भाग 20 अध्याय 12

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

           भाग 20
      *अध्याय 12*

*प्रमाद नामक नामापराध*
श्रीमन महाप्रभु जी की तथा उनके भक्तों की जय हो, जिनकी कृपा से संकीर्तन करता हूँ।
प्रमाद नामक अपराध ---
श्रीमन महाप्रभु जी को श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं -हे प्रभु ! आपने यहां श्रीजगन्नाथ पुरी में सनातन गोस्वामी जी को एवम दक्षिण भारत भृमण के समय गोपाल भट्ट गोस्वामी जी को प्रमाद रहित श्रीकृष्ण भजन करने की शिक्षा दी थी। आपने नामापराध के अंतर्गत प्रमाद की गिनती की थी। इस नाम अपराध के बारे में बोलते हुए आपने कहा था कि अन्य अन्य नाम अपराधों को छोड़कर यदि कोई साधक हरिनाम करता है और उसके हृदय में श्रीकृष्ण प्रेम उदित नहीं होता , तब समझना होगा कि प्रमाद रूपी अपराध उदित हो गया है जिसके कारण प्रेम भक्ति की साधना में बाधा उतपन्न हो रही है।

*असावधानी को ही प्रमाद कहते हैं*
प्रमाद का मुख्य अर्थ असावधानी ही है। इसी से सारे अनर्थ उदित होते हैं।विद्वान वैष्णव लोग कहते हैं कि प्रमाद भी तीन प्रकार के होते हैं--साधारण भजन मरण उदासीनता अर्थात निष्ठा का अभाव , आलस्य तथा मन का दूसरी और जाना।
*अनुराग होने तक पूरे यत्न के साथ हरिनाम करना आवश्यक है*
किसी भाग्य से किसी जीव के अंदर यदि श्रद्धा उतपन्न होती है तो वह जीव हरिनाम लेता है । हरिनाम करते हुए जब वह बड़े यत्न के साथ भगवान को स्मरण करता हुआ , भगवान के नाम मे मन लगाकर तथा सँख्यापूर्वक हरिनाम करता है तो उसका हरिनाम में हरिनाम उतपन्न होता है । हमें यह याद रखना चाहिए कि जब तक हमारा हरिनाम में अनुराग उतपन्न नहीं होता , तब तक बड़े यत्न के साथ हरिनाम करते रहना चाहिए।

*यत्न के अभाव में साधक का चित्त स्थिर नहीं होता*
साधक का मन स्वाभाविक ही संसार के विषयों में आसक्त रहता है जो हरिनाम करते समय श्रीहरि की बजाय
कहीं और अनुरक्त रहता है। ऐसे में साधक हरिनाम तो प्रतिदिन जप्त है परंतु हरिनाम जपते समय उसका चित्त हरिनाम में तो उदासीन रहता है तथा कहीं और मग्न रहता है। अब आप ही बताओ , हे गुणधर्म गौर हरि! जब किसी का चित्त कहीं और हो तथा दूसरी ओर से वह हरिनाम भी कर रहा हो तो उसका मंगल कैसे होगा। ये ठीक है कि वह गिनकर एक लाख माला कर लेता है परंतु इतना सब करने पर भी उसके हृदय में हरिनाम के अप्राकृत रस की एक बूंद का आस्वादन भी नहीं होता । हे प्रभु ! यही वो प्रमाद रूपी अपराध है जो असावधानी से होता है । जहां तक संसार के विषयी लोगों की बात है उनके लिए हरिनाम में मन लगाना बहुत ही कठिन है।

*यत्न करने की विधि*
थोड़ी देर के लिए विषय भोगों की सारी चिंताओं को छोड़कर साधक को चाहिए कि वह साधु सँग में रहकर एकांत भाव से हरिनाम करे। ऐसा करने से साधक का प्रमाद रूपी दोष खत्म हो जाता है।इतना ही नहीं धीरे धीरे उसका चित्त श्रीकृष्ण नाम मे स्थिर होने लगता है और उसके हृदय में निरन्तर श्रीहरिनाम का दिव्य रसास्वादन चलने लगता है। तुलसी के वृक्ष के पास अथवा श्रीकृष्ण लीला के स्थान अथवा भगवत भक्तों के पास बैठकर यदि उस प्रकार हरिनाम किया जाए जैसा कि पूर्व समय में भगवान के प्रेमी भक्तों ने किया तथा साथ ही हृनसँ करने के समय को हरिनाम चिंतन करते करते धीरे धीरे बढ़ाना चाहिए तो इससे जल्दी ही सांसारिक भोग वासनाओं से छुटकारा हो जाता है।
        *अन्य क्रिया*
भगवत भक्तों के तरीके से किसी एकांत स्थान पर बैठकर , अपने कमरे के दरवाजे बंद करके अथवा अपनी आंख, कान , नाक को ढक कर करने से जल्दी ही साधक की हरिनाम में निष्ठा तथा रुचि होने लगती है तथा साथ ही साथ साधना में आया उदासीन भाव भी खत्म हो जाता है।

*आलस्य रूपी रुकावट के लक्षण*
हरिनाम की साधना में आलस्य के कारण रुचि नहीं होती। भगवत स्मरण के समय यदि यह आलस्य आ जावे तो इस दोष के कारण साधक के हृदय में हरिनाम का रस प्रकाशित नहीं होता । दुनिया के फालतू कार्यों में जैसे उनका समय बर्बाद न हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए भगवान के भक्त हर समय भगवान का ध्यान करते रहते हैं , परन्तु साधक के जीवन मे यह तभी होता है जब साधक को ऐसे साधु की संगति मिल जाये जो हर समय हरिनाम करता रहता है तथा हर समय इसी रस में डूबा रहता है तथा साथ ही वह साधु हरिनाम के सिवा कुछ भी नहीं चाहता।

    साधक को चाहिए कि ऐसे दुर्लभ साधु की खोज करके उसकी संगति में उठे बैठे। सच्चे साधु के आदर्श चरित्र को देखकर वैसा आचरण करते रहने से साधक का चित्त आलस्य का त्याग कर देता है। स्वभाव से ही अच्छे साधु अपने अनमोल समय को व्यर्थ नहीं गंवाते। आठ साधु का आदर्श चरित देखने से यह निश्चित है कि साधक की रुचियों में भी इस प्रकार का बदलाव आता रहेगा। इतना ही नहीं साधु का आदर्श चरित देखकर साधक के मन में भी आता है कि कब मैं इनकी तरह बन पाऊंगा। कब मेरे जीवन में ऐसा सौभाग्य उदित होगा कि मैं भी इन साधु भक्तों की तरह हृदय में भगवान का स्मरण करूंगा व मुख से भगवत नाम कीर्तन करूंगा। साधक का यही उत्साह उसके आलस्य को खत्म करके उससे निरन्तर श्रीकृष्ण स्मरण करवायेगा। वह स्वयम मन ही मन में यह धारणा बनाने लगता है कि आज मैं एक लाख हरिनाम करूंगा तथा धीरे धीरे मैं प्रतिदिन तीन लाख किया करूंगा। भक्तों के बढ़िया आचरण को देखकर साधक के मन में हरिनाम की निश्चित संख्या करने का व उस संख्या को लगातार बढ़ाने का आग्रह पक्का होता रहता है। उसे यह भी मालूम नहीं पड़ता कि साधु भक्तों की कृपा से बड़ी जल्दी उसके अंदर भरा आलस्य भाग जाता है।

*विक्षेप से उतपन्न बाधा*
साधक के हृदय में आये विक्षेप से जो प्रमाद रूपी दोष होता है , बड़ी कोशिशों के बाद जाकर वह खत्म होता है। दौलत, स्त्री, मान सम्मान की भावना तथा धूर्तता ही उस आलस्य के अड्डे उपरोक्त चीजें जब साधक के हृदय को अपनी ओर खींचती है तो स्वाभाविक ही हरिनाम में रुकावट आ जाती है।

*विक्षेप को त्यागने का उपाय*
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि सौभग्यशाली साधक को चाहिए कि वह कनक , कामिनी व प्रतिष्ठा इत्यादि भावनाओं को त्यागकर श्रेष्ठ वैष्णवों के आचरण के अनुसार साधना करने का प्रयत्न करें। इसमे सबसे पहले वह एकादशी, जन्माष्टमी व वैष्णवों की आविर्भाव तिरोभाव आदि तिथियों में अपने भोग विलास के चिंतन का परित्याग करते हुए रात दिन साधु सँग में रहकर हरिनाम करे। उसके बाद वह बड़े उत्साह के साथ भगवान के वृन्दावन , नवद्वीप तथा जगन्नाथ पुरी इत्यादि धामों में भगवान के भक्तों के साथ विभिन्न महोत्सवों में शामिल होवे तथा श्रीमद भगवत गीता , श्रीमद भागवत तथा वैष्णव ग्रंथों का अनुशीलन व स्मरण कीर्तन करता रहे । धीरे धीरे उपरोक्त कार्यों के समय को स्वेच्छा से बढ़ाता रहे तथा श्रीहरि के महोत्सव में अपने आपको रमाये रखे।
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि इस प्रकार साधना करते रहने से साधक के चित्त में श्रेष्ठ रस उदित होने लगता है , जिससे दुनियावी निकृष्ट रस से मन अपने आप ही शत प्रतिशत हटने लगता है । ऐसे समय में यदि साधक महाजनों के मुख से भगवान के संगीतमय कीर्तन को सुने तो वह कीर्तन उसके मन व कानों को दिव्य रस का आस्वादन करवाकर भगवान में मुग्ध कर देगा । दुनिया के तुच्छ विषय भोगों की लालसा साधक के चित्त से कब की खत्म हो गयी , ये उसे मालूम भी नहीं पड़ेगा तथा साथ ही महाजनों के मुख से सुना वह कीर्तन हमेशा के लिए साधक के चित्त को भगवान में स्थापित कर देगा , अतएव यदि साधक अपने भीतर भरे प्रमाद को हटाने के लिए यह रास्ता अपनाए तो यह दिव्य मार्ग उसके चित्त को स्थिर करके उसे चिर दिन के लिए रसानन्द में डुबो देगा।

          *आग्रह*
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हरिनाम की संख्या के लिए आपने जो संकल्प लिया है , उसमें ढीलापन न हो इसके लिए बार बार विशेष ध्यान देना होगा। साथ ही सतर्क होकर प्रमाद हटाने के लिए हरिनाम संकीर्तन करना होगा। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि साधक को चाहिए कि वह संख्या बढ़ाने के चक्र में ज्यादा न पड़े। संख्या बढ़ाने की बजाए यदि स्पष्ट रूप से हरिनाम का उच्चारण हो इसकी ओर ध्यान दे । ऐसा होने से भगवान श्रीहरि की कृपा से उसका निरन्तर हरिनाम होने लगेगा।

   नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी से कहते हैं कि हे प्रभु! आप मुझ पर ऐसी कृपा करना जैसे ये प्रमाद रूपी अपराध मुझे हरिनाम के रसास्वादन में बाधा न पहुंचा सके।

            *प्रक्रिया*
श्रील ठाकुर जी कहते हैं कि भक्तों को चाहिए कि कुछ समय के लिए एकांत में बैठकर एकाग्र मन सड़ नाम स्मरण का प्रयास अवश्य करे। हे गौरहरि ! आपके चरणों में मेरी प्रार्थना है कि आप मुझ पर ऐसी कृपा करें कि भगवत भावों में डूबकर स्पष्ट हरिनाम के दिव्य अक्षरों का हमेशा उच्चारण कर सकूं क्योंकि ऐसा हरिनाम दुनिया में कोई भी अपनी कोशिश से नहीं कर सकता।आपकी कृपा के बिना यह सम्भव ही नहीं है।
हरिनाम करने में शेष यत्न की व आग्रह की अति आवश्यकता होती है । निरन्तर हरिनाम करने के लिए यह अति आवश्यक है अन्यथा साधक से अपराध होते रहेंगे।अतः साधक को चाहिए कि वह भगवान के प्रति व्याकुल हृदय से कृपा मांगता रहे । श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु !  आप तो स्वभाव से ही कृपामय हैं , साधक के द्वारा व्याकुल भाव से प्रार्थना करने पर आप उस पर कृपा कर ही देते हैं । ऐसे में प्रभु यदि आपकी कृपा को प्राप्त करने के लिए यदि प्रयत्न न करूंगा तो गौरहरि मैं स्वयम ही भाग्यहीन हूँ।

   श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिनाम चिंतामणि जिनका अलंकार है , उन श्रीहरीदास ठाकुर जी के चरण कमलों में ही मेरा भरोसा है।

द्वादश अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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