भाग 17 अध्याय 9

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

           भाग 17
         *अध्याय 9*

*हरिनाम के बल पर पाप करना*
नाम्नो बलाद यस्य पपबुद्धिर्न
विद्यते तस्य यमैर्ही शुद्धिः

श्रीगदाधर जी, श्रीगौरांग महाप्रभु , श्रीमती जान्हवा देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द जी की जय हो। सीतापति अद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि जितने भी भक्त हैं सभी की जय हो! जय हो ! जय हो!
*नाम ग्रहण करने से सभी प्रकार के अनर्थ दूर होते हैं*

नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिनाम शुद्ध सत्वमय हैं और भाग्यवान जीव ही श्रीहरिनाम का आश्रय लेते हैं।हरिनाम के प्रभाव से जीव के हृदय में भरे हुए सारे अनर्थ अति शीघ्र ही दूर हो जाते हैं। हृदय की दुर्बलता नामक अनर्थ का तो उनके मन में स्थान ही नहीं रहता। हरिनाम के जप से साधक के मन में दृढ़ता आती है तब उसमें पापबुद्धि नहीं रहती। यहां तक कि, हरिनाम के प्रभाव से उसके हृदय के सारे पिछले पाप नष्ट हो जाते हैं और उसका चित्त बिल्कुल शुद्ध हो जाता है। अज्ञान के कारण पाप बीज तथा पाप की वासना जीव के हृदय में रहती है , उसके कारण जीव संसार में कष्ट भोगता रहता है।नाम जप के द्वारा जब किसी का हृदय निर्मल हो जाता है तो उसके अंदर सभी जीवों के प्रति दयाभाव उतपन्न होता है।वह सदा सर्वदा दूसरों का मंगल करने में ही लगा रहता है। उससे दूसरों का कष्ट नहीं देखा जाता तथा उसकी हर समय यही चेष्ठा होती है कि वह कैसे दूसरे जीवों के क्लेश से उतपन्न ताप को शांत कर सके। ऐसी स्थिति में विषय वासना तो उसे बिल्कुल तुच्छ सी प्रतीत होती है। इन्द्रिय भोगों की लालसा तो उसके हृदय में रहती ही नहीं। धन दौलत और कामनी के प्रति उसका कोई आकर्षण भी होता ही नहीं।उन्हें प्राप्त करने के लिए वह न तो कोई प्रयास करता है अपितु उसे इससे घृणा होती है। संसार में रहने के लिए ईमानदारी से जितना भी धन कमा पाता है उसी में संतोष करता है। उसकी वास्तविक चेष्ठा तो भगवत भक्ति के अनुकूल कार्य को करने में तथा प्रतिकूल कार्यों का त्याग करने में ही रहती है।श्रीकृष्ण ही उसके एकमात्र रक्षाकर्ता तथा पालनकर्ता हैं इस प्रकार का दृढ़ विश्वास उसमें होता है। उसके हृदय में शरीर के प्रति मैं भाव तथा शरीर सम्बन्धी व्यक्तियों तथा वस्तुओं में ममता नहीं रहती। स्वाभाविक रूप से वह तो बड़ी दीनता के साथ हमेशा ही हरिनाम का आश्रय लिए रहता है। ऐसे में उसकी मति पापों में कैसे हो सकती है या ऐसी अवस्था में उसके द्वारा पाप भला कैसे हो सकते हैं।
*हरिनाम के द्वारा पिछले पाप तथा पापों की गंध भी दूर हो जाती है।*

निरन्तर हरिनाम करते रहने से पहले के जो दुष्ट भाव हैं, वह धीरे धीरे क्षीण होते चले जाते हैं और उसके स्थान पर साधक के हृदय में पवित्र स्वभाव प्रकटित होने लगता है।जब हरिनाम में थोड़ी थोड़ी रुचि उतपन्न हो रही होती है, ऐसे समय में अर्थात पापमय जीवन तथा हरिनाम के आश्रय में जीवन के संधिकाल में पिछले कुछ पापों की गंध रह जाती है।किंतु निरन्तर हरिनाम करते रहने से या यूं कहें कि श्रीहरिनाम के प्रभाव से उसके हृदय से पूर्व पापों की गंध भी समाप्त हो जाती है तथा जीव की भगवत भक्तिमय मति उदित होती है।

   श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! आपने महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन के सामने प्रतिज्ञा की थी कि मेरा भक्त कभी संकट में नहीं पड़ेगा और यदि किसी कारणवश ऐसा हुआ भी तो आप स्वयम उसकी रक्षा करेंगे। यही कारण है कि हरिनाम करने वालों के तमाम पाप आपकी कृपा से खत्म हो जाते हैं , जबकि ज्ञानमार्गी व्यक्ति पापों से छुटकारा पाने के लिए बहुत प्रयत्न करता है परन्तु आपका आश्रय छोड़ने के कारण उसका शीघ्र ही पतन हो जाता है। अतः हे प्रभु! ये सिद्धांत है कि जो आपके चरनाश्रित हैं , ऐसे भक्त के निकट कभी विघ्न नहीं आते हैं।

*असावधानी वश यदि पाप हो जाता है तो उसके प्रायश्चित की कोई आवश्यक्ता नहीं रहती है*
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि यदि कभी किसी भक्त से प्रमादवश अथवा असावधानी वश कोई अपराध कोई पाप हो जाये तो उसके लिए कोई प्रायश्चित की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह पाप तो क्षणिक है । वह ज्यादा समय तक भक्त के पास टिक नहीं सकता है।वह क्षणिक पाप तो हरिनाम के प्रवाह रस में बह जाता है। इसलिए असावधानीवश भक्त द्वारा हुए किसी भी पाप से उनकी दुर्गति नहीं होती है। परंतु यदि कोई चँचल व्यक्ति हरिनाम के बल पर नए नए पाप करता चला जाता है तो उसकी यह क्रिया केवल मात्र कपटता ही होगी क्योंकि इसमें उसने कपटता का आश्रय लिया हुआ है अर्थात कोई व्यक्ति यदि यह सोच कर कोई नए नए पाप करता रहे कि हरिनाम के प्रभाव से मेरे समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे तो वह कपटी है। नामापराध से व्यक्ति को शोक एवम मृत्यु रूपी भय की प्राप्ति होती है।भक्ति शास्त्रों के अनुसार असावधानी तथा जान बूझ कर किये जाने वाले पापों में जमीन आसमान का अंतर है।
*पापों में मति होने से नामापराध होता है*
संसारी व्यक्ति जब पाप करता है तो उसके लिए प्रायश्चित तथा पश्चाताप का विधान है परंतु यदि कोई यह सोचकर कि मेरे द्वारा किया हरिनाम मेरे पाप धो डालेगा , ऐसे हरिनाम के बल बूते पर पाप करने की भावनाओं को हृदय में रखने से उसका कोई प्रायश्चित नहीं है, उसकी तो दुर्गति ही होगी। यहां तक कि बहुत तरह की नरक यंत्रणाओं में कष्ट पाने पर भी उसका उद्धार नहीं होता।

  मन में पाप की भावना आंजे से जब इतना कष्ट मिलता है तो नाम के सहारे पाप करना कितना बड़ा दोष है, उसके बारे में भला क्या कहा जाए।

*धूर्त व्यक्ति के द्वारा हरिनाम के बलबूते पर पाप करना ही मर्कट वैराग्य है*
श्रील हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मैंने शास्त्रों से सुना है कि भगवान का एक नाम जितने पापों को धो सकता है उतने पाप कोई महापापी भी करोड़ों जन्मों में नहीं कर सकता। घर मे मसाला पीसते हुए, झाड़ू पोछा लगाते हुए तथा रसोई बनाने के लिए आग जलाते हुए इत्यादि कई तरीकों से कीड़े मकोड़े के अनजाने में मर जाने के कारण जो पांच तरह के अपराध लगते हैं तथा दुनिया के महापाप भी नामाभास मात्र से दूर हो जाते हैं। परंतु शास्त्रों के इन वाक्यों के बलबूते पर धोखेबाज लोग हरिनाम करने का ढोंग करते हैं।गृहस्थी के झंझटों से बचने के लिए वे वैरागी का भेष धारण कर दौलत तथा कामिनी की लालसा से जर्जरित होकर देश विदेश में घूमते हैं।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! आपने ही तो कहा था कि जो मर्कट वैराग्य करता है अर्थात जो व्यक्ति गृहत्यागी होते हुए भी इस्त्रियों सँग सम्भाषण करता है उसका वैराग्य वेश केवल दिखावे के लिए होता है।
*निष्कपट रूप से हरिनाम का आश्रय न करने पर अर्थात मर्कट वैराग्य करने पर इस प्रकार का अपराध होना अनिवार्य है*
वैरागी का वेश धारण करके जो ढोंगी अपनी स्त्री के साथ घर मे रहता है , वह पृथ्वी पर भार स्वरूप है। ऐसे ढोंगियों से ज्यादा बातचीत नहीं करनी चाहिए। जिस भक्त ने हरिनाम का आश्रय ले लिया है वह चाहे घर में रहे या जंगल में , इसमें कोई दोष नहीं है । हरिनाम के बल पर पाप करना या पाप की भावना को हृदय में पाले रखना महा अपराध है , ऐसा करने से भजन में बाधाएं आती हैं। निष्कपट होकर हरिनाम करने से भगवान श्रीहरि को बड़ा संतोष होता है।
  नामाभासी व्यक्ति को यदि बुरी संगति मिल जावे तो निश्चित ही उससे यह अपराध होगा अर्थात जिसके हृदय में शुद्ध हरिनाम उदित हो चुका है , उसके द्वारा यह अपराध नहीं होगा।

*शुद्ध हरिनाम आश्रित व्यक्ति को नामापराध स्पर्श भी नहीं करते*
शुद्ध नामाश्रित व्यक्ति को कभी किसी भी रूप में शास्त्रों द्वारा वर्णित दस नामापराध कभी स्पर्श नहीं करते क्योंकि नामाश्रित व्यक्ति की श्रीहरिनाम सदा रक्षा करते हैं।जब तक जीव के हृदय में शुद्ध नाम उदित नहीं होता , तब तक ही अपराध होने का भय बना रहता है। इसलिए नामाभासी साधक यदि अपना मंगल चाहता है तो उसे नाम के बल पर पाप बुद्धि जैसे अपराधों से दूर रहना चाहिए।

*सावधानी से कब तक अपराधों को छोड़ना चाहिए*
शुद्ध नामाश्रित व्यक्तियों के सँग में रहकर सर्वदा ऐसा आचरण करते रहना चाहिए जिससे हमसे कोई अपराध न हो। जिनके मुख से शुद्ध हरिनाम उच्चारित होता है, उनका मन सदैव दृढ़ रहता है। उनका दृढ़ मन एक क्षण के लिए भी श्रीकृष्ण के पादपदमों से विचलित नहीं होता । अतः जितने दिन तक साधक के अंदर नाम का बल विद्यमान नहीं होता अर्थात जब तक उसके हृदय में शुद्ध नाम उदित नहीं होता , तब तक उसे अपराधों से भयभीत रहना ही चाहिए। साधक को चाहिए कि विशेष यत्न के साथ पापमय बुद्धि को दूर करके दिन रात निरन्तर मुख से हरिनाम करता रहे। श्रीगुरुदेव की कृपा से जब उसे सम्बन्ध ज्ञान होगा , तब ही उसके द्वारा श्रीकृष्ण भक्ति व श्रीकृष्ण नाम ठीक प्रकार से हो पायेगा।

*इस अपराध का प्रतिकार*
यदि प्रमाद से अथवा असावधानी वश नाम के बल पर पाप बुद्धि होती है तो शुद्ध वैष्णवों के सँग द्वारा उसे दूर करने की चेष्ठाएं करनी चाहिए। पाप वासना एक ऐसा लुटेरा है जो भक्ति मार्ग में सब कुछ लूट कर ले जाता है।ऐसे समय में विशुद्ध वैष्णव ही भक्तिमार्ग में इन लुटेरों से हमारी रक्षा करते हैं। यदि उच्च स्तर से हम भक्ति मार्ग के रक्षकों का अर्थात वैष्णवों का नाम पुकारेंगे तो पाप वासनामय लुटेरे हमारे हृदय से भाग जाएंगे और हमारे भक्तिमार्ग के रक्षक हमें बचाने के लिए आ जाएंगे।इसलिए शुद्ध वैष्णवों को आदर के साथ स्मरण करते रहना चाहिए अथवा आदर के साथ शुद्ध वैष्णवों का नाम उच्चारण करना चाहिए।

श्रील हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि बड़े आदर के साथ वैष्णवों को पुकारें । ऐसा करने से "डरो मत , मैं तुम्हारा रक्षक हूँ" -ऐसा कहकर वैष्णव तुम्हारे पास आ जाएंगे।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि वैष्णवों के चरणों की सेवा करना ही जिनका व्रत है, वे ही श्रीहरिनाम चिंतामणि का गान करते हैं।

नवम अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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