भाग 12 अध्याय 6

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

            भाग 12
        *अध्याय 6*

       *गुरु अवज्ञा*
भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु ,श्रीमन नित्यानन्द प्रभु, श्रीगदाधर पंडित व श्रीवास पंडित पंचतत्व की जय हो, श्रीराधामाधव की जय हो। श्रीनवद्वीप धाम , श्रीब्रजधाम, श्रीयमुना जी और सभी वैष्णव की जय हो।

श्रीहरिदास ठाकुर जी निवेदन करते हुए श्रीमन महाप्रभु जी से कहने लगे-हे प्रभु! अब मैं आपकी आज्ञा अनुसार तीसरे अपराध गुरुअवज्ञा के बारे में विस्तार से कहूंगा कि यह कैसे घटित होता है तथा जीवन मे किस प्रकार गुरुअवज्ञा होती है।

  अनेक योनियों में भृमण करने के बाद जीव को यह मनुष्य शरीर मिलता है जो अति दुर्लभ तथा मंगल प्रदान करने वाला है।जितनी भी लम्बी अवधि को यह शरीर मिले , परन्तु होता यह अनित्य ही है। मानव शरीर को धारण करने पर भी जब कोई भजन न करे तो उसे इस मानव देह को त्याग कर फिर से अनित्य संसार मे जन्म लेना और मरना पड़ता है।

*संसारी जीव को अवश्य गुरु का आश्रय ग्रहण करना चाहिए*
बुद्धिमान व्यक्ति जन्म मृत्य रूपी इस संसार मे दुर्लभ मनुष्य शरीर को पाकर शांत स्वभाव से श्रीकृष्ण भजन का गुरु रूप में आश्रय ग्रहण करता है तथा अपने विनम्र वचनों से उन्हें प्रसन्न करता है । भवसागर से पार जाने के लिए सद्गुरु रूपी मल्लाह से वह श्रीकृष्ण नाम की दीक्षा प्राप्त करके , प्रीतिपूर्वक श्रीकृष्ण का भजन करते हुए भवसागर से पार हो जाता है। वैसे तो स्वाभाविक रूप से जीव की श्रीकृष्ण में रति मति होती है परंतु ज्यादा तर्क आदि करने से यह प्रीति नष्ट हो जाती है। इसलिए तर्क को छोड़ जब कोई सुमति का आश्रय ले लेता है तो वह सद्गुरु चरण आश्रय ले लेता है तथा उनसे गुरुमंत्र प्राप्त करता है।शरीर मे आसक्त अथवा विषयों में आसक्त जीव को चाहिए कि वह अपने अपने वर्ण तथा आश्रम के नियमों का पालन करते हुए सद्गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करे।
*ब्राह्मण आदि उच्च वर्ण में सत्पात्र होने पर वह गुरु होने योग्य है*
ब्राह्मण यदि श्रीकृष्ण भक्त है तो वह सभी वर्णों का गुरु हो सकता है परन्तु यदि ब्रह्ममण कुल में ऐसा सुपात्र न मिले तो अन्य कुल में उतपन्न व्यक्ति से भी दीक्षा ग्रहण की जा सकती है। दीक्षा देने या लेने से पहले गुरु को शिष्य की व शिष्य को गुरु की भली भांति परीक्षा कर लेनी चाहिए । जहां तक सम्भव हो, उच्चवर्ण के गुरु से ही दीक्षा लेनी चाहिए।
*वर्ण विचार की अपेक्षा सुपात्र विचार करना अधिक उचित है*
जो कृष्ण तत्व को भली भांति समझता है , वही वास्तविक गुरु हो सकता है, चाहे वह ब्राह्मण हो , शुद्र हो , गृहस्थी हो अथवा सन्यासी हो। सद्गुरु तो तमाम इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कल्पतरु वृक्ष के समान होते हैं। यदि हमें श्रीकृष्ण प्रेम प्राप्त करना है तो सद्गुरु के वर्ण की ओर ध्यान न देकर उनकी कृष्ण भक्ति देखनी चाहिए क्योंकि परमार्थ के मार्ग में केवलमात्र उच्च वर्ण की मर्यादा देना उचित नहीं है । शुद्ध सोने की तरह सुपात्र की प्राप्ति करना अर्थात सद्गुरु की प्राप्ति करना ही मूल प्रयोजन है। अगर कोई गुरु , सुपात्र होने के साथ साथ उच्च वर्ण का भी हो तो यह सोने पर सुहागे के समान है।

*गृहत्यागी , गृहत्यागी गुरु का आश्रय कर सकता है*
यदि किसी भी कारणवश कोई जीव ग्रहस्थ आश्रम का परित्याग करके अन्य आश्रम को ग्रहण करता है तो उसके ऐसा करने मात्र से ही उसकी परमार्थिक उन्नति न होगी । परमार्थिक उन्नति प्राप्त करने के लिए उसे सद्गुरु का आश्रय ग्रहण करना पड़ेगा । गृहत्यागी व्यक्ति को गृहत्यागी गुरु का आश्रय ग्रहण करना ही उचित है। उनसे शिक्षा दीक्षा ग्रहण करके वह श्रीकृष्ण का नाम रसास्वादन कर सकता है।
*ग्रहस्थ व्यक्ति को अपना ग्रहस्थाश्रम छोड़ने पर भी अपने पूर्व सद्गुरु का चरणाश्रय नहीं छोड़ना चाहिए*
ग्रहस्थ व्यक्ति को वैराग्य प्राप्त करके संसार छोड़ देने पर भी अपने पूर्व सद्गुरु का चरणाश्रय जीवन के अंतिम क्षणों तक नहीं छोड़ना चाहिए। ग्रहस्थ व्यक्ति ग्रहस्थाश्रम के सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण कर सकते हैं यदि वह शुद्ध श्रीकृष्ण भक्त हों तो, अन्यथा उसे सुयोग्य त्यागी सद्गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करना चाहिए । सद्गुरु को प्राप्त करके हरिभजन करते करते हृदय में जब भगवत भावों का उदय होता है तो स्वाभाविक रूप से वह संसार परित्याग करने से वह वैरागी भक्त बन जाता है।
*जो वैराग्य आश्रम ग्रहण करेंगे , वे वैरागी सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करेंगे*
वैराग्याश्रम ग्रहण कर लेने के बाद उस व्यक्ति को चाहिए कि वह वैरागी गुरु का ही चरणाश्रय ग्रहण करे क्योंकि वैरागी गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करने से उसे वैराग्य की शिक्षा प्राप्त होगी । शिक्षा देने के लिए तो गुरु कल्पतरु के समान होते हैं जो कि विभिन्न प्रकार की शिक्षा ग्रहण करते हैं।
*दीक्षा और शिक्षा गुरु समान रूप से सम्माननीय हैं*
शिक्षा और दीक्षा के भेद से गुरु दो प्रकार के होते हैं । अतः जो व्यक्ति अनायास उस परमार्थ धन को प्राप्त करना चाहते हैं , वे शिक्षा गुरु तथा दीक्षा गुरु दोनों को बराबर सम्मान प्रदान करते हैं। दीक्षा गुरु श्रीकृष्णनाम प्रदान करते हैं जबकि शिक्षा गुरु भजन तत्व की शिक्षा देते हैं । सभी वैष्णव , शिक्षा गुरु होते हैं । उनका यथायोग्य सम्मान करना चाहिए।

*सम्प्रदाय के आदिगुरु की शिक्षाओं को अवलम्बन करके आचरण करें*
वैष्णव सम्प्रदाय के सभी आचार्य, शिक्षा गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हैं किंतु जो आदि आचार्य हैं, वे गुरु शिरोमणि है । उनकी यथोउचित पूजा करनी चाहिए। इधर उधर की बातें न सुनकर आदि आचार्यों का ही अनुसरण करना चाहिए एवं बड़े यत्न के साथ उनके आदेशों का पालन करना चाहिए तथा वैष्णव परम्परा से दीक्षा लेनी चाहिए।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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