भाग 24 अध्याय 15

*श्रीहरिनाम चिन्तामणि*

          भाग 24
        *अध्याय15*

     *भजन प्रणाली*
श्रीगदाधर पंडित जी, श्रीगौरांग महाप्रभु जी व श्रीमती जान्हवा देवी के प्राणस्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की जय हो, श्रीसीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी तथा श्रीवास आदि सभी गौर भक्तों की जय हो! जय हो ! जय हो!अन्य सभी पथों का परित्याग करके जो हरिनाम का जप या संकीर्तन करता है ऐसे भक्त की जय हो ! जय हो!

श्रीमन महाप्रभु जी बोले हे हरिदास! आपने इस पृथ्वी पर भक्ति के बल से दिव्य ज्ञान को प्राप्त किया है । चारों वेद आपकी जिव्हा पर नित्य नृत्य करते हैं तथा मैं आपकी कथा में सारे सुसिद्धान्तों को अनुभव करता हूँ।
*नाम रस की जिज्ञासा*
महाप्रभु जी बोले हे हरिदास! अब मुझे यह बताइए कि हरिनाम रस कितनी प्रकार के हैं और अधिकार के अनुसार साधकों को किस प्रकार प्राप्त होंगे । हरिनाम के प्रेम में विभोर होकर नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी निवेदन करते हुए श्रीमहाप्रभु जी से कहते हैं कि हे गौरहरि ! आपकी प्रेरणा के बल से ही मैं इसका वर्णन करूंगा।

   शुद्ध तत्व तथा पर तत्व के रूप में जो वस्तु सिद्ध है , वो रस के नाम से वेदों में प्रसिद्ध है। वह रस अखंड है , परब्रह्म तत्व है । यह चरम वस्तु असीम आनन्द का समुद्र है। शक्ति तथा शक्तिमान रूप से यह परमतत्व विद्यमान है। शक्ति तथा शक्तिमान रूप से इसमें कोई भेद नहीं है। केवल दर्शन में भेद दिखाई देता है। शक्तिमान अदृश्य से है जबकि शक्ति इसे प्रकाशित करती है। तीनों प्रकार की शक्ति (चित्त, जीव तथा माया शक्ति) ही विश्व को प्रकाशित करती है।

*चित्त शक्ति के द्वारा वस्तु का प्रकाश*
चित्त शक्ति के रूप में वस्तु का रूप, वस्तु का नाम, वस्तु का धाम, वस्तु की क्रिया तथा वस्तु का स्वरूप आदि प्रकाशित होते हैं। श्रीकृष्ण ही वह परम वस्तु हैं तथा उनका वर्ण श्याम है।गोलोक, मथुरा, वृन्दावन आदि श्रीकृष्ण के धाम हैं जहां वह अपनी लीला प्रकट करते हैं। श्रीकृष्ण के नाम , रूप, लीला, धाम इत्यादि जो भी हैं सबके सब अखण्ड तथा अद्वय ज्ञान के अंतर्गत हैं।श्रीकृष्ण में जितनी भी विचित्रता है ये सब परा शक्ति के द्वारा ही की गई है। श्रीकृष्ण धर्मी हैं जबकि श्रीकृष्ण की परा शक्ति ही उनका नित्य धर्म है। धर्म तथा धर्मी में कोई भेद नहीं है। दोनो ही अखण्ड तथा अद्वय हैं। ये दोनों अभेद होते हुए भी विचित्र विशेषता के द्वारा इनमें भेद दिखाई पड़ता है। इस प्रकार की विशेषता केवल चिद जगत में दिखाई पड़ती है।
*माया शक्ति का स्वरूप*
जो छाया शक्ति श्रीकृष्ण की इच्छा से सारे विश्व का सृजन करती है , उस शक्ति को माया शक्ति के नाम स जाना जाता है।
          *जीव शक्ति*
भेदाभेदमयी जीव शक्ति अर्थात भगवान श्रीकृष्ण की तटस्था शक्ति श्रीकृष्ण की सेवा के उद्देश्य से जीवों को प्रकाशित करती है।
*दो प्रकार की दशा वाले जीव*
जीव दो प्रकार के हैं - नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त। नित्य मुक्त जीवों का नित्य ही श्रीकृष्ण सेवा में अधिकार होता है जबकि नित्य बद्ध जीव माया के द्वारा संसार में फंस जाते हैं।जिनमें भी बहिर्मुखी तथा अंतर्मुखी दो प्रकार के विभाग हैं।
   जो अंतर्मुखी जीव हैं , वह साधु सँग के द्वारा श्रीकृष्ण नाम को प्राप्त करते हैं और श्रीकृष्ण नाम के प्रभाव से श्रीकृष्ण के धाम को जाते हैं।
*रस और रस का स्वरूप*
भगवान श्रीहरि ही अखण्ड रस के भंडार हैं और उस रस रूपी फूल की कली हरिनाम थोड़ी सी प्रस्फुटित हुई कली का रूप अति मनोहर होता है । गोलोक वृन्दावन में भी यही रूप श्यामसुंदर के रूप में विद्यमान है।

प्रभु के 64 गुण उस कली की सुंगन्ध हैं , वे गुण ही भगवान के नाम के तत्व को पूरे जगत में प्रकाशित करते हैं।

   श्रीकृष्ण की लीला पूरी तरह से खिले हुए फूल के समान है । यह भगवत लीला प्रकृति से परे है , नित्य है तथा आठों पहर चलती है।
     *भक्ति का स्वरूप*
जीवों पर हरिनाम की कृपा होने से यह कृपा संचित शक्ति और आह्लादिनी शक्ति के समावेश से भक्ति के रूप में जीव के हृदय में प्रवेश करती है।
          *भक्ति क्रिया*
वही सर्वेश्वरी शक्ति अर्थात भक्ति जीवों के हृदय में आविर्भूत होकर श्रीकृष्ण नाम के रसों की सारी सामग्री को प्रकाशित करती है। जीव भक्ति के प्रभाव से अपने चिन्मय स्वरूप को प्राप्त करता है और फिर उसी शक्ति के द्वारा ही उसमें रस प्रकाशित होता है।
*रस के विभाव आलम्बन*
रस के विभिन्न आलम्बन के विषय तो परमधन स्वरूप श्रीकृष्ण हैं एवम आश्रय उनके भक्त हैं । जब भक्त सदा ही हरिनाम लेता है तब हरिनाम की कृपा से वह भगवान के रूप, लीला , गुण आदि का आस्वादन करता है।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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