भाग 14 अध्याय 7

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

            भाग 14
       *अध्याय सात*

*श्रुति शास्त्र की निंदा*

श्रीगदाधर पंडित जी, श्रीगौरसुन्दर प्रभु जी, श्रीमती जान्ह्वी देवी के प्राण स्वरूप --श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की जय हो। श्रीसीतापति अद्वैताचार्य जी एवं श्रीवास आदि भक्तों की जय हो।
   श्रीहरिदास ठाकुर जी श्रुति शास्त्रों की निंदा नामक चौथे अपराध के बारे में कहते हैं कि श्रुति शास्त्रों की निंदा करने से भक्ति रस में बाधा उतपन्न होती है।
*वेद ही एकमात्र प्रमाण है*

श्रुति शास्त्र, वेद , उपनिषद, पुराण -ये सभी श्रीकृष्ण के श्वास से उतपन्न हुए हैं और यह भगवत तत्व निर्णय में प्रामाणिक हैं।विशेष रूप से अप्राकृत तत्व (भगवत तत्व)का जितना भी ज्ञान है , सब वेद सिद्ध है। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मैं तो हमेशा इसी में रमा रहता हूँ।जड़ातीत वस्तु जड़ इंद्रियों से दिखाई नहीं दे सकती। श्रीकृष्ण कृपा के बिना कोई भी उस तत्व को नहीं जान सकता है। जन्म से ही मनुष्य करणापाटव , भृम, विप्रलिप्सा तथा प्रमाद यह चार प्रकार के दोष होते हैं। इन दोषों के कारण मनुष्य अप्राकृत ज्ञान को नहीं जान सकता जबकि चारों वेद इन दोषों से रहित हैं।अतः वेद के बिना परमार्थ मार्ग में कोई गति नहीं है। माया में फंसे जीवों पर अति कृपा करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने वेद पुराण आदि का ज्ञान प्रदान किया , जिसे ऋषि मुनियों ने समाधि लगाकर अनुभव एवम लिपिबद्ध किया।
1 करनापाटव-अप्राकृत तत्व को जानने में इंद्रियों में असमर्थता
2 भृम-गलतफहमी
3 विप्रलिप्सा-दूसरों को धोखा देने की एवम स्वयम खाने की प्रवृति
4 प्रमाद -असावधानी
*वेदों में से मुख्य दस मूल शिक्षा तथा नो प्रमेय*

श्रुति शास्त्रों के माध्यम से हम   यह जानते हैं की कर्म और ज्ञान जीव के वास्तविक उद्देश्य को पूरा नहीं करते।केवल मात्र निर्मल भक्ति ही जीव को उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य प्रदान करती है। माया से मोहित जीव कर्म तथा तूच्छ ज्ञान के चक्कर मे उलझे रहते हैं। भगवान श्रीहरि ने कृपा करके जीवों को कर्म और ज्ञान से ऊपर उठकर शुद्ध भक्ति का अधिकार एवम उसकी शिक्षा प्रदान की क्योंकि शुद्ध भक्ति से ही श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति होती है। भगवान कहते हैं कि वेद तथा नो प्रमेय इसके प्रमाण हैं।वेद जीव को सम्बन्ध, अभिदेय तथा प्रयोजन की शिक्षा देते हैं । यह दस मूल शिक्षा ही तमाम उपदेशों का सार है।इस दशमूल शिक्षा से अविद्या का नाश होता है तथा यह दश मूल शिक्षा जीव के हृदय में आध्यात्मिक विद्या का प्रकाश करती है।
*दस मूल तत्व*
(क) वेद वाक्य ही एकमात्र प्रमाण हैं
1 श्रीहरि ही परम तत्व हैं
2 भगवान श्रीहरि सर्व शक्तिमान हैं। वे श्याम सुंदर हैं।
3 भगवान श्याम सुंदर जी परम् रसमय हैं
4जीव संख्या में अनन्त हैं , सभी चेतन परमाणु हैं तथा नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त की दृष्टि से जीव दो प्रकार के होते हैं परंतु सभी जीव श्रीकृष्ण के विभिन्न अंश हैं
5 श्रीकृष्ण से विमुख जीव मायाबद्ध होते हैं
6 जबकि शुद्ध भक्त लोग माया से मुक्त होते हैं
7 सभी जीव और ये सारा जड़ जगत भगवान की अचिन्त्य शक्ति से प्रकट हुआ है जिनका भगवान से अचिन्त्य भेदाभेद सम्बन्ध है।
8 श्रीकृष्ण की नवधा भक्ति ही जीवों का अभिदेय अर्थात जीवों की साधना है।
9 श्रीकृष्ण प्रेम ही जीवों की साधना का प्रयोजन है।
*श्रीहरि ही एकमात्र परतत्व हैं , सर्वशक्तिमान हैं तथा रस मूर्ति हैं*

सबसे पहली शिक्षा यह है कि परम् तत्व एक है और वे श्रीहरि हैं । श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान तथा आनन्द की घनीभूत मूर्ति हैं। श्रीकृष्ण अपने धाम में नित्य विराजित रहते हैं तथा जीवों को परमानंद प्रदान करते हैं। वेद शास्त्र जीवों के हृदय में प्रकाशित होकर श्रीकृष्ण से सम्बंधित इन्हीं प्रमेयों की शिक्षा देते हैं।
          *जीव तत्व*

जीव तत्व के विषय मे अगली शिक्षा यह है कि जीव भगवान की शक्ति के विभिन्न अंश हैं तथा संख्या में अनन्त हैं। यह जीव कोई जड़ीय वस्तु नहीं है बल्कि यह तो चेतन का एक परमाणु कण है।
*नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के हैं*
नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के हैं । इस ब्रह्मांड में जहां तहां जीव भरे पड़े हैं । श्रीकृष्ण से विमुख मायाबद्ध जीव अनन्त ब्रह्मांडों में दुख सुख का भोग करते रहते हैं , जबकि नित्य मुक्त जीव वैकुंठ में श्रीकृष्ण का भजन करते हुए पार्षद के रूप में भगवत सम्पदा का रसास्वादन करते हैं। जीवों के विषय में श्रुति शास्त्र इन तीन प्रमेयों के रूप में शिक्षा प्रदान करते हैं।

*अचिन्त्य भेदाभेद सम्बन्ध*
श्रुति शास्त्र कहते हैं कि चित्त तथा अचित्त जगत अर्थात जीव तथा तमाम जड़ वस्तुएं श्रीकृष्ण की शक्ति से उतपन्न हुई हैं वे सभी श्रीकृष्ण शक्तिमय हैं। इन सभी का श्रीकृष्ण से भेदाभेद सम्बन्ध है। अचिन्त्य भेदाभेद ज्ञान के द्वारा ही जीव को यह मालूम पड़ता है किवह श्रीकृष्ण का नित्य दास है तथा श्रीकृष्ण ही उसके नित्य प्रभु हैं।वह श्रीकृष्ण रूपी चिन्मय सूर्य की किरणों का एक छोटा सा परमाणु मात्र है । शक्ति परिमाणवाद ही वेद शास्त्रों का मत है। विवर्तवाद अर्थात एक वस्तु में दूसरी वस्तु के भृम होने का नाम विवर्त है जोकि नितान्त वेद विरुद्ध है।

यहां तक जिन सात प्रमेयों को बताया गया हैसभी सम्बन्ध ज्ञान से सम्बंधित हैं। सभी श्रुति शास्त्र इनके बारे में अति कल्याणकारी उपदेश प्रदान करते हैं। सम्बन्ध ज्ञान के बाद अभिदेय ज्ञान की शिक्षा देते हैं ,जो कि चिन्मय नवधा कृष्ण भक्ति तथा रागानुगा भक्ति है।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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