के माधुर्य से आकृष्ट होकर साधक भगवान का स्मरण करता है और जल्दी ही अपने भाव के अनुसार आपन दशा को प्राप्त कर लेता है।

*विधि मार्ग में भक्त की उन्नति के क्रम*
विधि मार्ग के जो भक्त हैं , स्मरण के समय शास्त्र की अनुकूल युक्तियों का विचार करते हैं परंतु जब भाव का आविर्भाव होता है तो वह शास्त्र युक्तियों को झंझट समझकर छोड़ देते हैं । श्रद्धा , रुचि , आसक्ति आदि के क्रम से जो भाव हैं , वह ही आपन दशा के समय आविर्भूत होते हैं।
*आपन दशा में रागानुगा और  विधि मार्ग के भक्तों में कोई भेद नहीं है*
स्मृति और वेदों के मत के अनुसार आपन दशा में रागानुगा भक्त और विधि मार्ग पर चलने वाले भक्त में कोई भेद नहीं होता है।
*पांच प्रकार के स्मरण*
स्मरण, धारणा, ध्यान, अनुस्मृति और समाधि इस प्रकार स्मरण पाँच प्रकार हैं।
*भावपन्न दशा के उदय का समय*
जब समाधि में स्वरूप स्मृति होती है , तब साधक के अंदर भाव की आपन दशा प्रकट होती है।
*आपन भाव की दशा में जैसी अवस्था होती है*
उस समय अपने सिद्ध देह के अभिमान में स्थित होने के कारण जड़ देह का अभिमान नष्ट हो जाता है। तब वह अपने सिद्ध स्वरूप में सदा ही ब्रजवास करता है तथा इस दशा में अपने स्वरूप के द्वारा वृन्दावन का दर्शन करता है।
*आपन अवस्था मे स्वरूप सिद्धि होती है*
आपन दशा में भाग्यवान व्यक्ति भजन करते करते स्वरूप सिद्धि को प्राप्त करता है। इसी अवस्था मे सबसे बड़ा कार्य यह होता है कि भगवान की इच्छा से उसकी सूक्ष्म देह नष्ट हो जाती है।
*साधन सिद्धि का फल*
इसी अवस्था मे साधन सिद्ध होकर वह नित्य सिद्ध भक्तों के साथ समता प्राप्त करके निरन्तर श्रीकृष्ण की सेवा करता है।
*संक्षेप में क्रम परिचय*
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि भक्ति उन्मुख व्यक्ति को चाहिए कि वह साधु सँग में क्रम को तोड़े बगैर एकांत में निष्कपट भाव से हरिनाम करता रहे । ऐसा करने से थोड़े ही समय मे उसे सर्वसिद्धि की प्राप्ति हो जाएगी । हाँ, कुसंग को छोड़कर साधु सँग में रहने से ही यह फल प्राप्त होता है।

*नाम का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए तीन उपाय*
साधु सँग, सुनिर्जन स्थान तथा अपना दृढ़ भाव -इन तीनों के प्रभाव से साधक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी अपनी स्वाभाविक दीनता के साथ कहते हैं कि हे गौरांग महाप्रभु जी! मेरी प्रार्थना है कि मैं तो दीन हीन हूँ , मेरी तो समझ भी कम है , क्या बताऊँ मेरा मन तो सदा ही सांसारिक विषयों में लगा रहता है । हे गौरहरि! मैं तो साधु सँग से रहित हूँ , श्रीकृष्ण का भजन न करने के कारण आत्मचोर हूँ । आप अपनी अहैतुकी कृपा मुझपर करें ताकि भक्ति रस में मेरी मति हो जाये , इतनी तो कृपा अवश्य करो।

इतना कहते ही हरिदास ठाकुर जी प्रेम विभोर होकर मूर्छित हो गए और उन्हें अपनी देह महाप्रभु जी के चरण कमलों में अर्पित कर दी। महाप्रभु जी ने भी प्रेम में गदगद होकर उन्हें उठाया, गाढ़ आलिंगन दिया तथा बहुत सारी मन की बातें की।
*महाप्रभु जी की आज्ञा*
श्रीमन महाप्रभु जी बोले -हे हरिदास! मेरी लीला के संगोपन के बाद जिस समय दुष्ट प्रकृति के लोग संसार को अंधकार से भर देंगे , उस समय आपके यह उपदेश उस समय के लोगों को मार्ग दिखाएंगे। नामाश्रय करके निष्किंचन व्यक्ति इस तत्व के द्वारा एकांत में बैठकर श्रीकृष्ण का भजन करेंगे। अपने अपने भाग्य के बल से जीव भक्ति को प्राप्त करता है , भगवान की भक्ति को प्राप्त करने की शक्ति सबकी नहीं है। सुकृतिवान व्यक्तियों की भक्ति में दृढ़ता हो , इसलिए मैं युग धर्म नाम संकीर्तन का प्रचार करने के लिए इस धरातल पर आया हूँ।
*हरिदास ठाकुर जी का नाम प्रचार में सहयोग*
भगवान श्री महाप्रभु जी नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी को कहते हैं कि आप मेरे नाम प्रचार रूपी इस कार्य के सहयोगी हो इसलिए मैंने आपके मुख से नाम तत्व का श्रवण किया है।

भगवान श्रीकृष्ण की कृपा के बल से तमाम अमृत की खान स्वरूप इस हरिनाम चिन्तामणि को जिसने प्राप्त किया है , वह महापुरष ही कृतार्थ है तथा वह ही सदा पूर्णानन्द में मग्न होकर राग मार्ग से श्रीकृष्ण का भजन करता है। अन्त में दीनता के मूल स्रोत्र व दीनता के शिक्षक भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी कहते हैं कि हे हरिदास ! आप मुझ जैसे दीन हीन, अकिंचन को इस अमृत रस का लेश मात्र पिला कर मेरे आनन्द की वृद्धि कीजिये।

ग्रंथ लेखन विश्राम।

जय निताई जय गौर

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